वाराणसी: धर्म, आध्यात्म, साहित्य और संस्कृति का शहर है काशी. जहां न जाने कितनी विभूतियों का जन्म हुआ. काशी की इस मिट्टी में जन्म लेकर भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए कुछ अलग कर गुजरने वाले महान विभूतियों को लोग सदैव स्मरण करते हैं. ऐसी ही एक विभूति थे भारतेंदु हरिश्चंद्र. जिन्हें हिंदी साहित्य में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है.
9 सितंबर 1850 में काशी की संकरी गलियों में जन्मे भारतेंदु हरिश्चन्द्र रईस और नामी परिवार से थे. इनके पिता गोपाल चंद्र उस वक्त के अच्छे कवियों में शुमार थे. जिन्हें लोग गिरधरदास के नाम से जानते थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है, उन्होंने ही अंग्रेजी शासन काल में निज भाषा पर जोर देते हुए सबसे पहले आत्मनिर्भर होने की बात कही, जो आज भी प्रासंगिक है.
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखा है
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के सूल.
मतलब मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी मुश्किल है.
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी सेवा की वजह से एक युग को ही अपने नाम कर लिया. 1857 से लेकर 1900 तक का समय भारतेंदु युग के तौर पर हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को आज भी पढ़ाया जाता है. कहा जाता है कि 15 वर्ष में ही भारतेंदु जी ने साहित्य की सेवा प्रारंभ कर दी थी. 18 वर्ष की आयु में उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के शिष्य विद्वानों की रचनाएं प्रकाशित हुईं. 20 वर्ष की आयु में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनने के बाद भी आधुनिक साहित्य के जनक के रूप में उनकी एक अलग पहचान बनी.
वाराणसी को दी अलग पहचान
वाराणसी को दी अलग पहचान
वाराणसी से ही वर्ष 1807 में 'कवि वचन सुधा' और 1873 में 'हरिश्चंद्र मैंगजीन' के बाद 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बालबोधिनी' आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन सफलतापूर्वक किया. साहित्य की सेवा के साथ साहित्यिक संस्थाओं में भी उन्होंने बेहद समृद्ध तरीके से विकसित किया और लेखकों को एक मंच पर लाने का काम किया. उनके द्वारा की गई साहित्यिक सेवाओं के कारण आज भी वाराणसी की पहचान साहित्य में शीर्ष पर है.
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का निवास स्थान वाराणसी के चौखंबा इलाके में आज भी स्थित है. भारतेंदु बाबू के हाथों लिखी बहुत सी लेखनी आज भी उनके पांचवी पीढ़ी के परिवार के सदस्यों ने संभाल कर रखी हैं. उनके हाथों की लिखी बाकी लेखनी कला भवन सहित शारदा भवन व कई अन्य संस्थाओं को सुपुर्द की गई है, ताकि उसे सुरक्षित रखा जा सके.
निज भाषा पर दिया जोर
भारतेंदु बाबू की पांचवी पीढ़ी के उनके परिवार के सदस्य परपोते दीपेश चंद्र चौधरी का कहना है की भारतेंदु जी ने निज भाषा पर हमेशा से जोर दिया. निज भाषा का तात्पर्य से हिंदी से ही नहीं बल्कि बंगाली, मराठी, उड़िया, तमिल, कन्नड़ से है. आप जिस भाषा में बातचीत करते हैं वही निज भाषा है. उसकी उन्नति ही आपकी उन्नति का सार है. यह बात उन्होंने उस वक्त कही थी. यही वजह है कि आज जब नई शिक्षा नीति आई है तो निज भाषा पर जोर दिया जा रहा है. भारतेंदु जी के परपोते दीपेश चन्द्र चौधरी का कहना है कि गांधी जी से पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने आत्मनिर्भर होने की बात कही थी और आज वह बातें भी प्रासंगिक हो रही हैं. आज भारत आत्मनिर्भर बन रहा है.
प्रासंगिकता को देखें तो नई शिक्षा नीति में यही है कि निज भाषा यानि अपनी भाषा में पढ़ना है. यह बात भारतेंदु बाबू कई वर्ष पहले ही कह चुके हैं. अपनी भाषा पर हमेशा से ही जोर देते रहे हैं. वह समझते थे कि भाषा ही माध्यम है जिससे व्यक्ति उन्नति करेगा.
-दीपेश चन्द्र चौधरी, भारतेंदु जी के परपोते
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रत्येक विधाओं में योगदान दिया 1885 में मात्र 34 वर्ष की उम्र में महान विभूति ने दुनिया को अलविदा कह दिया और अपने इस छोटे से जीवन में इतना कार्य किया कि हिंदी साहित्य के एक युग को ही अपने नाम कर लिया.