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वाराणसी में लॉकडाउन से बुरा हाल, बुझ रहा कुम्हारों के घरों का चूल्हा

केंद्र सरकार ने तीन मई तक लॉकडाउन घोषित किया है. इन सबके बीच इसका सीधा असर रोज कमाने और खाने वाले लोगों पर पड़ रहा है. ऐसे में ईटीवी भारत ने वाराणसी के कुम्हारों के हालात जानने की कोशिश की.

कुम्हारों पर लॉकडाउन का असर.
कुम्हारों पर लॉकडाउन का असर.
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Published : Apr 27, 2020, 1:43 PM IST

वाराणसी: जिले में कुम्हारों की तादात काफी संख्या में है. ये कुम्हार कुल्हड़, दीया, झंजर, मटका, मिट्टी के बर्तन बनाकर अपना गुजारा करते हैं. लॉकडाउन की वजह से इनके द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तन मार्केट में नहीं जा पा रहे हैं. जिससे इनकी रोजी-रोटी पर संकट खड़ा होने लगा है.

देखें रिपोर्ट.

अप्रैल और मार्च के महीने में कुम्हार ज्यादा संख्या में मिट्टी से बर्तनों को बनाते हैं, लेकिन इस लॉकडाउन में जो दिया दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, वह इनके घरों और आंगन में अंधकार फैला रहे हैं. हमेशा चलने वाले इनके चाक के पहिए थम गए हैं. ये कुम्हार आस लगाए बैठे हैं कि कब लॉकडाउन खत्म हो ताकि दिए बिक सकें.

बनारस में मिट्टी के कुल्हड़ की सबसे ज्यादा खपत मानी जाती है. सुबह होते ही यहां लोग मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पीते हैं. गर्मी का समय आते ही मिट्टी के कुल्हड़ में बनारस की फेमस लस्सी पिया जाता है. इसके साथी गर्मी बढ़ते ही लोग विशेष मौके पर सतुआ संक्रांति पर ब्राह्मणों को मिट्टी झांझर दान देते हैं. शिवालयों में भगवान शिव के ऊपर मिट्टी के झांझर में जल भरकर रखा जाता है.

ये भी पढ़ें- मुरादाबाद: टेलीमेडिसिन क्लिनिक की शुरुआत, इन नंबरों पर करें डॉक्टर से संपर्क

कुम्हार दिनेश प्रजापति बताते हैं कि लॉकडाउन की वजह से बहुत समस्या हो रही है, क्योंकि इस समय कुल्लड़ का सीजन है. लोग लस्सी पीने के लिए खरीदते हैं, इसलिए हमारी खपत ज्यादा होती है. लॉकडाउन में हमारे सारे बर्तन बनकर तैयार हैं, लेकिन हम इसे मार्केट में नहीं ले जा सकते. आगे क्या होगा यह सोचकर ही डर लग रहा है.

कुम्हार जगदीश प्रजापति बताते हैं कि बर्तन बनकर तैयार हैं, लेकिन मार्केट में नहीं जा सकते. उन्होंने बताया कि वह लगभग 50 वर्षों से यह कार्य कर रहे हैं. एक दिन में 1000 रुपये कमा लेते थे, लेकिन जब से यह लॉकडाउन हुआ है, इसके बाद 400 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है. अगर यही हालात रहे तो परिवार चलाना भी मुश्किल हो जाएगा.

वाराणसी: जिले में कुम्हारों की तादात काफी संख्या में है. ये कुम्हार कुल्हड़, दीया, झंजर, मटका, मिट्टी के बर्तन बनाकर अपना गुजारा करते हैं. लॉकडाउन की वजह से इनके द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तन मार्केट में नहीं जा पा रहे हैं. जिससे इनकी रोजी-रोटी पर संकट खड़ा होने लगा है.

देखें रिपोर्ट.

अप्रैल और मार्च के महीने में कुम्हार ज्यादा संख्या में मिट्टी से बर्तनों को बनाते हैं, लेकिन इस लॉकडाउन में जो दिया दूसरों के जीवन में प्रकाश फैलाते हैं, वह इनके घरों और आंगन में अंधकार फैला रहे हैं. हमेशा चलने वाले इनके चाक के पहिए थम गए हैं. ये कुम्हार आस लगाए बैठे हैं कि कब लॉकडाउन खत्म हो ताकि दिए बिक सकें.

बनारस में मिट्टी के कुल्हड़ की सबसे ज्यादा खपत मानी जाती है. सुबह होते ही यहां लोग मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पीते हैं. गर्मी का समय आते ही मिट्टी के कुल्हड़ में बनारस की फेमस लस्सी पिया जाता है. इसके साथी गर्मी बढ़ते ही लोग विशेष मौके पर सतुआ संक्रांति पर ब्राह्मणों को मिट्टी झांझर दान देते हैं. शिवालयों में भगवान शिव के ऊपर मिट्टी के झांझर में जल भरकर रखा जाता है.

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कुम्हार दिनेश प्रजापति बताते हैं कि लॉकडाउन की वजह से बहुत समस्या हो रही है, क्योंकि इस समय कुल्लड़ का सीजन है. लोग लस्सी पीने के लिए खरीदते हैं, इसलिए हमारी खपत ज्यादा होती है. लॉकडाउन में हमारे सारे बर्तन बनकर तैयार हैं, लेकिन हम इसे मार्केट में नहीं ले जा सकते. आगे क्या होगा यह सोचकर ही डर लग रहा है.

कुम्हार जगदीश प्रजापति बताते हैं कि बर्तन बनकर तैयार हैं, लेकिन मार्केट में नहीं जा सकते. उन्होंने बताया कि वह लगभग 50 वर्षों से यह कार्य कर रहे हैं. एक दिन में 1000 रुपये कमा लेते थे, लेकिन जब से यह लॉकडाउन हुआ है, इसके बाद 400 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है. अगर यही हालात रहे तो परिवार चलाना भी मुश्किल हो जाएगा.

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