वाराणसी: बनारस देश के सबसे पुराने शहरों में से एक है. इस शहर में कई ऐसी पुरानी इमारतें, मंदिर, धर्मशाला और यात्री पड़ाव हैं, जो सदियों तक भूकंप, गर्मी, बारिश और भीषण ठंड झेलने के बाद भी सही-सलामत हैं. इन इमारतों और मंदिरों को सैकड़ों साल पहले राजा महाराजाओं ने बनवाया था. इन इमारतों की खासियत यह है कि इनमें गर्मी में ठंडक और ठंडक में गर्मी का एहसास होता है. पर्यटन अधिकारी कीर्तिमान श्रीवास्तव ने बताया कि धर्म नगरी वाराणसी में पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसी पुरानी इमारतों और मंदिरों को रेनोवेट किया जा रहा है. यह रेनोवेशन पुराने तरीके और पुरानी सामग्री से किया जा रहा है, ताकि उसकी इमारतों के ओरिजिनल स्ट्रक्टर का नुकसान नहीं हो.
कीर्तिमान श्रीवास्तव ने बताया कि रेनोवेशन की शुरुआत वाराणसी की पंचकोसी परिक्रमा मार्ग पर पड़ने वाली धर्मशाला से की गई है. पंचकोसी परिक्रमा काशी की 10 यात्राओं में सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक यात्रा मानी जाती हैं. इस प्रोजेक्ट के तहत उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पंचकोसी मार्ग के प्रमुख पांच पड़ावों पर बनाई गई इमारत और धर्मशाला का सौंदर्यीकरण किया जा रहा है. इन धर्मशालाओं को करीब चार सौ साल पहले बनाया गया था. इसका रेनोवेशन उसी तरह किया जा रहा है, जैसा दिल्ली के लाल किला, पुराने किले और खेल गांव का कायाकल्प किया गया था. इस रेनोवेशन में लगभग 30 करोड़ की लागत आएगी.
उत्तर प्रदेश सरकार वाराणसी में धार्मिक यात्राओं के जरिए पर्यटन को एक नया आयाम देने की कोशिश कर रही है. इसी क्रम में बनारस की पंचकोसी यात्रा मार्ग पर पड़ने वाली तमाम धर्मशालाओं को रेनोवेट किया जा रहा है. इन धर्मशालाओं के कायाकल्प में पुरातात्विक नियमों का ध्यान रखा जा रहा है. इन धर्मशालाओं का निर्माण सैकड़ों साल पहले सुर्खी चूने की मदद से किया गया था. उस वक्त सीमेंट बालू का प्रयोग नहीं होता था. रेनोवेशन में इसका ख्याल रखा जा रहा है.
कीर्तिमान श्रीवास्तव, पर्यटन अधिकारी
धर्मशालाओं को रेनोवेट करने वाले मनोज कुमार वर्मा का कहना है कि उन्होंने देश की कई पुरातात्विक इमारतों को एएसआई के नियमों के हिसाब से संवारा है. दिल्ली के लाल किले का काम थोड़ा मुश्किल था. मनोज का कहना है कि बनारस में इन धर्मशालाओं को रेनोवेट करना थोड़ा मुश्किल है. इन इमारतों में लखौरीया यानी छोटी-छोटी ईंटें लगाई गईं हैं. इन लौखरीया ईंटों को सुरक्षित रखने की कोशिश हो रही है. जो ईंटें टूट गईं हैं, वहां उसी साइज की ईंट लगाई जा रही है. ईंटों को जोड़ने के लिए सुर्खी चूने के साथ गुड़, बेल और दाल का प्रयोग किया जा रहा है. मनोज वर्मा ने बताया कि सुर्खी चूना में रेत मिलाकर उसे पहले से भिगोकर रखे गए गुड़ का शीरा, अलग-अलग तरह की दाल, बेल के रेशे और रस्सियों में मिलाया जाता है. करीब एक महीने तक रखे गए रेशे जब सड़ जाते हैं तो उस सूर्खी चूने का उपयोग बॉन्डिंग प्लास्टर में किया जाता है.
सीमेंट के प्लास्टर की तरह नहीं होती पानी डालने की जरूरत
मनोज के मुताबिक सुर्खी चूना, बेल गुड़ और दाल से बने प्लास्टर की पकड़ बहुत होती है. ऐसे प्लास्टर पर सुबह-शाम पानी डालने की जरूरत नहीं होती है. यह प्लास्टर इतना मजबूत होता है कि सैकड़ों साल तक इस पर कोई निगेटिव असर दिखाई नहीं देता. सीमेंट और बालू की उम्र लगभग 100 साल मानी जाती है मगर सूर्खी चूना और खाने-पीने की सामग्री को मिलाकर तैयार होने वाले इस मेटेरियल की उम्र सैकड़ों साल होती है. ऐसे प्लास्टर में दरार आने की संभावना नहीं होती है.
रेनोवेशन में लगे इंजीनियर ने बताया कि यह वह तकनीक है, जिसका प्रयोग राजा महाराजाओं के समय में इंजीनियर्स किया करते थे. महलों और किलों की दीवारों को ठंडा रखने के लिए इस तकनीक का प्रयोग होता था. सूर्खी चूने से बनाई जाने वाली दीवारें और उस पर होने वाले प्लास्टर की खासियत यह है कि ये ठंड के मौसम में गर्म और गर्मी में ठंडा रहता है.
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