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विवादों से जूझ रहे काशीराज परिवार का 300 साल पुराना गौरवपूर्ण इतिहास, ऐसे मिला था काशी का शासन

काशीराज परिवार का विवाद एक बार फिर से सामने आया है. इस राजशाही परिवार का इतिहास करीब 300 वर्ष से अधिक का है. चलिए जानते हैं इस बारे में.

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Published : Jun 28, 2023, 3:32 PM IST

वाराणसी: काशीराज परिवार में एक बार फिर से विवाद सामने आया है. हालांकि यह विवाद कोई नया नहीं है, बल्कि काफी पुराना है. काशी नरेश डॉक्टर विभूति नारायण सिंह के निधन के बाद शुरू हुआ भाई बहनों का यह विवाद अब उस स्तर पर पहुंच गया है जहां भाई-बहन सीधे तो नहीं बल्कि अब कर्मचारियों के बल पर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं. एक के बाद एक मुकदमें निश्चित तौर पर काशीराज परिवार और उसके रसूख पर सवाल उठाने के लिए काफी हैं, लेकिन राजघरानों का यह विवाद कोई नया नहीं है काशी से लेकर अन्य राजघरानों में भी संपत्ति के यह विवाद परिवार में सामने आते रहे हैं, लेकिन यह जानना जरूरी है कि आखिर काशीराज परिवार का इतिहास क्या है और कौन है काशी के राजपरिवार के लोग. कैसे काशीराज परिवार के स्थापना एक राजशाही परिवार के रूप में काशी में हुई.

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शासनकाल की अवधि.
दरअसल, बनारस को हमेशा बाबा विश्वनाथ की नगरी और भोलेनाथ के आनंद भवन के रूप में जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि काशी में एक नहीं बल्कि 3 राजा हैं. एक श्री काशी विश्वनाथ दूसरे काशी नरेश और तीसरे डोम राजा. काशी राज घराने को बनारस स्टेट के रूप में जाना जाता है. इसकी स्थापना मंसाराम के द्वारा की गई थी. वह भूमिहार ब्राह्मण थे जिनका गोत्र गौतम था. कहा जाता है कि करीब 1000 साल पहले पूर्वजों को किसी साधु ने भविष्यवाणी की थी कि इनके वंशज भविष्य में काशी क्षेत्र के राजा होंगे और इनका पैतृक परिवार निवास बनारस के समीप गंगापुर नाम के स्थान पर बसाया जाएगा.
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शासनकाल की अवधि.
इसके बाद 17वीं शताब्दी में मंसाराम जी बनारस के 1 मंडल के नाजिम रुस्तम अली खान के मातहत के रूप में कार्य करने लगे थे, लेकिन बाद में अपने अच्छे कार्यों की वजह से उन्हें कसवार के जमींदार के रूप में आगे बढ़ाया गया. उस जमीन को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने उनके पूर्वजों से छीन लिया था बाद में अवध के नवाब साजिद खान ने अपनी मौत के एक साल पहले उन्हें 1736 में रुस्तम अली का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था. मंसाराम के बाद उनके बेटे बलवंत सिंह साहेब ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया और अपनी राजधानी गंगापुर में बनाकर वहां किला भी बनवा लिया, लेकिन बाद में राजधानी को बनारस के गंगा उस पार रामनगर में स्थानांतरित कर दिया था.
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काशी नरेश का राजमहल.
इस बीच बलदेव सिंह ने 1950 से 1960 के बीच अवध के नवाब की तरफ से उनके किले पर हमले के दौरान अपने कौशल का परिचय देकर अवध के नवाब को हरा दिया और नवाब ने हार कर इनकी सत्ता को स्वीकार ली. इसके बाद बलदेव सिंह को काशी राज्य का पहला स्वतंत्र राजा घोषित किया गया और इसके बाद उनके बेटे चेत्र सिंह को काशी नरेश के पद पर आसीन किया गया.
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किले के भीतर का नजारा.
महाराजा चेत सिंह ने महाराजा बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद काशीराज की गद्दी हासिल की थी. अपने 10 साल के शासनकाल में महाराजा चेत सिंह ने जनरल वारेन हेस्टिंग्स को काशी पर आक्रमण करने के परिणाम स्वरूप काशी से भगाने का काम किया था.



राजा चेतसिंह का किला वर्तमान में गंगा घाट किनारे शिवाला इलाके में स्थित है. वाराणसी का चेतगंज इलाका महाराजा चेत सिंह के नाम से ही जाना जाता है. चेत सिंह के बाद 1781 से 1794 तक महीप नारायण सिंह काशी के राजा के रूप में स्थापित हुए.

हालांकि 1795 को ईस्ट इंडिया कंपनी ने शेर सिंह के भांजे उदित नारायण सिंह को काशी के महाराज के तौर पर स्थापित किया. 1795 से 1835 तक महाराजा उदित नारायण सिंह का काशी नरेश के रूप में कार्यकाल रहा. इसके बाद ईश्वरी नारायण सिंह को यह जिम्मेदारी 1835 में मिली. 1857 के गदर में ईश्वरी नारायण सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया जिसकी वजह से इन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने महाराजा बहादुर की उपाधि दी. उस वक्त आपको पता है कि महाराजा ईश्वरी को 13 अक्टूबर की सलामी अंग्रेजी हुकूमत ने दी थी.

खुश होकर अंग्रेजों ने ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को वायसराय की लेजिसलेटिव काउंसिल का सदस्य भी मनोनीत किया था. इनके बाद महाराजा प्रभु नारायण सिंह ने काशी नरेश के रूप में पदभार ग्रहण किया. इसके बाद महाराजा आदित्य नारायण सिंह ने 1931 से 1939 तक पदभार ग्रहण किया.

सन 1700 से शुरू हुए वाराणसी के काशी राज परिवार की परंपरा 1947 तक चलती रही. 1947 में जब अंग्रेजी हुकूमत से भारत आजाद हुआ तो उसके बाद महाराजा विभूति नारायण सिंह को अंतिम काशी नरेश के रूप में अपना नाम लिखने की छूट दी गई और आजादी के बाद भी काशी समेत देश के हर हिस्से से उन्हें महाराजा काशी नरेश विभूति नारायण सिंह के नाम से ही जाना जाता रहा. स्वतंत्रता के पहले डॉक्टर विभूति नारायण सिंह अंतिम नरेश रहे.

15 अक्टूबर 1948 को राज्य भारतीय संघ में मिल जाने के बाद इनको काशी में महादेव के अवतार के रूप में पूजा जाता रहा. 25 दिसंबर 2000 को उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अनंत नारायण सिंह कुंवर के रूप में जाने जाते हैं, जो वर्तमान गद्दी के उत्तराधिकारी भी हैं और इस परंपरा के वाहक भी हैं.

ये भी पढ़ेंः Varanasi News : काशी में भगवान हनुमान की मूर्तियों के लगातार मिल रहे ऑर्डर, बढ़ाने पड़ गए कारीगर

वाराणसी: काशीराज परिवार में एक बार फिर से विवाद सामने आया है. हालांकि यह विवाद कोई नया नहीं है, बल्कि काफी पुराना है. काशी नरेश डॉक्टर विभूति नारायण सिंह के निधन के बाद शुरू हुआ भाई बहनों का यह विवाद अब उस स्तर पर पहुंच गया है जहां भाई-बहन सीधे तो नहीं बल्कि अब कर्मचारियों के बल पर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं. एक के बाद एक मुकदमें निश्चित तौर पर काशीराज परिवार और उसके रसूख पर सवाल उठाने के लिए काफी हैं, लेकिन राजघरानों का यह विवाद कोई नया नहीं है काशी से लेकर अन्य राजघरानों में भी संपत्ति के यह विवाद परिवार में सामने आते रहे हैं, लेकिन यह जानना जरूरी है कि आखिर काशीराज परिवार का इतिहास क्या है और कौन है काशी के राजपरिवार के लोग. कैसे काशीराज परिवार के स्थापना एक राजशाही परिवार के रूप में काशी में हुई.

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शासनकाल की अवधि.
दरअसल, बनारस को हमेशा बाबा विश्वनाथ की नगरी और भोलेनाथ के आनंद भवन के रूप में जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि काशी में एक नहीं बल्कि 3 राजा हैं. एक श्री काशी विश्वनाथ दूसरे काशी नरेश और तीसरे डोम राजा. काशी राज घराने को बनारस स्टेट के रूप में जाना जाता है. इसकी स्थापना मंसाराम के द्वारा की गई थी. वह भूमिहार ब्राह्मण थे जिनका गोत्र गौतम था. कहा जाता है कि करीब 1000 साल पहले पूर्वजों को किसी साधु ने भविष्यवाणी की थी कि इनके वंशज भविष्य में काशी क्षेत्र के राजा होंगे और इनका पैतृक परिवार निवास बनारस के समीप गंगापुर नाम के स्थान पर बसाया जाएगा.
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शासनकाल की अवधि.
इसके बाद 17वीं शताब्दी में मंसाराम जी बनारस के 1 मंडल के नाजिम रुस्तम अली खान के मातहत के रूप में कार्य करने लगे थे, लेकिन बाद में अपने अच्छे कार्यों की वजह से उन्हें कसवार के जमींदार के रूप में आगे बढ़ाया गया. उस जमीन को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने उनके पूर्वजों से छीन लिया था बाद में अवध के नवाब साजिद खान ने अपनी मौत के एक साल पहले उन्हें 1736 में रुस्तम अली का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था. मंसाराम के बाद उनके बेटे बलवंत सिंह साहेब ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया और अपनी राजधानी गंगापुर में बनाकर वहां किला भी बनवा लिया, लेकिन बाद में राजधानी को बनारस के गंगा उस पार रामनगर में स्थानांतरित कर दिया था.
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काशी नरेश का राजमहल.
इस बीच बलदेव सिंह ने 1950 से 1960 के बीच अवध के नवाब की तरफ से उनके किले पर हमले के दौरान अपने कौशल का परिचय देकर अवध के नवाब को हरा दिया और नवाब ने हार कर इनकी सत्ता को स्वीकार ली. इसके बाद बलदेव सिंह को काशी राज्य का पहला स्वतंत्र राजा घोषित किया गया और इसके बाद उनके बेटे चेत्र सिंह को काशी नरेश के पद पर आसीन किया गया.
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किले के भीतर का नजारा.
महाराजा चेत सिंह ने महाराजा बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद काशीराज की गद्दी हासिल की थी. अपने 10 साल के शासनकाल में महाराजा चेत सिंह ने जनरल वारेन हेस्टिंग्स को काशी पर आक्रमण करने के परिणाम स्वरूप काशी से भगाने का काम किया था.



राजा चेतसिंह का किला वर्तमान में गंगा घाट किनारे शिवाला इलाके में स्थित है. वाराणसी का चेतगंज इलाका महाराजा चेत सिंह के नाम से ही जाना जाता है. चेत सिंह के बाद 1781 से 1794 तक महीप नारायण सिंह काशी के राजा के रूप में स्थापित हुए.

हालांकि 1795 को ईस्ट इंडिया कंपनी ने शेर सिंह के भांजे उदित नारायण सिंह को काशी के महाराज के तौर पर स्थापित किया. 1795 से 1835 तक महाराजा उदित नारायण सिंह का काशी नरेश के रूप में कार्यकाल रहा. इसके बाद ईश्वरी नारायण सिंह को यह जिम्मेदारी 1835 में मिली. 1857 के गदर में ईश्वरी नारायण सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया जिसकी वजह से इन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने महाराजा बहादुर की उपाधि दी. उस वक्त आपको पता है कि महाराजा ईश्वरी को 13 अक्टूबर की सलामी अंग्रेजी हुकूमत ने दी थी.

खुश होकर अंग्रेजों ने ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह को वायसराय की लेजिसलेटिव काउंसिल का सदस्य भी मनोनीत किया था. इनके बाद महाराजा प्रभु नारायण सिंह ने काशी नरेश के रूप में पदभार ग्रहण किया. इसके बाद महाराजा आदित्य नारायण सिंह ने 1931 से 1939 तक पदभार ग्रहण किया.

सन 1700 से शुरू हुए वाराणसी के काशी राज परिवार की परंपरा 1947 तक चलती रही. 1947 में जब अंग्रेजी हुकूमत से भारत आजाद हुआ तो उसके बाद महाराजा विभूति नारायण सिंह को अंतिम काशी नरेश के रूप में अपना नाम लिखने की छूट दी गई और आजादी के बाद भी काशी समेत देश के हर हिस्से से उन्हें महाराजा काशी नरेश विभूति नारायण सिंह के नाम से ही जाना जाता रहा. स्वतंत्रता के पहले डॉक्टर विभूति नारायण सिंह अंतिम नरेश रहे.

15 अक्टूबर 1948 को राज्य भारतीय संघ में मिल जाने के बाद इनको काशी में महादेव के अवतार के रूप में पूजा जाता रहा. 25 दिसंबर 2000 को उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे अनंत नारायण सिंह कुंवर के रूप में जाने जाते हैं, जो वर्तमान गद्दी के उत्तराधिकारी भी हैं और इस परंपरा के वाहक भी हैं.

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