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Dhanvantari Jayanti 2023 : वाराणसी में है भगवान धन्वंतरि की खास प्रतिमा, 327 सालों से होती आ रही पूजा - धन्वंतरि जयंती प्रतिमा पूजन

वाराणली में काशी नरेश के राज्य वैद्य रह चुके पंडित शिवकुमार शास्त्री का परिवार आज भी पुरानी परंपराओं का निर्वहन करता चला आ रहा है. धनतेरस के दिन भगवान धन्वंतरि (Dhanvantari Jayanti 2023) की पूजा की जाती है.

काशी में साल में एक बार खास अंदाज में भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है.
काशी में साल में एक बार खास अंदाज में भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है.
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Nov 10, 2023, 7:56 PM IST

काशी में साल में एक बार खास अंदाज में भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है.

वाराणसी : काशी में हजारों साल पुरानी परंपराओं को आज भी सहेजकर रखा जाता है. धनतेरस के मौके पर लगभग 327 सालों से धन्वंतरि जयंती मनाने की भी परंपरा चली आ रही है. इस खास दिन पर विधि-विधान से धन्वंतरि की पूजा कर भोग लगाया जाता है. इसके बाद प्रसाद बांटा जाता है. इस परंपरा का निर्वहन वाराणसी के सुढ़िया इलाके में राज वैद्य स्वर्गीय शिवकुमार शास्त्री के परिवार की ओर से किया जाता है.

राज्य वैद्य पंडित शिवकुमार शास्त्री का था दबदबा : पंडित शिवकुमार शास्त्री, काशी नरेश परिवार के राज्य वैद्य हुआ करते थे. उस वक्त इनका इतना दबदबा था कि महंगे से महंगे इलाज भी उनकी जड़ी बूटियां से हो जाता था. गंभीर से गंभीर बीमारी भी सही हो जाती थी. काशी नरेश परिवार से लेकर मुलायम सिंह यादव समेत कई सियासी परिवार भी इसी परिवार के यहां इलाज के लिए आते थे. आज भी इस परिवार में आयुर्वेद की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. धनतेरस और धन्वंतरि जयंती के मौके पर सदस्यों ने धन्वंतरि की पुरानी प्रतिमा का पूजन किया. आम लोगों के भी दर्शन कराए गए.

परिवार के सभी लोग पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे : राज्य वैद्य शिवकुमार शास्त्री के पुत्र पंडित समीर शास्त्री बताते हैं कि उनके दादा पंडित बाबू नंदन ने लगभग 327 साल पहले धन्वंतरि जयंती की शुरुआत की थी. हमारी छह पीढ़िया आयुर्वेद के कार्यों से जुड़ी हुई है. वर्तमान में मैं, मेरे बेटे, भाई के बेटे सभी लोग इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं. आयुर्वेद और चरक संहिता के साथ ही जो औषधि हैं, उनको तैयार करने से लेकर लोगों को उनसे कैसे फायदा मिले, यह ध्यान दिया जाता है. यही वजह है कि वैद्य परिवार में इस परंपरा की शुरुआत बाबू नंदन यानी उनके दादा ने कि यहां से इसका प्रचार प्रसार शुरू हुआ. अब भी इस परंपरा को निभाया जा रहा है.

बेहद खास है भगवान धन्वंतरि की प्रतिमा : पंडित समीर शास्त्री ने बताया कि आज दोपहर लगभग 3:00 बजे धन्वंतरि की अष्टधातु की प्रतिमा की पूजा की गई. लगभग 1 घंटे के पूजन पाठ के बाद 5:00 बजे इसे आम भक्तों के लिए खोल दिया गया. यह अद्भुत प्रतिमा कहां से आई, कौन लेकर आया, यह हम लोगों में से किसी को नहीं पता. भगवान धन्वंतरि की इकलौती और अनूठी प्रतिमा सिर्फ हमारे परिवार में है. इसके दर्शन सिर्फ धन्वंतरि जयंती यानी धनतेरस के दिन साल में एक बार होते हैं. ऐसी मान्यता है कि एक हाथ में भगवान धन्वंतरि के अमृत कलश जिसमें आयुर्वेद की सभी औषधीय, दूसरे हाथ में जोंक (क्योंकि आयुर्वेद में जोंक का बड़ा महत्व है) और तीसरे हाथ में शंख और चौथे हाथ में चक्र विराजमान है.

साल में केवल एक बार निभाई जाती है परंपरा : पंडित वैद्य नंद कुमार शास्त्री और पंडित वैद्य उत्पल कुमार शास्त्री ने बताया कि भगवान धन्वंतरि का यह रूप अद्भुत है. पूजन के साथ ही उनको तमाम औषधियां भी अर्पित की जाती हैं. उनके विग्रह के आगे औषधि तैयार करने का पात्र, तमाम औषधि को चांदी के पत्र में रखकर पूजा किया जाता है. एक दिन की यह परंपरा साल में सिर्फ धन्वंतरि जयंती के दिन निभाई जाती है. वर्तमान समय में आयुर्वेद की शिक्षा ले रहे यहां के उत्पल और उनके अन्य भाई अब अपने पिता, चाचा, और ताऊ का साथ देने के लिए तैयार हैं. उनका कहना है कि भगवान धन्वंतरि का आशीर्वाद हम सभी पर है. हम सभी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे.

यह भी पढ़ें : काशी में इस कूप के जल से मिलती है हर रोग से मुक्ति

काशी में साल में एक बार खास अंदाज में भगवान धन्वंतरि की पूजा की जाती है.

वाराणसी : काशी में हजारों साल पुरानी परंपराओं को आज भी सहेजकर रखा जाता है. धनतेरस के मौके पर लगभग 327 सालों से धन्वंतरि जयंती मनाने की भी परंपरा चली आ रही है. इस खास दिन पर विधि-विधान से धन्वंतरि की पूजा कर भोग लगाया जाता है. इसके बाद प्रसाद बांटा जाता है. इस परंपरा का निर्वहन वाराणसी के सुढ़िया इलाके में राज वैद्य स्वर्गीय शिवकुमार शास्त्री के परिवार की ओर से किया जाता है.

राज्य वैद्य पंडित शिवकुमार शास्त्री का था दबदबा : पंडित शिवकुमार शास्त्री, काशी नरेश परिवार के राज्य वैद्य हुआ करते थे. उस वक्त इनका इतना दबदबा था कि महंगे से महंगे इलाज भी उनकी जड़ी बूटियां से हो जाता था. गंभीर से गंभीर बीमारी भी सही हो जाती थी. काशी नरेश परिवार से लेकर मुलायम सिंह यादव समेत कई सियासी परिवार भी इसी परिवार के यहां इलाज के लिए आते थे. आज भी इस परिवार में आयुर्वेद की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. धनतेरस और धन्वंतरि जयंती के मौके पर सदस्यों ने धन्वंतरि की पुरानी प्रतिमा का पूजन किया. आम लोगों के भी दर्शन कराए गए.

परिवार के सभी लोग पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे : राज्य वैद्य शिवकुमार शास्त्री के पुत्र पंडित समीर शास्त्री बताते हैं कि उनके दादा पंडित बाबू नंदन ने लगभग 327 साल पहले धन्वंतरि जयंती की शुरुआत की थी. हमारी छह पीढ़िया आयुर्वेद के कार्यों से जुड़ी हुई है. वर्तमान में मैं, मेरे बेटे, भाई के बेटे सभी लोग इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे हैं. आयुर्वेद और चरक संहिता के साथ ही जो औषधि हैं, उनको तैयार करने से लेकर लोगों को उनसे कैसे फायदा मिले, यह ध्यान दिया जाता है. यही वजह है कि वैद्य परिवार में इस परंपरा की शुरुआत बाबू नंदन यानी उनके दादा ने कि यहां से इसका प्रचार प्रसार शुरू हुआ. अब भी इस परंपरा को निभाया जा रहा है.

बेहद खास है भगवान धन्वंतरि की प्रतिमा : पंडित समीर शास्त्री ने बताया कि आज दोपहर लगभग 3:00 बजे धन्वंतरि की अष्टधातु की प्रतिमा की पूजा की गई. लगभग 1 घंटे के पूजन पाठ के बाद 5:00 बजे इसे आम भक्तों के लिए खोल दिया गया. यह अद्भुत प्रतिमा कहां से आई, कौन लेकर आया, यह हम लोगों में से किसी को नहीं पता. भगवान धन्वंतरि की इकलौती और अनूठी प्रतिमा सिर्फ हमारे परिवार में है. इसके दर्शन सिर्फ धन्वंतरि जयंती यानी धनतेरस के दिन साल में एक बार होते हैं. ऐसी मान्यता है कि एक हाथ में भगवान धन्वंतरि के अमृत कलश जिसमें आयुर्वेद की सभी औषधीय, दूसरे हाथ में जोंक (क्योंकि आयुर्वेद में जोंक का बड़ा महत्व है) और तीसरे हाथ में शंख और चौथे हाथ में चक्र विराजमान है.

साल में केवल एक बार निभाई जाती है परंपरा : पंडित वैद्य नंद कुमार शास्त्री और पंडित वैद्य उत्पल कुमार शास्त्री ने बताया कि भगवान धन्वंतरि का यह रूप अद्भुत है. पूजन के साथ ही उनको तमाम औषधियां भी अर्पित की जाती हैं. उनके विग्रह के आगे औषधि तैयार करने का पात्र, तमाम औषधि को चांदी के पत्र में रखकर पूजा किया जाता है. एक दिन की यह परंपरा साल में सिर्फ धन्वंतरि जयंती के दिन निभाई जाती है. वर्तमान समय में आयुर्वेद की शिक्षा ले रहे यहां के उत्पल और उनके अन्य भाई अब अपने पिता, चाचा, और ताऊ का साथ देने के लिए तैयार हैं. उनका कहना है कि भगवान धन्वंतरि का आशीर्वाद हम सभी पर है. हम सभी इस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे.

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