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यहां गो सेवा है परम धर्म, 300 सालों से नहीं निकाला जाता गायों का दूध - वाराणसी

वाराणसी के रमना गांव में स्थापित भितरिया बाबा आश्रम गोशाला में करीब 700 से अधिक गोवंश हैं, जिनमें करीब 500 गाएं और शेष सांड़ हैं. 300 साल पुराने इस आश्रम का इतिहास कि कभी गायों का दूध नहीं निकाला गया. गायों के बछड़े ही दूध पीते हैं. इस आश्रम का भगवान शिव से नाता है. जब वो काशी आए थे, तब यहीं पर शिवलिंग स्थापित किया था.

भीतरिया बाबा गोशाला की कहानी
भीतरिया बाबा गोशाला की कहानी
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Published : Jul 31, 2021, 9:15 PM IST

वाराणसी: काशी (Kashi) को धर्म और अध्यात्म की नगरी के साथ इतिहास, विभिन्न सभ्यता और संस्कृतियों वाला जिला कहा जाता है. यहां, तमाम धरोहर और ऐतिहासिक मंदिर (historical temple) स्थापित हैं. मान्यता है कि विश्व में काशी एकमात्र ऐसा नगर है, जिसे स्वयं महादेव (Mahadev) ने अपने त्रिशूल पर बसाया है. इसे बाबा विश्वनाथ का शहर भी कहते हैं. विविध संस्कृतियों के अलावा यहां एक आश्रम स्थापित है जो आज तक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है. जी, हां ये आश्रम आपको आश्चर्यचकित कर देगा. यह आश्रम काशी के छोर पर रमना गांव में स्थित है. इसे क्षेत्र में स्वामी भितरंगानन्द सरस्वती (Swami Bhitrangananda Saraswati) या भितरिया बाबा आश्रम के नाम से जाना जाता है. कुछ लोग इसे नागा बाबा आश्रम भी कहते हैं. इस आश्रम में गोशाला स्थापित है, जिसमें सात सौ से अधिक गोवंश हैं. दावा है कि कभी भी इन गायों का दूध नहीं निकाला गया और न ही बेंचा गया.

गंगा (Ganga) के तट पर बसा ये आश्रम बिल्कुल अपने आप में अनोखा है. लगभग 30 बीघे की परिधि वाले इस आश्रम में असंख्य वृक्ष हैं. इस आश्रम में करीब 700 से अधिक देसी गायें और सांड हैं. इन्हें कभी बांधा नहीं जाता. ये आश्रम खास इसलिए भी है क्योंकि यहां पर गायों का दूध नहीं निकाला जाता. दुधारू गायों के बछड़े ही पूरा दूध पीते हैं. इन गायों के चारे-पानी लिए सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिलती.

भीतरिया बाबा गोशाला की कहानी

हालांकि, भारतीय जनता पार्टी गाय के नाम पर वोट मांगती है. वैसे तो प्रदेश में योगी सरकार ने गोवंशों को संरक्षित करने के लिए गोशालाओं का निर्माण कराया है. गोवंशों के भूसे और पानी की समुचित व्यवस्था के लिए धनराशि भी आवंटित करती है, लेकिन इस आश्रम के सेवादार के मुताबिक, इस गोशाला के नाम पर सरकारी मदद नहीं मिलती. कहते हैं लोग अपनी श्रद्धा से भूसा और गोवंशों के खाने योग्य सामान दान करते हैं. इस आश्रम के संरक्षक का कहना उनकी सातवीं पीढ़ी इस आश्रम की देखरेख कर रही है.

आश्रम के सेवादार हौसला यादव का कहना है कि ये नागा बाबा का आश्रम है. बाबा स्वयं भगवान शिव के भक्त थे. बाबा कभी वस्त्र नहीं धारण करते थे, इसीलिए इन्हें नागा बाबा भी कहा जाता था. जो बहुत ही सिद्ध पीठ बाबा थे, जिन्हें भितरिया बाबा भी कहा जाता है. दावा है कि 300 साल बीत जाने के बाद भी इस परंपरा का अनवरत निर्वहन किया जा रहा है.

पुराणों के अनुसार, भगवान शिव जब पहली बार काशी आए उस दौरान जहां पर वो टिके उस गांव को टिकरी नाम दिया गया और जहां पर वो रमे उसे रमना गांव का नाम दिया. भगवान शिव ने स्वयं अपने हाथों से यहां पर शिवलिंग की स्थापना की. जब मां गंगा धरती पर आईं तो यहीं से उत्तरवाहिनी होकर चली गईं.

इसे भी पढ़ें-Sawan 2021: महिमा ऐसी कि होती है 'खंडित शिवलिंग' की पूजा, भक्तों पर बरसती है भोले की कृपा

आश्रम के संरक्षक सतीश फौजी ने बताया यह पवित्र आश्रम विश्व गुरु स्वामी स्वामी भितरंगानन्द सरस्वती जी महाराज का है. उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है. कहते हैं स्वामी 200 वर्षों तक जीवित रहे. साल 1964 में उन्होंने शरीर को त्याग दिया. कहते हैं जब स्वामी जी जीवित थे उस दौरान हजारों की संख्या में गाय थीं. भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय गायों की सेवा के लिए क्षेत्र से अन्न दाना भूरा मांग कर लाते थे. वर्तमान में जिस भी भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं वो गोवंशों के चारे-पानी के लिए दान देते हैं.

वाराणसी: काशी (Kashi) को धर्म और अध्यात्म की नगरी के साथ इतिहास, विभिन्न सभ्यता और संस्कृतियों वाला जिला कहा जाता है. यहां, तमाम धरोहर और ऐतिहासिक मंदिर (historical temple) स्थापित हैं. मान्यता है कि विश्व में काशी एकमात्र ऐसा नगर है, जिसे स्वयं महादेव (Mahadev) ने अपने त्रिशूल पर बसाया है. इसे बाबा विश्वनाथ का शहर भी कहते हैं. विविध संस्कृतियों के अलावा यहां एक आश्रम स्थापित है जो आज तक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है. जी, हां ये आश्रम आपको आश्चर्यचकित कर देगा. यह आश्रम काशी के छोर पर रमना गांव में स्थित है. इसे क्षेत्र में स्वामी भितरंगानन्द सरस्वती (Swami Bhitrangananda Saraswati) या भितरिया बाबा आश्रम के नाम से जाना जाता है. कुछ लोग इसे नागा बाबा आश्रम भी कहते हैं. इस आश्रम में गोशाला स्थापित है, जिसमें सात सौ से अधिक गोवंश हैं. दावा है कि कभी भी इन गायों का दूध नहीं निकाला गया और न ही बेंचा गया.

गंगा (Ganga) के तट पर बसा ये आश्रम बिल्कुल अपने आप में अनोखा है. लगभग 30 बीघे की परिधि वाले इस आश्रम में असंख्य वृक्ष हैं. इस आश्रम में करीब 700 से अधिक देसी गायें और सांड हैं. इन्हें कभी बांधा नहीं जाता. ये आश्रम खास इसलिए भी है क्योंकि यहां पर गायों का दूध नहीं निकाला जाता. दुधारू गायों के बछड़े ही पूरा दूध पीते हैं. इन गायों के चारे-पानी लिए सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिलती.

भीतरिया बाबा गोशाला की कहानी

हालांकि, भारतीय जनता पार्टी गाय के नाम पर वोट मांगती है. वैसे तो प्रदेश में योगी सरकार ने गोवंशों को संरक्षित करने के लिए गोशालाओं का निर्माण कराया है. गोवंशों के भूसे और पानी की समुचित व्यवस्था के लिए धनराशि भी आवंटित करती है, लेकिन इस आश्रम के सेवादार के मुताबिक, इस गोशाला के नाम पर सरकारी मदद नहीं मिलती. कहते हैं लोग अपनी श्रद्धा से भूसा और गोवंशों के खाने योग्य सामान दान करते हैं. इस आश्रम के संरक्षक का कहना उनकी सातवीं पीढ़ी इस आश्रम की देखरेख कर रही है.

आश्रम के सेवादार हौसला यादव का कहना है कि ये नागा बाबा का आश्रम है. बाबा स्वयं भगवान शिव के भक्त थे. बाबा कभी वस्त्र नहीं धारण करते थे, इसीलिए इन्हें नागा बाबा भी कहा जाता था. जो बहुत ही सिद्ध पीठ बाबा थे, जिन्हें भितरिया बाबा भी कहा जाता है. दावा है कि 300 साल बीत जाने के बाद भी इस परंपरा का अनवरत निर्वहन किया जा रहा है.

पुराणों के अनुसार, भगवान शिव जब पहली बार काशी आए उस दौरान जहां पर वो टिके उस गांव को टिकरी नाम दिया गया और जहां पर वो रमे उसे रमना गांव का नाम दिया. भगवान शिव ने स्वयं अपने हाथों से यहां पर शिवलिंग की स्थापना की. जब मां गंगा धरती पर आईं तो यहीं से उत्तरवाहिनी होकर चली गईं.

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आश्रम के संरक्षक सतीश फौजी ने बताया यह पवित्र आश्रम विश्व गुरु स्वामी स्वामी भितरंगानन्द सरस्वती जी महाराज का है. उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है. कहते हैं स्वामी 200 वर्षों तक जीवित रहे. साल 1964 में उन्होंने शरीर को त्याग दिया. कहते हैं जब स्वामी जी जीवित थे उस दौरान हजारों की संख्या में गाय थीं. भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय गायों की सेवा के लिए क्षेत्र से अन्न दाना भूरा मांग कर लाते थे. वर्तमान में जिस भी भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं वो गोवंशों के चारे-पानी के लिए दान देते हैं.

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