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लाइलाज घावों का हो सकेगा इलाज....शोध में मिली ये सफलता

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग को लाइलाज घावों के इलाज के शोध में बड़ी सफलता मिली है. ये शोध अमेरिका के संघीय स्वास्थ्य विभाग के राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी सूचना केन्द्र में 5 जनवरी 2022 को प्रकाशित हुआ है.

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जीर्ण घाव संक्रमण में सफलता.
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Published : Jan 17, 2022, 8:57 PM IST

वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग को लाइलाज घावों के इलाज के शोध में बड़ी सफलता मिली है. ये शोध अमेरिका के संघीय स्वास्थ्य विभाग के राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी सूचना केन्द्र में 5 जनवरी, 2022 को प्रकाशित हुआ है.

किसी घाव को चोट के कारण त्वचा या शरीर के अन्य ऊतकों में दरार के रूप में परिभाषित किया जाता है. तीन महीने से ज्यादा पुराने घाव संक्रमित होते रहते हैं. यह अतिसंवेदनशील होते हैं. ये घाव ही बड़ी बीमारी का कारण बनते हैं. यह एक वैश्विक समस्या है. केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, (यूएस) में त्वचा संक्रमण की प्रत्यक्ष चिकित्सा लागत लगभग 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर है. इस राशि से 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर पुराने घाव के उपचार पर खर्च किया जाता है.

बायोफिल्म का गठन इन घावों के बने रहने का प्राथमिक कारण है. इनके इलाज में परंपरागत एंटीबायोटिक चिकित्सा असर नहीं करती है. ऐसे में बैक्टीरियोफेज थेरेपी एंटीबायोटिक एक समाधान के रूप में सामने आई है. बैक्टीरियोफेज एमडीआर जीवाणु संक्रमण के उपचार के लिए वैकल्पिक रोगाणुरोधी चिकित्सा के रूप में कई संभावित लाभ प्रदर्शित करते हैं. इसकी दवा वास्तव में असरकारक मानी जा रही है. प्रो. गोपाल नाथ के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने जानवरों और नैदानिक अध्ययनों में तीव्र और पुराने संक्रमित घावों की फेज थेरेपी की है. टीम को चूहों और खरगोशों पर किए गए परीक्षण में सफलता मिली है.

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प्रो पूजा गुप्ता ने बताया कि 2019 के एक नैदानिक अध्ययन में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया से जुड़े पुराने घावों में बैक्टीरियोफेज थेरेपी की महत्वपूर्ण भूमिका का प्रदर्शन किया था. डॉ. देव राज पटेल (2021) द्वारा एक अन्य अध्ययन में 48 रोगियों पर इसका शोध हुआ. इसमें उपचार में 82 फीसदी तक सफलता देखी गई. हालांकि, मधुमेह के रोगियों में उपचार में तुलनात्मक रूप से देरी हुई. टोपिकल फेज थेरेपी लाइलाज से लगने वाले घावों के उपचार के लिए अब काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही है.

चिकित्सा विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में की गई क्लीनिकल स्टडी में प्रो गोपाल नाथ, प्रो. एसके भारतीय, प्रो. वीके शुक्ला, डॉ. पूजा गुप्ता, डॉ. हरिशंकर सिंह, डॉ. देव राज पटेल, राजेश कुमार, रीना प्रसाद, सुभाष लालकर्ण आदि शामिल थे.

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वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग को लाइलाज घावों के इलाज के शोध में बड़ी सफलता मिली है. ये शोध अमेरिका के संघीय स्वास्थ्य विभाग के राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी सूचना केन्द्र में 5 जनवरी, 2022 को प्रकाशित हुआ है.

किसी घाव को चोट के कारण त्वचा या शरीर के अन्य ऊतकों में दरार के रूप में परिभाषित किया जाता है. तीन महीने से ज्यादा पुराने घाव संक्रमित होते रहते हैं. यह अतिसंवेदनशील होते हैं. ये घाव ही बड़ी बीमारी का कारण बनते हैं. यह एक वैश्विक समस्या है. केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, (यूएस) में त्वचा संक्रमण की प्रत्यक्ष चिकित्सा लागत लगभग 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर है. इस राशि से 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर पुराने घाव के उपचार पर खर्च किया जाता है.

बायोफिल्म का गठन इन घावों के बने रहने का प्राथमिक कारण है. इनके इलाज में परंपरागत एंटीबायोटिक चिकित्सा असर नहीं करती है. ऐसे में बैक्टीरियोफेज थेरेपी एंटीबायोटिक एक समाधान के रूप में सामने आई है. बैक्टीरियोफेज एमडीआर जीवाणु संक्रमण के उपचार के लिए वैकल्पिक रोगाणुरोधी चिकित्सा के रूप में कई संभावित लाभ प्रदर्शित करते हैं. इसकी दवा वास्तव में असरकारक मानी जा रही है. प्रो. गोपाल नाथ के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने जानवरों और नैदानिक अध्ययनों में तीव्र और पुराने संक्रमित घावों की फेज थेरेपी की है. टीम को चूहों और खरगोशों पर किए गए परीक्षण में सफलता मिली है.

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प्रो पूजा गुप्ता ने बताया कि 2019 के एक नैदानिक अध्ययन में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी बैक्टीरिया से जुड़े पुराने घावों में बैक्टीरियोफेज थेरेपी की महत्वपूर्ण भूमिका का प्रदर्शन किया था. डॉ. देव राज पटेल (2021) द्वारा एक अन्य अध्ययन में 48 रोगियों पर इसका शोध हुआ. इसमें उपचार में 82 फीसदी तक सफलता देखी गई. हालांकि, मधुमेह के रोगियों में उपचार में तुलनात्मक रूप से देरी हुई. टोपिकल फेज थेरेपी लाइलाज से लगने वाले घावों के उपचार के लिए अब काफी महत्वपूर्ण मानी जा रही है.

चिकित्सा विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में की गई क्लीनिकल स्टडी में प्रो गोपाल नाथ, प्रो. एसके भारतीय, प्रो. वीके शुक्ला, डॉ. पूजा गुप्ता, डॉ. हरिशंकर सिंह, डॉ. देव राज पटेल, राजेश कुमार, रीना प्रसाद, सुभाष लालकर्ण आदि शामिल थे.

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