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महिला अपराध के खिलाफ सिर्फ सख्त दिशानिर्देश या होगी कार्रवाई - महिलाओं के खिलाफ अपराध

दुष्कर्म महिलाओं के खिलाफ होने वाली सर्वाधिक हिंसक घटना है. पिछले साल देश में प्रति दिन दुष्कर्म के औसतन 87 मामले दर्ज किए गए. जो काफी निराशाजनक हैं. हाथरस में हुई दर्दनाक घटना के बाद न्यायमूर्त जेएस वर्मा की समिति ने कहा था कि देश में यह घटना कानूनों के कारण नहीं, बल्कि कानून के शासन के डर की कमी के कारण है. ऐसे ही 2006 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वीएन खरे ने 'पंचशील' की तुलना में पांच शक्तिशाली सुझावों के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करने का संकेत दिया.

-Guidelines OK where is the action
बलात्कार के खिलाफ कानून की कार्रवाई
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Published : Oct 15, 2020, 9:30 AM IST

हैदराबाद : देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा महिलाओं का है. पिछले साल प्रति दिन बलात्कार के औसतन 87 मामले दर्ज हुए जो महिलाओं और मातृत्व की गरिमा पर धब्बा है. न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति ने सात साल पहले एक कठोर सत्य का उल्लेख किया था. समिति ने कहा था कि ऐसा कानूनों के अभाव के कारण नहीं है, बल्कि असुरक्षा के माहौल के लिए जिम्मेदार अच्छे शासन का नहीं होना और कानून के शासन के लिए डर की कमी है.

रोग के मूल कारणों के उचित उपचार के बिना केवल दिशा-निर्देश जारी करने या अधिनियम में संशोधन कर देने से अव्यवस्था को ठीक कर पाना असंभव है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले साल 16 मई और पांच दिसंबर को और इस महीने की पांच तारीख को राज्यों को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में पुलिस कड़ी कार्रवाई करे. केंद्र ने हाल ही में स्पष्ट किया है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में किसी भी पुलिस स्टेशन के लिए अपने क्षेत्राधिकार पर विचार किए बगैर एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है.

सीआरपीसी की धारा 173 में चेतावनी दी गई है कि जांच 60 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए और जांच में लापरवाही के लिए गंभीर दंड का प्रावधान होगा. यह इंगित करता है कि आरोप दर्ज होने के बाद 'इन्वेस्टिगेशन ट्रैकिंग' प्रणाली के माध्यम से जांच की लगातार निगरानी की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में फैसला सुनाया था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 के तहत एफआईआर पंजीकरण अनिवार्य है. शीर्ष अदालत ने आठ निर्देश जारी किए थे जो पुलिस प्रशासन का मार्गदर्शन कर सकते हैं. जब तक पुलिस अधीन है और राजनीतिक आकाओं का हुक्म बजा रही है. गुंडे और अपराधी अहंकार के साथ स्वतंत्र होकर महिलाओं पर अत्याचार करना जारी रखेंगे क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास है कि वह राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं. दिशा-निर्देशों को दोहराने के बजाय उन्हें तुरंत सख्ती के साथ लागू किया जाना चाहिए.

यदि जघन्य अपराधों के दोषी अपराधियों को दंडित नहीं किया जाता है तो ऐसे सभी मामलों में जांच और अभियोजन अधिकारियों की भूमिका की सख्ती से जांच होनी चाहिए. वर्ष 2014 में न्यायपालिका ने फैसला दिया कि उन्हें गलत तरीके से काम करने के लिए जवाबदेह बनाना चाहिए और दंडित किया जाना चाहिए. चूंकि निर्देश के अनुसार सरकारें छह महीने के भीतर आवश्यक तंत्र विकसित करने में विफल रहीं, इसलिए आपराधिक गतिविधियां बेरोक- टोक जारी हैं.

2006 में प्रकाश सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय की ओर से जारी सात स्पष्ट आदेशों में से राज्यों में किसी ने भी ईमानदारी से अनुपालन नहीं किया है. उसमें कहा गया था कि अगर अपराधियों की उपेक्षा किए बिना कानून के शासन को बरकरार रखना है तो पुलिस सुधार आवश्यक है. जब आपराधिक राजनीति का निर्लज्जता के साथ निर्भीकता से इस्तेमाल होता है और जब पुलिस संगठन इसके अधीन होता है तो सामाजिक न्याय कैसे प्राप्त किया जा सकता है? उसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वीएन खरे ने 'पंचशील' की तुलना में पांच शक्तिशाली सुझावों के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करने का संकेत दिया.

पढ़ें - क्या इस देश में 'बेटी' होना सजा है ?

पहला सुझाव सरकारी नियंत्रण से अभियोजन हटाने और निर्वाचन आयोग के समान एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना करने का है, एक अन्य सुझाव स्वतंत्र आपराधिक जांच के लिए है. तीसरा सुझाव यह है कि पुलिस को दी गई गवाही को एक न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया जाना चाहिए, जो प्रमुख साक्ष्य का महत्व बढ़ाता है और मामले की सुनवाई से पहले अदालत में पेश किया जाता है. गवाहों की सुरक्षा चौथा है, अंतिम है बरी करने के खिलाफ अपील की शक्ति को पीड़ितों को स्थानांतरित करना. न्यूनतम सजा के कारणों का हवाला देते हुए विधि आयोग ने 2012 की शुरुआत में सुझाव दिया था कि लोक अभियोजकों की भर्ती प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए.

हैदराबाद : देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा महिलाओं का है. पिछले साल प्रति दिन बलात्कार के औसतन 87 मामले दर्ज हुए जो महिलाओं और मातृत्व की गरिमा पर धब्बा है. न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति ने सात साल पहले एक कठोर सत्य का उल्लेख किया था. समिति ने कहा था कि ऐसा कानूनों के अभाव के कारण नहीं है, बल्कि असुरक्षा के माहौल के लिए जिम्मेदार अच्छे शासन का नहीं होना और कानून के शासन के लिए डर की कमी है.

रोग के मूल कारणों के उचित उपचार के बिना केवल दिशा-निर्देश जारी करने या अधिनियम में संशोधन कर देने से अव्यवस्था को ठीक कर पाना असंभव है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पिछले साल 16 मई और पांच दिसंबर को और इस महीने की पांच तारीख को राज्यों को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में पुलिस कड़ी कार्रवाई करे. केंद्र ने हाल ही में स्पष्ट किया है कि महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में किसी भी पुलिस स्टेशन के लिए अपने क्षेत्राधिकार पर विचार किए बगैर एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है.

सीआरपीसी की धारा 173 में चेतावनी दी गई है कि जांच 60 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए और जांच में लापरवाही के लिए गंभीर दंड का प्रावधान होगा. यह इंगित करता है कि आरोप दर्ज होने के बाद 'इन्वेस्टिगेशन ट्रैकिंग' प्रणाली के माध्यम से जांच की लगातार निगरानी की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में फैसला सुनाया था कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 के तहत एफआईआर पंजीकरण अनिवार्य है. शीर्ष अदालत ने आठ निर्देश जारी किए थे जो पुलिस प्रशासन का मार्गदर्शन कर सकते हैं. जब तक पुलिस अधीन है और राजनीतिक आकाओं का हुक्म बजा रही है. गुंडे और अपराधी अहंकार के साथ स्वतंत्र होकर महिलाओं पर अत्याचार करना जारी रखेंगे क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास है कि वह राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो सकते हैं. दिशा-निर्देशों को दोहराने के बजाय उन्हें तुरंत सख्ती के साथ लागू किया जाना चाहिए.

यदि जघन्य अपराधों के दोषी अपराधियों को दंडित नहीं किया जाता है तो ऐसे सभी मामलों में जांच और अभियोजन अधिकारियों की भूमिका की सख्ती से जांच होनी चाहिए. वर्ष 2014 में न्यायपालिका ने फैसला दिया कि उन्हें गलत तरीके से काम करने के लिए जवाबदेह बनाना चाहिए और दंडित किया जाना चाहिए. चूंकि निर्देश के अनुसार सरकारें छह महीने के भीतर आवश्यक तंत्र विकसित करने में विफल रहीं, इसलिए आपराधिक गतिविधियां बेरोक- टोक जारी हैं.

2006 में प्रकाश सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय की ओर से जारी सात स्पष्ट आदेशों में से राज्यों में किसी ने भी ईमानदारी से अनुपालन नहीं किया है. उसमें कहा गया था कि अगर अपराधियों की उपेक्षा किए बिना कानून के शासन को बरकरार रखना है तो पुलिस सुधार आवश्यक है. जब आपराधिक राजनीति का निर्लज्जता के साथ निर्भीकता से इस्तेमाल होता है और जब पुलिस संगठन इसके अधीन होता है तो सामाजिक न्याय कैसे प्राप्त किया जा सकता है? उसी वर्ष सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वीएन खरे ने 'पंचशील' की तुलना में पांच शक्तिशाली सुझावों के साथ आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करने का संकेत दिया.

पढ़ें - क्या इस देश में 'बेटी' होना सजा है ?

पहला सुझाव सरकारी नियंत्रण से अभियोजन हटाने और निर्वाचन आयोग के समान एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना करने का है, एक अन्य सुझाव स्वतंत्र आपराधिक जांच के लिए है. तीसरा सुझाव यह है कि पुलिस को दी गई गवाही को एक न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया जाना चाहिए, जो प्रमुख साक्ष्य का महत्व बढ़ाता है और मामले की सुनवाई से पहले अदालत में पेश किया जाता है. गवाहों की सुरक्षा चौथा है, अंतिम है बरी करने के खिलाफ अपील की शक्ति को पीड़ितों को स्थानांतरित करना. न्यूनतम सजा के कारणों का हवाला देते हुए विधि आयोग ने 2012 की शुरुआत में सुझाव दिया था कि लोक अभियोजकों की भर्ती प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए.

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