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मुगलिया शैली की बनारसी चित्रकारी को सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार

अब तक आप सभी ने अलग-अलग घरानों के बारे में सुना होगा. लेकिन आज हम आपको एक ऐसे घराने के बारे में बताने जा रहे हैं जिसको आपने पहले कभी नहीं सुना होगा.जी हां हम बात कर रहे हैं बनारस के चित्रकारी घराने की. जो पिछली सात पीढ़ियों से मुगल शैली के उन तस्वीरों को सहेजते आ रहा है जिसे बनारसी मुगल शैली कहा जाता है.

सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार
सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार
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Published : Nov 15, 2021, 9:14 AM IST

Updated : Nov 15, 2021, 9:59 AM IST

वाराणसी: अब तक आप ने संगीत, साहित्य जैसी विधाओं में अलग-अलग घरानों के बारे में सुना होगा. लेकिन आज हम आपको बनारस के चित्रकारी घराने से रुबरू करवाने जा रहे हैं. इसे घराना कहना इसलिए अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि यह काशी का इकलौता ऐसा परिवार है जो बीते सात पीढ़ियों से बनारसी मुगलिया चित्रकला शैली को आगे बढ़ाने का काम कर रहा है.





पीढ़ियों से चित्रकारी को संजो रहा ये परिवार

दरअसल वाराणसी के छित्तूपुर क्षेत्र में रहने वाला एक परिवार आज सात पीढ़ियों से मुगल शैली के उन तस्वीरों को सहेजते आ रहा है जिसे बनारसी मुगल शैली कहा जाता है. बड़ी बात ये है कि इसकी शुरुआत ही इस धर्म नगरी से हुई थी. इनके पहले पीढ़ी सिक्खी ग्वाल ने मुगलकालीन शैली में चित्रकारी का आरंभ किया था, जिसके बाद उनकी अलग-अलग पीढ़ियां इस कार्य को आगे बढ़ाने में जुटी हुई है.

सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार

ईटीवी भारत से बातचीत में अंकित प्रसाद ने बताया कि उनके यहां बचपन से ही बच्चों को पेंटिंग ब्रश दिया जाता है और वह बचपन से ही चित्रकारी करना शुरू कर देते हैं. क्योंकि यह उनके पुरानी पुश्तैनी विरासत हैं. उन्होंने बताया कि उनके चित्रकारी की खास बात यह है कि इसमें मुगलकालीन शैली के साथ-साथ बनारस की तस्वीर भी झलकती है और यही वजह है कि यह कला अपने आप में बेहद खास और जीवंतता वाली है.

अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली

इस बारे में भारत कला भवन के पुराविद ओपी सिंह ने बताया कि अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस में मुगलकालीन शैली का आगमन हुआ था. उस समय राजा महाराजाओं के साथ उनके संगीतकार, चित्रकार व अन्य कलाकार चलते थे. जब यह सभ्यता काशी में आई तो वहां के चित्रकारों ने काशी के लोगों को मुगलिया चित्रकारी सिखाई. जिसके बाद यहां के लोग धीरे-धीरे उस चित्र कला को सीखने लगे.

सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार
सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार

डॉ. सिंह ने बताया कि 18वीं सदी के समय बनारस में राजस्थानी और पहाड़ी चित्रकला की शैलियां चल रही थी. मुगलकालीन शैली के बाद बनारस के राजा ईश्वरीय सिंह ने उसको एक नया आयाम दिया और उन्होंने एक नई शैली का विकास किया, जिसे कंपनी शैली का नाम दिया गया. क्योंकि मुगलकालीन शैली में सिर्फ राजा-महाराजाओं, योद्धाओं के चित्र बनाए जाते थे. लेकिन कंपनी शैली में आम जनजीवन की चित्रकलाऐं बनाई जाती थी, जिससे उस समय के परिवेश को आसानी से समझा जा सके.

उसके बाद धीरे-धीरे वाराणसी के सिक्खी ग्वाल के परिवार ने इस चित्रकला को आगे बढ़ाने का काम किया और वर्तमान में सातवीं पीढ़ी अंकित प्रसाद के रूप में इस कला को आगे बढ़ा रही हैं, जिसमें मुगलकालीन शैली व कंपनी शैली जहां एक ओर परिलक्षित होती है तो वहीं दूसरी ओर बनारस का अल्हड़पन भी चित्रकारी में दिख रहा है.

अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली
अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली
इस कला में प्राकृतिक रंग व ब्रश का होता है प्रयोगअंकित ने बताया कि इस कला में प्राकृतिक रंग व ब्रश का प्रयोग किया जाता हैं, जो दीपक की राख व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से बनाया जाता है. फिर उसके बाद उसमें बबुल का गोद मिलाया जाता है इन सभी प्राकृतिक रंगों को बनाने में एक हफ्ते तक का समय लगता है. उन्होंने बताया कि इसका ब्रश भी प्राकृतिक संसाधन से बनाया जाता है और फिर जब पेंटिंग तैयार हो जाती है तो इसे शीशे पर रखकर घिसा जाता है तब जाकर पेंटिंग तैयार होती है और इसमें चमक आती है. खास बात यह है कि प्राकृतिक संसाधनों से बने होने के कारण ये पेंटिंग सालों साल सुरक्षित रहती हैं.

वाराणसी: अब तक आप ने संगीत, साहित्य जैसी विधाओं में अलग-अलग घरानों के बारे में सुना होगा. लेकिन आज हम आपको बनारस के चित्रकारी घराने से रुबरू करवाने जा रहे हैं. इसे घराना कहना इसलिए अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि यह काशी का इकलौता ऐसा परिवार है जो बीते सात पीढ़ियों से बनारसी मुगलिया चित्रकला शैली को आगे बढ़ाने का काम कर रहा है.





पीढ़ियों से चित्रकारी को संजो रहा ये परिवार

दरअसल वाराणसी के छित्तूपुर क्षेत्र में रहने वाला एक परिवार आज सात पीढ़ियों से मुगल शैली के उन तस्वीरों को सहेजते आ रहा है जिसे बनारसी मुगल शैली कहा जाता है. बड़ी बात ये है कि इसकी शुरुआत ही इस धर्म नगरी से हुई थी. इनके पहले पीढ़ी सिक्खी ग्वाल ने मुगलकालीन शैली में चित्रकारी का आरंभ किया था, जिसके बाद उनकी अलग-अलग पीढ़ियां इस कार्य को आगे बढ़ाने में जुटी हुई है.

सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार

ईटीवी भारत से बातचीत में अंकित प्रसाद ने बताया कि उनके यहां बचपन से ही बच्चों को पेंटिंग ब्रश दिया जाता है और वह बचपन से ही चित्रकारी करना शुरू कर देते हैं. क्योंकि यह उनके पुरानी पुश्तैनी विरासत हैं. उन्होंने बताया कि उनके चित्रकारी की खास बात यह है कि इसमें मुगलकालीन शैली के साथ-साथ बनारस की तस्वीर भी झलकती है और यही वजह है कि यह कला अपने आप में बेहद खास और जीवंतता वाली है.

अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली

इस बारे में भारत कला भवन के पुराविद ओपी सिंह ने बताया कि अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस में मुगलकालीन शैली का आगमन हुआ था. उस समय राजा महाराजाओं के साथ उनके संगीतकार, चित्रकार व अन्य कलाकार चलते थे. जब यह सभ्यता काशी में आई तो वहां के चित्रकारों ने काशी के लोगों को मुगलिया चित्रकारी सिखाई. जिसके बाद यहां के लोग धीरे-धीरे उस चित्र कला को सीखने लगे.

सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार
सात पीढ़ियों से सहेज रहा ये परिवार

डॉ. सिंह ने बताया कि 18वीं सदी के समय बनारस में राजस्थानी और पहाड़ी चित्रकला की शैलियां चल रही थी. मुगलकालीन शैली के बाद बनारस के राजा ईश्वरीय सिंह ने उसको एक नया आयाम दिया और उन्होंने एक नई शैली का विकास किया, जिसे कंपनी शैली का नाम दिया गया. क्योंकि मुगलकालीन शैली में सिर्फ राजा-महाराजाओं, योद्धाओं के चित्र बनाए जाते थे. लेकिन कंपनी शैली में आम जनजीवन की चित्रकलाऐं बनाई जाती थी, जिससे उस समय के परिवेश को आसानी से समझा जा सके.

उसके बाद धीरे-धीरे वाराणसी के सिक्खी ग्वाल के परिवार ने इस चित्रकला को आगे बढ़ाने का काम किया और वर्तमान में सातवीं पीढ़ी अंकित प्रसाद के रूप में इस कला को आगे बढ़ा रही हैं, जिसमें मुगलकालीन शैली व कंपनी शैली जहां एक ओर परिलक्षित होती है तो वहीं दूसरी ओर बनारस का अल्हड़पन भी चित्रकारी में दिख रहा है.

अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली
अट्ठारहवीं शताब्दी में बनारस आयी थी ये शैली
इस कला में प्राकृतिक रंग व ब्रश का होता है प्रयोगअंकित ने बताया कि इस कला में प्राकृतिक रंग व ब्रश का प्रयोग किया जाता हैं, जो दीपक की राख व अन्य प्राकृतिक संसाधनों से बनाया जाता है. फिर उसके बाद उसमें बबुल का गोद मिलाया जाता है इन सभी प्राकृतिक रंगों को बनाने में एक हफ्ते तक का समय लगता है. उन्होंने बताया कि इसका ब्रश भी प्राकृतिक संसाधन से बनाया जाता है और फिर जब पेंटिंग तैयार हो जाती है तो इसे शीशे पर रखकर घिसा जाता है तब जाकर पेंटिंग तैयार होती है और इसमें चमक आती है. खास बात यह है कि प्राकृतिक संसाधनों से बने होने के कारण ये पेंटिंग सालों साल सुरक्षित रहती हैं.
Last Updated : Nov 15, 2021, 9:59 AM IST
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