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क्या है इस हिंदू कब्रिस्तान की सच्चाई, आप भी जानिए

कोरोना की दूसरी लहर ने बहुत से लोगों की जिंदगी छीन ली. गाजीपुर, बलिया समेत कई अलग-अलग जिलों में गंगा किनारे शवों के मिलने का मामला सामने आया. चर्चा आम हो गई कि क्या हिंदुओं के शवों को गंगा में बहाने या फिर कब्रगाह में दफन करने की कोई परंपरा है. हर किसी की अलग-अलग राय सामने आई, लेकिन इन सबके बीच वाराणसी में एक ऐसा कब्रिस्तान है जो न ही मुस्लिम समुदाय का है न इसाईयों का. बल्कि यहां पर दफन किए जाते हैं हिंदू समप्रदाय से जुड़े लोग.

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हिंदुओं का कब्रिस्तान.
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Published : Jun 2, 2021, 6:43 PM IST

वाराणसी: शहर से लगभग 18 किलोमीटर दूर लोहता क्षेत्र के कोटवा इलाके में स्थित कब्रिस्तान में हिंदू समुदाय के लोगों को, आज से नहीं बल्कि सैकड़ों साल से दफनाए जाने की परंपरा निभाई जा रही है. यहां पर मौजूद सैकड़ों कब्र इस बात की गवाही देती हैं कि हिंदू समुदाय में भी शवों को दफन करने की परंपरा रही है.

हिंदू कब्रिस्तान की कहानी.

लंबे वक्त से जारी है परम्परा

निरंकारी, कबीरपंथी और छोटी जाति के वह लोग जो बौद्ध धर्म को अपनाते हैं. उनमें मरणोपरांत शवों को भूमि समाधि देने की परंपरा है. इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए वाराणसी के इस इलाके में बनाए गए हिंदू कब्रिस्तान में कबीर पंथ, बौद्ध संप्रदाय से जुड़े लोगों के शवों को दफनाने का सिलसिला लंबे वक्त से चला आ रहा है.

इस कब्रिस्तान की देखरेख का जिम्मा उठाने वाले बब्बन यादव का कहना है कि उनके दादा जी के पिता जी के समय से यह परंपरा देखने में आ रही है. लहरतारा, लोहता भरथरा, कोटवा, धनीपुर समेत बनारस में रहने वाले कबीरपंथी और बौद्ध संप्रदाय के लोगों को इस कब्रिस्तान में दफनाया जाता है.

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हिंदू कब्रिस्तान में दफन शव.

इसे भी पढ़ें- दो जून की रोटी पर भारी कोरोना महामारी

कोरोना संक्रमण से मौत के बाद दर्जनों शवों को यहां पर दफनाने की प्रक्रिया अपनाई गई है. पूरी परंपरा हिंदू रीति रिवाज से अपनाई जाती है और शवों को कफन में लपेटकर कब्रिस्तान में बनाई गई कब्र में दफन किया जाता है. यानी ठीक उसी तरह जैसा कि प्रयागराज में गंगा तट पर देखने को मिलता है.

हर कब्र लर लिखा है हिन्दू नाम

वाराणसी में भी हिंदुओं कब्रिस्तान का होना कोई नई बात नहीं है. क्योंकि यहां पर भी सदियों से ऐसी परंपरा चलती आई है. काशी कबीर की धरती है और कबीर को भी भूमि समाधि दी गई थी. कबीर पंथ से जुड़े लोग भी भूमि समाधि ही देते हैं.

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हिंदू कब्रिस्तान.

फिलहाल वाराणसी के कब्रिस्तान में हिंदू संप्रदाय से जुड़े कबीर पंथ, निरंकारी और अन्य संप्रदाय के लोगों को दफनाने की जो परंपरा है. उसका निर्वहन लगातार हो रहा है. यहां पर मौजूद कब्र पर भी हिंदू नाम, जन्म तिथि और मृत्यु तिथि साफ तौर पर अंकित की गई है.

क्या कहते हैं जानकर

इस बारे में संत समिति के महामंत्री आचार्य जितेन्द्रानंद सरस्वती का कहना है कि, देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदू संप्रदाय के अलावा, अन्य संप्रदायों में अंतिम संस्कार की अलग-अलग परंपरा निभाई जाती है. जैन संप्रदाय के अलावा कबीर पंथ, निरंकारी और बौद्ध संप्रदाय के लोगों में अंतिम संस्कार के लिए भू-समाधि देने की परंपरा है.

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हिंदू कब्र.

इसे भी पढ़ें- 'आतंकवाद' ने छुड़वाया घर, फिर भी बना दिया सैकड़ों का भविष्य

उन्होंने ने बताया कि भू-समाधि देने से मोक्ष मिलता है. ऐसा माना जाता है कि इन संप्रदायों में, इसी वजह से यह संप्रदाय अलग-अलग हिस्सों में शवों को दफनाने का काम करते हैं. चाहे प्रयागराज हो, कन्नौज हो, वाराणसी हो. गंगा तट को सबसे शुद्ध और पवित्र माना जाता है. इसलिए इन स्थानों पर आमतौर पर शवों को दफनाया जाता है.

वाराणसी: शहर से लगभग 18 किलोमीटर दूर लोहता क्षेत्र के कोटवा इलाके में स्थित कब्रिस्तान में हिंदू समुदाय के लोगों को, आज से नहीं बल्कि सैकड़ों साल से दफनाए जाने की परंपरा निभाई जा रही है. यहां पर मौजूद सैकड़ों कब्र इस बात की गवाही देती हैं कि हिंदू समुदाय में भी शवों को दफन करने की परंपरा रही है.

हिंदू कब्रिस्तान की कहानी.

लंबे वक्त से जारी है परम्परा

निरंकारी, कबीरपंथी और छोटी जाति के वह लोग जो बौद्ध धर्म को अपनाते हैं. उनमें मरणोपरांत शवों को भूमि समाधि देने की परंपरा है. इसी परंपरा का अनुसरण करते हुए वाराणसी के इस इलाके में बनाए गए हिंदू कब्रिस्तान में कबीर पंथ, बौद्ध संप्रदाय से जुड़े लोगों के शवों को दफनाने का सिलसिला लंबे वक्त से चला आ रहा है.

इस कब्रिस्तान की देखरेख का जिम्मा उठाने वाले बब्बन यादव का कहना है कि उनके दादा जी के पिता जी के समय से यह परंपरा देखने में आ रही है. लहरतारा, लोहता भरथरा, कोटवा, धनीपुर समेत बनारस में रहने वाले कबीरपंथी और बौद्ध संप्रदाय के लोगों को इस कब्रिस्तान में दफनाया जाता है.

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हिंदू कब्रिस्तान में दफन शव.

इसे भी पढ़ें- दो जून की रोटी पर भारी कोरोना महामारी

कोरोना संक्रमण से मौत के बाद दर्जनों शवों को यहां पर दफनाने की प्रक्रिया अपनाई गई है. पूरी परंपरा हिंदू रीति रिवाज से अपनाई जाती है और शवों को कफन में लपेटकर कब्रिस्तान में बनाई गई कब्र में दफन किया जाता है. यानी ठीक उसी तरह जैसा कि प्रयागराज में गंगा तट पर देखने को मिलता है.

हर कब्र लर लिखा है हिन्दू नाम

वाराणसी में भी हिंदुओं कब्रिस्तान का होना कोई नई बात नहीं है. क्योंकि यहां पर भी सदियों से ऐसी परंपरा चलती आई है. काशी कबीर की धरती है और कबीर को भी भूमि समाधि दी गई थी. कबीर पंथ से जुड़े लोग भी भूमि समाधि ही देते हैं.

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हिंदू कब्रिस्तान.

फिलहाल वाराणसी के कब्रिस्तान में हिंदू संप्रदाय से जुड़े कबीर पंथ, निरंकारी और अन्य संप्रदाय के लोगों को दफनाने की जो परंपरा है. उसका निर्वहन लगातार हो रहा है. यहां पर मौजूद कब्र पर भी हिंदू नाम, जन्म तिथि और मृत्यु तिथि साफ तौर पर अंकित की गई है.

क्या कहते हैं जानकर

इस बारे में संत समिति के महामंत्री आचार्य जितेन्द्रानंद सरस्वती का कहना है कि, देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदू संप्रदाय के अलावा, अन्य संप्रदायों में अंतिम संस्कार की अलग-अलग परंपरा निभाई जाती है. जैन संप्रदाय के अलावा कबीर पंथ, निरंकारी और बौद्ध संप्रदाय के लोगों में अंतिम संस्कार के लिए भू-समाधि देने की परंपरा है.

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हिंदू कब्र.

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उन्होंने ने बताया कि भू-समाधि देने से मोक्ष मिलता है. ऐसा माना जाता है कि इन संप्रदायों में, इसी वजह से यह संप्रदाय अलग-अलग हिस्सों में शवों को दफनाने का काम करते हैं. चाहे प्रयागराज हो, कन्नौज हो, वाराणसी हो. गंगा तट को सबसे शुद्ध और पवित्र माना जाता है. इसलिए इन स्थानों पर आमतौर पर शवों को दफनाया जाता है.

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