नई दिल्ली : किसी भी राज्य व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता सुशासन की दो आंखें हैं. यह कहने की जरूरत नहीं है कि देश में सत्ता भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है. राजनीतिक दलों ने औपनिवेशिक युग के आधिकारिक गोपनीयता कानून की आड़ में जनता का पैसा चुपके से लुटने के लिए दरवाजा खोल रखा है. सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि 1986 में स्पष्ट किया था कि संविधान का अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है.
सरकारों ने अगले 19 वर्षों तक उस क्रांतिकारी कानून को बनाने की जहमत नहीं उठाई. सूचना का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद यह पंद्रहवां साल है जब सत्ता के पदों पर भ्रष्टाचार के अंधेरे को दूर करने के लिए इस कानून के रूप में लोगों के हाथों में एक संकेत दीप मिला. जवाबदेही की बुनियाद पर शासन की पारदर्शी व्यवस्था बनाने में केंद्र और राज्य सरकारों के प्रयासों के बारे में किसी भी पूछताछ से केवल निराशा ही हाथ लगेगी.
आरटीआई के लाभ का खुलासा
सूचना के अधिकार कानून की रक्षा करने के बजाय विभिन्न दलों की सरकारें एक-दूसरे के साथ इस कानून की भावना में ही छेद करने के लिए हर स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. पिछले पंद्रह वर्षों में प्राप्त तीन करोड़ से अधिक आवेदन आरटीआई के लाभ का खुलासा करते हैं. इस अधिनियम के तहत केवल तीन फीसद लोगों ने जानकारी देने का अनुरोध किया है. केंद्र और राज्य स्तर के सूचना आयोगों में 2.2 लाख मामले लंबित हैं. केंद्रीय आयोग में खुद शिकायतों के समाधान में दो साल लग रहे हैं. ये संकेत है कि पूरी तरह से खामी रहित व्यवस्था अभी नहीं बन सकी है.
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सरकारी विभागों का पुराना चलन
देश के 29 सूचना आयोगों में से नौ में कर्मचारियों की कमी है. आयुक्तों की नियुक्ति की एक सुचारू प्रक्रिया सुनिश्चित करने के आदेशों का सरकारों की ओर से पालन नहीं किए जाने से व्यवस्था पंगु हो रही है. हर साल 40 से 60 लाख आरटीआई आवेदन मिल रहे है. इनमें से 55 फीसद को कोई जवाब नहीं मिल रहा है. 10 फीसद से कम अपील के लिए जा रहे हैं. इससे साबित होता है कि सरकारी विभागों का पुराना चलन अभी दूर नहीं हुआ है.
अधिकारियों के विचार कानून के दायरे में नहीं
'चांदी के कटोरे' को 'मिट्टी के बर्तन' में बदलने की सरकारों की चालाकी चौंकाने वाली है. ऊंचे आदर्शों के साथ सूचना अधिनियम को लागू करने के कुछ ही वर्षों के भीतर अपने कुटिल राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए संप्रग सरकार ने यह घोषणा करते हुए पूरा नजारा ही उलट दिया कि फाइलों पर अधिकारियों के विचार कानून के दायरे में नहीं आएंगे. परिणामस्वरूप अपने पसंदीदा लोगों से सूचना आयोगों को भरने की प्रवृत्ति विकसित हुई है.
आरटीआई अधिनियम लागू
आरटीआई अधिनियम लागू होने के बाद से जिन लोगों को सूचना आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया उनमें से लगभग 60 फीसद पूर्व सरकारी अधिकारी हैं. सूचना आयोगों का नेतृत्व करने वालों में से 38 फीसद लोग सरकारी कर्मचारी हैं. तंत्र 25 फीसद से अधिक रिक्तियों की वजह से पहले से ही पीड़ित था और राजग सरकार पिछले साल इस अधिनियम में संशोधन के साथ आगे आई जो इस व्यवस्था को और कमजोर करेगा.
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कुछ शर्तों के साथ आरटीआई के दायरा
केंद्र सरकार ने यह निर्णय लेते हुए कि चुनाव आयोग और सूचना आयोग में कोई समानता नहीं है और अधिनियम में संशोधन करके सूचना आयोग के सदस्यों को केंद्र सरकार के दायरे में लाकर उनकी नियुक्तियां, कार्यकाल, वेतन और भत्ते का आदि को नियंत्रित कर केंद्र ने उनकी स्वतंत्रता को प्रतिबंधित कर उनका दर्जा कम कर दिया. न्यायपालिका ने पिछले नवंबर में एक एतिहासिक निर्णय दिया था कि 'सर्वोच्च न्यायालय' सहित मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तों के साथ आरटीआई के दायरे में आएगा.
भारत के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी
न्यायालय ने इन उदाहरणों से 'सूचना के अधिकार' का पुरजोर समर्थन किया है. इसके साथ ही भारत के मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी कि आरटीआई का इस्तेमाल ब्लैकमेल के एक उपकरण के रूप में करके इसे अनुपयोगी बनाया जा रहा है, यह कुछ लोगों की गलतियों की वजह से सभी को प्रभावित कर रहा है. नागरिकों का जानने का अधिकार लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है. इसे एक नागरिक अधिकार के रूप में संरक्षित रखना सभी का कर्तव्य है.