वाराणसी : पर्वों की नगरी वाराणसी में हर त्योहार का एक विशेष महत्व रहा है. वहीं, होली का पर्व अपने आप में रंगों को समेटकर परंपराओं को सजाने का उत्सव है. रंगों के इस त्योहार में काशी की एक अद्भुत और अलौकिक छटा देखने को मिलती है. होली की शुरुआत काशी में रंगभरी एकादशी से मानी जाती है. रंगभरी एकादशी की यह परंपरा 357 वर्षों से काशी में निभाई जा रही है. इसे बाबा विश्वनाथ और माता पार्वती के गवने के रूप में जाना जाता है. तो चलिए जानते हैं कि काशी में मनाई जाने वाली रंगभरी एकादशी की परंपरा इतनी खास क्यों है ?
देवादिदेव महादेव की नगरी काशी वह अद्भुत नगर है, जहां परंपरा रूपी मोतियों को संस्कृति रूपी धागे में पिरो कर उसे संरक्षित करने का काम आज भी किया जा रहा है. इन्हीं परंपराओं को संजोकर रखने का काम श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार की ओर से 357 सालों से जारी है. काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत परिवार ने मंदिर स्थापना के बाद लोकाचार को बनाए रखने के उद्देश्य से शिवरात्रि, रक्षाबंधन, अन्नकूट पर्व के साथ ही रंगभरी एकादशी जैसे पर्व को लोकाचार से जोड़कर उसे सुरक्षित और संरक्षित करने का काम किया. सैकड़ों साल पहले शुरू हुई इस परंपरा में पहले भगवान भोलेनाथ को लकड़ी की पालकी पर सवार कर माता पार्वती के साथ भक्तों के बीच ले जाया जाता था. फिर समय बदलता गया, परंपराएं और लोकाचार के तरीके भी बदल गए, लेकिन काशीवासियों का श्रद्धा-भाव आज भी नहीं बदला.
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माता के गवने के रूप में जाना जाता है पर्व
ऐसी मान्यता है कि काशी में रंगभरी एकादशी से ही भोलेनाथ के साथ अबीर गुलाल खेलकर भक्त होली की शुरुआत करते हैं. इस दिन भोलेनाथ अपनी अर्धांगिनी पार्वती की विदाई कराने के लिए पहुंचते हैं. माता का गौना लेकर जब भोलेनाथ भक्तों के कंधे पर सवार होकर चल रजत प्रतिमा के रूप में काशी भ्रमण पर निकलते हैं, तब भक्त पहला गुलाल-अबीर चढ़ाकर अपने आराध्य से सुख, शांति, समृद्धि की कामना करते हैं. ऐसा कहा जाता है कि भगवान भोलेनाथ वैसे तो हर वक्त औघड़दानी के रूप में होते हैं, लेकिन दो ही मौका ऐसा होता है, जब भोलेनाथ का गृहस्थ रूप दिखाई देता है. एक महाशिवरात्रि और दूसरा रंगभरी एकादशी. रंगभरी एकादशी के दिन भोलेनाथ पार्वती और अपने पुत्र गणेश के साथ लोगों को दर्शन देते हैं. इस अद्भुत रूप का दर्शन प्राप्त कर लोग काशी में होली की शुरुआत करते हैं.
परंपरा के 357 साल
इस बारे में रंगभरी एकादशी आयोजन से जुड़े और महंत परिवार में चल रजत प्रतिमाओं के मुख्य श्रृंगारकर्ता संजीव रत्न मिश्र बताते हैं कि लगभग 356 साल पहले की यह परंपरा इस बार 357वें साल के रूप में प्रवेश की है. ऐसी मान्यता है कि महंत परिवार के लोगों ने 1842 में लकड़ी के पालकी पर भोलेनाथ की इस यात्रा को निकालना शुरू किया था. इसके बाद तत्कालीन महान महावीर प्रसाद तिवारी ने 1917 में रजत पालकी सिंहासन का निर्माण करवाया और उस पर बाबा की यात्रा निकलना शुरू हुई. तब से लेकर अब तक यह परंपरा लगातार निभाई जा रही है.
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भगवान के खादी वस्त्र के पीछे है ये कहानी
भोलेनाथ को पहनाए जाने वाले खादी के वस्त्र भी एक अलग और अनोखी परंपरा की गाथा गाते हैं. ऐसा बताया जाता है कि 1934 में जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए विदेशी सामग्री का बहिष्कार करने पर बल दिया जा रहा था, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की माता स्वरूपरानी बाबा विश्वनाथ के मंदिर में दर्शन करने आईं थीे. काशी में होने वाली रंगभरी एकादशी के पर्व में उन्होंने भगवान भोलेनाथ को पहनाए जाने वाले कपड़े खादी के रूप में बनाए जाने की अपील की थी. उस वक्त उनका यह मानना था कि बाबा भोलेनाथ की यात्रा में शामिल होने वाली भक्तों की भीड़ खादी के वस्त्र बाबा को पहने देखकर इस आंदोलन से सीधे जुड़ेगी और भोलेनाथ के आशीर्वाद से अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब मिलेगा. तब से लेकर अब तक भगवान भोलेनाथ, माता पार्वती रंगभरी एकादशी के दिन खादी के वस्त्र पहनते हैं. इतना ही नहीं, बाबा भोलेनाथ के सिर पर जो टोपी होती है, वह अकबरी टोपी है. यानी हिंदू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल.
इस रंगभरी के मौके पर बाबा विश्वनाथ के दरबार में भी तैयारियां अद्भुत रूप में की गई हैं. आने वाले भक्तों को कोई दिक्कत ना हो, इसका विशेष ध्यान रखा गया है. मंदिर का मुख्य परिसर पहले से ज्यादा भव्य हो चुका है. इसलिए इस बार आने वाली भीड़ को कोई परेशानी नहीं होगी.