वाराणसी: कोरोना का कहर इस कदर बरपा है कि बड़ी संख्या में लोग अपनों से दूर हो गए हैं. कोरोना वायरस से लगातार लोगों की मौत हो रही है. मौतों के आंकड़े सिर्फ श्मशान घाट पर जलती चिताओं से नहीं बल्कि हिंदू रीति-रिवज से होने वाले कर्मकांड की जगहों से भी पता चल रहा है. काशी में पीपल के पेड़ों पर आज से पहले कभी इतने घंट नजर नहीं आए, जितने इन दिनों देखे जा रहे हैं. बनारस के हर इलाके में पीपल के पेड़ पर मृत आत्माओं की शांति के लिए अनगिनत मिट्टी के मटके (घंट) लटके हुए हैं.
मिट्टी के घड़े को इसलिए कहते हैं घंट
मोक्ष की नगरी काशी में कोरोना ने बहुत से घरों को उजाड़ दिया है. कोरोना जैसी खतरनाक महामारी ने एक ही घर में दो से तीन लोगों की मौत के बाद हो गई है. बीमारी की भयावहता को श्मशान घाट में जलती चिताएं बयां कर रहीं हैं. भले ही घाटों पर अब चिताओं के जलने का सिलसिला पहले से कम हो गया हो लेकिन इस महामारी से हुई मौतों की असली दास्तान पीपल के पेड़ पर बांधे गए मिट्टी के घड़े बयां कर रहे हैं. हिंदू परंपरा के मुताबिक जिस व्यक्ति का निधन होता है. उसके नाम से 10 दिनों तक मिट्टी के घंट पीपल के पेड़ पर या फिर घाट किनारे बांधे जाते हैं. सुबह शाम इसके नीचे दिया जलाना और पानी भरना परंपरा में शामिल होता है.
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पहले नहीं देखा कभी ऐसा मंजर
जानकारों का कहना है कि धरती से मृत्यु लोक तक की यात्रा में आत्मा को पानी की कमी ना हो और मृत आत्मा शांतिपूर्वक मृत्युलोक तक पहुंच जाए. इसलिए मृतक के नाम से यह मिट्टी का घंट पीपल के पेड़ पर बांधा जाता है. 10 दिनों बाद जब जब अंतिम क्रिया का समस्त पूजा-पाठ खत्म होता है तब इसे उतारा जाता है. पंडितों का कहना है कि इस महामारी के दौर में प्रतिदिन 13 से 14 तो कभी-कभी तो 16 से 20 तक यह घंट बांधने वाले पहुंच रहे हैं. जिसकी वजह से पेड़ों पर इन्हें बांधने की जगह भी नहीं बच रही है. वाराणसी के सिगरा इलाके में स्थित शिव मंदिर के पीपल के पेड़ पर कभी सिर्फ एक-दो घंट श्राद्ध के लिए नजर आते थे लेकिन आज इसके चारों तरफघंट ही नजर आ रहे हैं. पेड़ के नीचे लोग अपनी-अपनी बारी से श्राद्ध कर्म कर रहे हैं.