वाराणसीः 2014 में पंजाब के अमृतसर के अजनाला में कुएं से निकले गए शहीदों के 282 नरकंकालों की सच्चाई सामने आ गई है. बीएचयू व बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ समेत कई संस्थानों के डीएनए शोध में पता चला है कि ये सभी 1857 में शहीद हुए बंगाल इन्फैंट्री के भारतीय सैनिक थे. इन्होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला था इसलिए इन्हें मौत के घाट उतार दिया गया था. 160 साल बाद इस रहस्य से पर्दा उठ सका है. यह अध्ययन 28 अप्रैल, 2022 को फ्रंटियर्स इन जेनेटिक्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.
इतिहासकारों के मुताबिक पंजाब (अब पाकिस्तान में) के मियां मीर में तैनात बंगाल की नेटिव इन्फैंट्री की 26वीं रेजीमेंट के 500 सैनिकों ने विद्राेह कर दिया था. अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने 218 सैनिकों की गोली मारकर हत्या करवा दी थी. शेष 282 सैनिकों को गिरफ्तार कर अजनाला ले गया था. 237 सैनिकों को गोली मारकर और 45 को जिंदा ही कुएं में डालकर मिट्टी और चूना डालकर कुएं को बंद कर दिया गया. उसके ऊपर गुरुद्वारे का निर्माण करा दिया गया था. 2014 में यह कुआं मिला तो वहां से बरामद हुए नरकंकालों की जांच शुरू की गई.
इस विषय की वास्तविकता पता करने के लिए पंजाब विश्वविद्यालय के एन्थ्रोपोलाजिस्ट डॉ. जेएस सेहरावत ने इन कंकालों का डीएन अध्ययन शुरू किया. बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ और काशी हिन्दू विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम किया. डीएनए शोध में पता चला कि ये उसी रेजीमेंट के सैनिकों के नरकंकाल थे. यह अध्ययन 28 अप्रैल, 2022 को फ्रंटियर्स इन जेनेटिक्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ. सीसीएमबी के मुख्य वैज्ञानिक और सेंटर फॉर डीएनए फिगरप्रिंटिंग एड डायग्नोस्टिक्स, हैदराबाद के निदेशक डॉ. के भगराज ने बताया कि बीएचयू के जंतु विज्ञान के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने इस शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. डीएनए और आइसोटोप एनालिसिस से हम यह पता लगाने में सफल रहे हैं कि ये कंकाल पंजाब या पकिस्तान के लोगों के नहीं हैं बल्कि यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल के लोगों के थे.
इस शोध के पहले लेखक डॉ. जगमेदर सिंह सेहरावत ने कहा कि इस शोध से मिले परिणाम ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुरूप है, जिसमें कहा गया है कि 26वीं मूल बंगाल इन्फैंट्री बटालियन के सैनिक पाकिस्तान के मियां-मीर में तैनात थे और विद्रोह के बाद उन्हें अजनाला के पास ब्रिटिश सेना ने पकड़ लिया और मार डाला था. यह बात इस शोध के पहले लेखक डॉ. जगमेदर सिंह सेहरावत ने भी कही थी. काशी हिन्दू विश्विद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक प्रो एके त्रिपाठी ने कहा कि यह अध्ययन ऐतिहासिक मिथकों की जांच में प्राचीन डीएनए आधारित तकनीक की उपयोगिता को दर्शाता हैं.
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