वाराणसी: भारत एक ऐसा देश है, जहां पग-पग संस्कृति और परंपराएं बदलती जाती हैं. उत्तर प्रदेश संस्कृति और परंपराओं का गढ़ माना जाता है और जब बात रंगों के पर्व होली की हो तो उत्तर प्रदेश इस परंपरा में भी अपने ही रंग में रंगा नजर आता है. अलग-अलग हिस्सों में बैठे उत्तर प्रदेश की होली पूरे विश्व में विख्यात है. चाहे पूर्वी उत्तर प्रदेश हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश. बुंदेलखंड हो या अवध या फिर बृज मंडल. हर इलाके और हर जिले में होली का अपना ही महत्व माना जाता है. आइए आज आपको बताते हैं उत्तर प्रदेश की उस अलौकिक परंपरा के ध्वजवाहक के रूप में सभी को एक साथ बांधकर रखने वाले पर्व की खासियत. जानते हैं यूपी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ जितेंद्र नाथ मिश्र और वरिष्ठ पत्रकार उत्पल पाठक से उत्तर प्रदेश की इस सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखने की इस अद्भुत परंपरा के बारे में.
होली का पर्व आज भी परंपराओं को संजोकर उसी तरह रखे हुए है, जैसे एक धागे में अलग-अलग मोतियों को पिरोया जाता है. इन मोतियों की माला को जब तैयार किया जाता है तो यह किसी की शोभा बढ़ाती हैं. उसी तरह होली के मौके पर अलग-अलग हिस्से में मनाई जाने वाली होली उत्तर प्रदेश को इसी माला की तरह एक सूत्र में पिरोकर रखने का काम करती हैं और कुछ ऐसी ही परंपरा का ध्वजवाहक पूर्वी उत्तर प्रदेश माना जाता है. क्योंकि, होली हो और लोकगीत न हो तो यह पर्व अधूरा हो जाता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकगीत की परंपरा होली को और भी खास बना देती है.
साहित्यकार डॉ जितेंद्र नाथ मिश्र का कहना है कि होली का त्योहार यह बताने के लिए होता है कि कोई बड़ा और छोटा नहीं है, सब एक रंग में रंगने के बाद एक जैसे नजर आते हैं. परंपराएं अलग हो सकती हैं, संस्कृति अलग हो सकती है. लेकिन, होली के रंग में रंगने के बाद हर कोई एक दूसरे को ठेंगे पर समझता है. इसी बात के लिए होली जानी जाती है. उनका कहना है कि होली को उत्तर प्रदेश में दो रूप में देखा जा सकता है. एक राम की होली और दूसरी कृष्ण की होली.
अवध क्षेत्र और बुंदेलखंड के इलाके में मर्यादित तौर पर बनाई जाने वाली होली भगवान राम के रूप में जानी जाती है. अवध क्षेत्र में लखनऊ, सुल्तानपुर, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी तमाम क्षेत्र माने जाते हैं, जो भगवान राम यानी मर्यादा पुरुषोत्तम की उन तमाम लीलाओं को मर्यादित तरीके से पालन करते हैं. जैसे प्रभु राम एक राजा के रूप में करते थे. क्योंकि, एक राजा के तौर पर जब वह होली खेलने अपने भाइयों और माता सीता के साथ अपने महल से बाहर निकलते थे तो उन्हें राजा के रूप में मर्यादा के साथ प्रजा होली के दिन भी देखती थी.
उसी परंपरा को रंगों, फूलों और अन्य चीजों के साथ अवध के तमाम क्षेत्रों में देखा जाता है. जबकि, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खास तौर पर बृज मंडल में होली का पर्व बड़े ही उल्लास और नटखटपन के साथ मनाया जाता है. यहां की होली कृष्ण की लीलाओं से परिपूर्ण नजर आती है. गोपियों के साथ अठखेलियां और प्रेम के रंग में रंगी होली राधा कृष्ण के उस अटूट प्रेम और स्नेह का प्रमाण देती है, जो आज के कलयुग में भी जीवित है. फूलों की होली, लट्ठमार होली और रंग बिरंगे रंगों की होली बृज मंडल के अलग-अलग क्षेत्र को बताने के लिए पर्याप्त है.
वाराणसी की होली
काशी की होली अपने आप में परंपराओं के रंग में रंगी आज भी नजर आती है. होली के पहले रंगभरी एकादशी के दिन माता पार्वती के गवने की परंपरा काशी निभाती है. माता की विदाई करवाने पहुंचे भोलेनाथ अपने भक्तों के कंधे पर सवार होकर जब निकलते हैं तो रजत पालकी में बैठे भोलेनाथ समेत उनके परिवार पर गुलाल अर्पित करके होली की शुरुआत की जाती है. अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर जलती चिताओं के बीच होली खेलकर भगवान भोलेनाथ की उपस्थिति का एहसास होता है. काशी की होली आज भी उसी पुरातन रूप में दिखाई देती है. चट्टी चौराहे पर छोटी-छोटी चौकियां लगाकर गीत संगीत की महफिल के साथ गुलाब बाड़ी की होली सिर्फ काशी में ही विख्यात है.
बृज की होली
मथुरा-वृंदावन और बरसाने की होली बेहद विखयात है. रंग-गुलाल से सजी होली का स्वागत विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपने-अपने तरीके से करते हैं. वहीं, कुछ स्थानों पर होली मनाने की परंपरा तो देश-विदेश में भी लोगों को आकर्षित करती है. कृष्ण और राधा के प्रेम के प्रतीक मथुरा-वृंदावन में होली की धूम 16 दिनों तक छाई रहती है. इसमें इनके दैवीय प्रेम को याद किया जाता है. कहते हैं कि बचपन में कृष्ण राधा रानी के गोरे वर्ण और अपने कृष्ण वर्ण का कारण माता यशोदा से पूछा करते थे. एक बार उन्हें बहलाने के लिए माता यशोदा ने राधा के गालों पर रंग लगा दिया. तब से इस क्षेत्र में रंग और गुलाल लगाकर लोग एक-दूसरे से स्नेह बांटते हैं.
मथुरा-वृंदावन के साथ ही इस पर्व की अनुपम छटा राधा मैया के गांव बरसाने और नंदगांव में भी नजर आती है. वहीं, बरसाने की लट्ठमार होली तो विश्व-प्रसिद्ध है. यहां पर महिलाएं पुरुषों को लट्ठ से मारती हैं और पुरुष उनसे बचते हुए उन पर रंग डालते हैं.
नवाबों के शहर लखनऊ की होली
लखनऊ के चौक में होली की सवारी निकलती है. पुराने लखनऊ के चौक क्षेत्र में करीब दो किलोमीटर तक हाथी, घोड़ा, ऊंट आदि की सवारी निकलती है. दरअसल, यह परम्परा उस जमाने से है, जब लखनऊ के नवाब होली के दिन जनता के साथ होली खेलने के लिए हाथी पर बैठकर निकलते थे. आज भी हाथी इस टोली की शान होता है और साथ में इस टोली में मौजूद ढोल नगाड़े पूरे इलाके को मस्ती में सराबोर कर देते हैं. मस्तानों की यह टोली होली के दिन सुबह चौपटियां से निकलती है और चौक चौराहे पर स्थित पार्क तक आती है.
प्रयागराज की होली
प्रयागराज में तीन दिन तक होली मनाई जाती है. पहले दिन रंग-गुलाल उड़ाकर बाकी शहरों की तरह होली मनाई जाती है तो दूसरे दिन रंग गुलाल के साथ ही कपड़ा फाड़ होली मनाने की परंपरा है. इसमें सड़क पर होलियारों की भीड़ निकलती है और वह किसी का भी कपड़ा फाड़ देते हैं. हालांकि, इस होली की खूबसूरती यह है कि कपड़ा फाड़ने पर कोई नाराज नहीं होता. प्रयागराज की होली की खासियत यह है कि यहां बारात निकाली जाती है और सामूहिक रूप से ठंडई पीने की भी परंपरा है, यानी सड़कों पर लोगों के लिए ठंडई की व्यवस्था की जाती है. पहले दिन वाली मस्ती दूसरे दिन भी जारी रहती है. युवाओं की टोली लोकनाथ चौराहा, जानसेनगंज, कटरा, दारागंज, अलोपीबाग, झूंसी, नैनी, फाफामऊ, राजरूपपुर सहित हर मोहल्ले के चौराहे पर जुटती है. एक-दूसरे का कपड़ा फाड़कर हवा में लहराते हैं जो कि परंपरा का हिस्सा माना जाता है.
श्रावस्ती की खास लेप वाली होली
भारत-नेपाल सीमा से सटे श्रावस्ती के 12 से अधिक गांवों में थारू जनजातियां बसी हैं. यहां इनकी आबादी तकरीबन 20 हजार से अधिक होगी. वनों के झुरमुटों तथा नेपाल की पहाड़ी वादियों के कोख में बसे थारू जनजाति की वेशभूषा व रहन-सहन की अलग पहचान होती है. थारू जनजाति में होली वसंत पंचमी से ही शुरू होती है. होलिका दहन की पूर्व संध्या पर माहौल अत्यंत आकर्षक होता है. गाते-बजाते थारू युवा गांव के तीन चक्कर लगाकर गांव के मुखिया के दरवाजे पर पहुंचकर पहले सरसों भूनकर बनाए गए विशेष लेप (बुकवा) को मुखिया को लगाते हैं. मुखिया उन्हें खाने-पीने के सामान के साथ रुपये भी देता है. इसके बाद फॉग का राग और रंग शुरू हो जाता है. रास्ते में जो भी मिलता है, उसे दक्षिणा देनी पड़ती है. गुरु के दरबार में होली का समापन होता है. श्रावस्ती के भचकाही ग्राम में रामधन मोतीपुर कला में राधेश्याम व जंगली प्रसाद थारू समुदाय के गुरु हैं.
गोरखपुर की होली
होली के अवसर पर करीब आठ दशक से गोरखपुर शहर में निकलने वाली परंपरागत नरसिंह शोभायात्रा बेहद खास होती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख को आठ दशक पूर्व इस शोभायात्रा को शुरू करने का श्रेय जाता है. लेकिन, इसे भव्यता नाथपीठ से जुड़कर मिली. पहले ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ के निर्देश पर महंत अवेद्यनाथ ने शोभायात्रा को भव्य स्वरूप दिया और जब यात्रा का नेतृत्व योगी आदित्यनाथ ने संभाला तो इसकी भव्यता की ख्याति देश भर में हो गई. होली में फूहड़पन दूर करने के लिए नानाजी ने पहले से चली आ रही नरसिंह यात्रा की कमान 1944 में अपने हाथ में ली. उनके प्रयास से होली का फूहड़पन तो दूर हो गया. लेकिन, भव्यता नहीं मिल पाई. इसके लिए उन्होंने तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत दिग्विजयनाथ से संपर्क साधा. दिग्विजयनाथ ने यह जिम्मेदारी अपने उत्तराधिकारी अवेद्यनाथ को सौंपी. परिणामस्वरूप 1950 से अवेद्यनाथ शाेभायात्रा का नेतृत्व करने लगे. धीरे-धीरे संघ की शोभायात्रा नाथपीठ से अनिवार्य रूप से जुड़ गई. 1998 से बतौर गोरक्षपीठ के उत्ताधिकारी योगी आदित्यनाथ शोभायात्रा का नेतृत्व करने लगे तो उनके उत्सवी स्वभाव के चलते शोभायात्रा ने भव्यतम स्वरूप ले लिया और इसमें शहर के सभी प्रमुख लोग भागीदारी करने लगे. जैसे-जैसे देश-दुनिया में योगी की ख्याति बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनसे जुड़ने की वजह से शोभायात्रा भी मशहूर होती गई.
कानपुर की एक सप्ताह तक वाली होली
कानपुर में एक परम्परा है. यहां दो बार होली मनाई जाती है. होली से ज्यादा कानपुर में गंगा मेला प्रसिद्ध है. ये अंग्रेजों के दौर से शुरू हुआ था. 1942 से इसकी शुरुआत मानी जाती है. ऐसी मान्यता है कि अंग्रेजों के शासनकाल में रंजन बाबू पार्क में होली की तैयारी में जुटे 47 युवकों को उस वक्त अंग्रेजों ने रंग खेलते वक्त गिरफ्तार किया था, जिसके विरोध में 7 दिनों तक लोगों ने जमकर सुबह से शाम तक रंग खेला. बाद में जब इन युवकों की रिहाई हुई तो इसके जश्न में लोगों ने इन युवकों को ठेले पर बैठाकर जश्न मनाया और सरसैया घाट पर यह ठेला रुका, जहां पर गंगा मेला लगाया गया. तभी से यह परंपरा निभाई जा रही है और 7 दिनों तक यहां होली का त्योहार मनाया जाता है, जो होली के दिन से सात दिन तक होता है.
बुंदेलखंड की पौराणिक होली
बुंदेलखंड की होली की अपनी ही मान्यताएं हैं. यहां अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होली मनाई जाती है. इसमें अबीर गुलाल के साथ कीचड़ की होली विशेष रूप से मनाई जाती है. बुंदेलखंड में होली जलने के साथ ही धूल कीचड़ की होली खेलने की विशेष परंपरा है. इसके अलावा भाईदूज से रंगों की बौछार यहां शुरू कर दी जाती है. बुंदेलखंड के झांसी जनपद में एरच धाम हिरण्यकश्यप की राजधानी एरिकेच्छ के रूप में जाना जाता था. यहीं होलिका ने भक्त प्रहलाद को गोद में बैठाकर जलाने की कोशिश की थी. जिसके बाद होली की परंपरा की शुरुआत हुई. बुंदेलखंड के इस हिस्से में युवा रात में कीचड़ और धूल की होली खेलते हैं और प्रतिपदा के दिन कीचड़, गोबर, धूल की होली के साथ ही मिट्टी के साथ होली खेलने की परंपरा है. ऐसी मान्यता है कि अन्नदाताओं की फसल पकने के बाद घर में आने वाली खुशी को इस रूप में मनाया जाता है.
हमीरपुर में होली पर पुरुषों की एंट्री पर बैन
हमीरपुर के सुमेरपुर के कुंडौरा गांव में 300 साल पुरानी परंपरा का निर्वहन किया जाता है. यहां पूरे गांव की महिलाएं राम जानकी मंदिर से बारात निकालकर होली का आयोजन करती हैं और इस दौरान गांव में पुरुषों की एंट्री बैन होती है. फिर महिलाएं होली का आनंद लेती हैं. पुरानी परंपरा के अनुरूप हमीरपुर में ही दूल्हा बारात निकालने की परंपरा है और एक व्यक्ति को घोड़े पर बैठाकर बैंडबाजे के साथ पूरे गांव में अद्भुत बारात निकाली जाती है और होली के इस दूल्हे की आरती गांव की महिलाएं उतारने के साथ ही दूल्हे को टीका लगाती हैं और इसके बाद होली की शुरुआत होती है.
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