देहरादून: फटती दीवारें...फर्श पर चौड़ी दरारें और धंसते मकान... ये मंजर इन दिनों जोशीमठ में दिख रहा है. जोशीमठ उत्तराखंड का एक शहर है जो चमोली जिले में पड़ता है. जोशीमठ धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक और पर्यटन के लिहाज से उत्तराखंड की नहीं देश का भी महत्वपूर्ण शहर है. जोशीमठ में बने हालात को लेकर लोगों में आक्रोश चरम पर है. लोगों का आरोप है कि हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए बिछाई गई सुरंगों से ही घरों तक पानी पहुंचा और दीवारों में दरार आ गईं. जोशीमठ में 678 घरों में दहशत की दरार के चलते लोगों को अपने सपनों के आशियाना छोड़कर राहत कैंप या रिश्तेदारों के यहां रहना पड़ रहा है.
जोशीमठ के स्थानीय लोगों का आरोप है एनटीपीसी के हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए सुरंग खोदी गई, जिस वजह से जोशीमठ शहर धंस रहा है. हालांकि, एनटीपीसी ने इन सब बातों को खारिज किया है. जोशीमठ को लेकर जितनी डराने वाली खबरें आप देख और सुन रहे हैं, उससे भी भयानक सत्य ये है कि जोशीमठ का ज्यादातर हिस्सा बहुत लंबे समय तक नहीं बचेगा. क्योंकि इन तस्वीरों के बीच हिमालय के भविष्य पर भी बहस शुरू हो गयी है. ऐसा इसलिए क्योंकि एक नई रिसर्च ने हिमालय की बदलती भौगोलिक स्थिति को अपनी रिपोर्ट में शामिल किया है.
डैम के चलते ज्योग्राफिकल बदलाव: बात टिहरी डैम पर आए उस रिसर्च पेपर की हो रही है, जिसमें टिहरी झील के चलते इसके किनारों के ज्योग्राफिकल बदलाव को बयां किया गया है. खास बात यह है कि इस रिसर्च पेपर ने प्रदेश के बड़े बांधों के कारण हिमालय के अस्तित्व पर संकट की ओर इशारा कर दिया है. दरअसल इस रिपोर्ट में पाया गया है कि टिहरी बांध के कारण बनी झील इसके आसपास के इलाके में भौगोलिक रूप से बदलाव कर रही है. जीपीएस में इस बदलाव के चलते इसका सीधा असर हिमालय पर भी पड़ रहा है.
आसान भाषा में समझें तो टिहरी झील के कारण इसके किनारों की दूरी घट-बढ़ रही है. टिहरी बांध पर रिसर्च पेपर तैयार करने वाले डॉ एसपी सती कहते हैं कि टिहरी झील के पानी के दबाव से इस झील के किनारों का जीपीएस बदल रहा है. चौंकाने वाली बात यह है कि ऐसा साल में दो बार हो रहा है. उनका कहना है कि जब झील का पानी बेहद ज्यादा होता है तो किनारे नजदीक आ जाते हैं, जबकि पानी कम होने पर यह किनारे फिर से दूर हो जाते हैं. डॉ सती कहते हैं 2013 की आपदा के बाद यहां ज्यादा कुछ नहीं हुआ, लेकिन फरवरी 2021 में आई ऋषिगंगा आपदा के बाद जोशीमठ और आसपास के इलाकों में जमीन धंसने की रफ्तार तेज हो गई है. जिसकी वजह से आज जोशीमठ में हर तरफ दरारें दिख रही हैं और जगह-जगह जलस्रोत फूटे हुए हैं.
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बता दें कि उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर करीब 70 से ज्यादा जल विद्युत परियोजनाएं या तो निर्मित हैं या फिर निर्माणाधीन हैं. ऐसे में इन परियोजनाओं की टनल को लेकर होने वाले काम से हिमालय को खासा नुकसान होने की बात कही जा रही है. उधर इन परियोजनाओं पर रिजर्व वायर को लेकर टिहरी बांध के रिसर्च पेपर से जो बात सामने आई है वह और भी अधिक चिंता पैदा करने वाली है. टिहरी बांध को लेकर यह रिसर्च इसलिए भी चिंता का सबब है, क्योंकि 2400 मेगावाट वाली इस परियोजना से बनी 42 किलोमीटर लंबी झील के आसपास भूस्खलन जैसी दिक्कतें सामने आ रही हैं.
ऐसा नहीं है कि जल विद्युत परियोजनाओं को लेकर पूर्व में इस तरह के संकेत ना दिए गए हों. साल 2013 में आई आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनी हाई पावर कमेटी ने भी बड़े बांधों को लेकर एहतियात बरतने से जुड़े सुझाव दिए थे. यही नहीं इसके बाद ऑल वेदर रोड को लेकर बनाई गई हाई पावर कमेटी ने भी सड़क निर्माण के दौरान चौड़ी सड़कों पर कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. इन हाई पावर कमेटी के चेयरमैन रहे रवि चोपड़ा मौजूदा हालातों को देखकर निराश नजर आते हैं. रवि चोपड़ा कहते हैं कि वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों के सुझाव को दरकिनार किया जाता है. वह कहते हैं कि जोशीमठ में विष्णुगाड़ परियोजना नहीं बनाई जानी चाहिए थी. इसकी बड़ी वजह इस क्षेत्र के मेन सेंट्रल थ्रस्ट जोन में होना भी है.
क्या है तपोवन विष्णुगाड़ हाइड्रोपावर प्लांट: 31 दिसंबर 2002 को NTPC यानी नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन और उत्तराखंड सरकार के बीच एक समझौते पर बात हुई. 23 जून 2004 को इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए. ये समझौता था चमोली जिले की धौलीगंगा नदी पर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बनाने का. इसका नाम है तपोवन विष्णुगाड़ हाइड्रोपावर प्लांट. 14 फरवरी 2005 को तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीएम सईद और उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने इसकी आधारशिला रखी. ये पावर प्लांट अलकनंदा नदी के नीचे बन रहा है और इसमें 130 मेगावॉट के चार पेल्टन टर्बाइन जनरेटर शामिल हैं. धौलीगंगा नदी पर बैराज बन रहा है. कुल मिलाकर ये पावर प्लांट 520 मेगावॉट का हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है. इसके बनने के बाद सालाना 2.5 टेरावॉट ऑवर (TWh) बिजली पैदा होने की उम्मीद है. इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत 2,978.5 करोड़ रुपये है.
चेतावनी को नजरअंदाज किया: 1976 में मिश्रा आयोग की रिपोर्ट आई थी, जिसमें चेताया गया था कि जोशीमठ की जड़ से छेड़खानी करना खतरनाक साबित होगा, क्योंकि ये मोरेन पर बसा शहर है. मोरेन यानी ग्लेशियर पिघल जाने के बाद जो मलबा बचता है. गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में बने इस आयोग ने कहा था कि जोशीमठ के नीचे की जड़ से जुड़ी चट्टानों को बिल्कुल न छेड़ा जाए और विकास कार्य भी एक सीमित दायरे में किए जाएं. आयोग का कहना था कि जोशीमठ रेतीली चट्टान पर स्थित है. इसलिए इसकी तलहटी में कोई विकास कार्य न किया जाए. खनन तो बिल्कुल भी नहीं. इसमें सुझाव दिया गया था कि अलकनंदा नदी के किनारे एक दीवार बनाई जाए और यहां के नालों को सुरक्षित किया जाए. लेकिन सरकार ने इस पूरी रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया.
जोशीमठ दशकों से धंस रहा है. 70 के दशक में भी यहां कुछ घरों में दरारें आ गई थीं, क्योंकि सालों से इसकी तलहटी में भूस्खलन हो रहा है. जोशीमठ के स्योमां, खोन जैसे गांव दशकों पहले ही खाली कराए जा चुके हैं. अब गांधीनगर, सुनील का कुछ इलाका, मनोहर बाघ, रविग्राम गौरंग, होसी, जिरोबेड, नरसिंह मंदिर के नीचे और सिंह धार समेत कई इलाकों की जमीन धंस रही है.