वाराणसी: काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर क्षेत्र में बुधवार की सुबह भवनों के ध्वस्तीकरण के दौरान बड़ा हादसा हो गया. मंदिर के पूर्व महंत डॉ. कुलपति तिवारी के मकान का एक हिस्सा गिरने से उसमें रखा बाबा विश्वनाथ का रंगभरी एकादशी का मंच क्षतिग्रस्त हो गया. रंगभरी मंच क्षतिग्रस्त होने से एकादशी के मौके पर बाबा की रजत पालकी की निकलने पर संशय की स्थिति है.
भवनों को खाली कराने और गिराने का काम चल रहा है:
- विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के लिए भवनों को खाली करा कर गिराने का काम चल रहा है.
- पूर्व महंत कुलपति तिवारी के आवास को छोड़कर सभी मकान खाली हो चुके हैं.
- मकान में महंत जी के साथ उनका परिवार भी रहता है.
- महंत के परिवार को भी रंगभरी एकादशी के बाद मकान खाली करना था.
- इसी आवास से बाबा विश्वनाथ का तिलकोत्सव होता है.
- इसके लिए यहां बाबा विश्वनाथ का रजत सिंहासन भी है.
- लगभग 350 साल पहले से सिंहासन पर रंगभरी एकादशी को पंच बदन को बिठाकर विश्वनाथ दरबार ले जाया जाता है.
यह है मान्यता:
मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ शिवरात्रि के बाद माता पार्वती का गौना कराके अपने घर लेकर जाते हैं. इस परंपरा को चांदी के सिंहासन पर पूरा किया जाता है. लेकिन आज सुबह लगभग 5:00 बजे विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के लिए महंत आवास के पीछे तोड़े जा रहे एक मकान को जेसीबी से गिराए जाने के दौरान महंत आवास का वह हिस्सा भी गिर गया. जहां पर यह पालकी और रजत छत्र रखा था. रंगभरी एकादशी पर आयोजित होने वाले कार्यक्रम का मंच भी इसी मलबे में दब गया. इसके बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या इस बार रंगभरी पर बाबा की प्रतिमा नहीं निकलेगी और कई सालों की परंपरा भी थम जाएगी.
इसे भी पढ़ें - वाराणसी: काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत आवास की छत गिरी
महंत कुछ भी बोलने को नहीं हुए तैयार
इस बारे में कैमरे पर महंत कुलपति तिवारी कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हुए. उनका कहना है कि मैं आहत हूं, मेरा घर विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर में चला गया है और उसके साथ परंपरा भी खत्म होने जा रही है. शासन-प्रशासन एक नहीं सुन रहा. इस बार कैसे रंगभरी एकादशी का पर्व होगा. जानकारी के मुताबिक कुलपति तिवारी ने अन्न जल त्याग देने की बात कही है.
कुल मिलाकर महंत आवास के एक हिस्से के गिर जाने की वजह से इसके मलबे में न सिर्फ रजत सिंहासन और रजत छत्र दबा है. बल्कि उस परंपरा और पौराणिकता का भी मलबे में दबकर खत्म होना दिख रहा है, जो सैकड़ों सालों से काशी में निभाई जा रही थी.