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हाथ की कारीगरी हुई बेजार, 2 वक्त की रोटी के लिए मशक्कत कर रहे कुम्हार

उन्नाव जिले में कुम्हारों की दुख भरी दास्तां सामने आई है. कुम्हारों का कहना है कि एक मूर्ति को बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन उन्हें उनकी मेहनत की सही कीमत नहीं मिल पाती है, जिससे उनकी जीविका चल पाना मुश्किल हो गया है.

मूर्ति बनाने के लिए कुम्हारों को नहीं मिल रहे उचित दाम.
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Published : Oct 23, 2019, 8:16 AM IST

उन्नाव: कहते हैं दिवाली पटाखों और रोशनी का त्योहार है, लेकिन इस दिन लक्ष्मी-गणेश के पूजन का भी विशेष महत्व है. हालांकि गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमा को तैयार करने में एक कुम्हार बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. कुम्हार बड़े ही प्यार से लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा को तैयार करता है. ताकि उसके भी घर में खुशियों की दिवाली हो, लेकिन असल में मिट्टी को आकार देकर भगवान की मूरत बनाने वाले उसी कुम्हार को दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है.

मूर्ति बनाने के लिए कुम्हारों को नहीं मिल रहे उचित दाम.

पटाखों की आवाज के बीच मे इन कुम्हारों की सिसकियां शायद किसी को नहीं सुनाई पड़ती हैं. भगवान की मूर्ति बनाने में की गई मेहनत का पैसा भी उस कुम्हार को नहीं मिलता और वही मूर्ति जब बाजारों में आती है तो ऊंचे दामों में बिकती है. हैरानी की बात तो यह है कि सरकार द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ भी इन्हें नहीं मिल पाता है, क्योंकि बैंक कर्मियों की मांगें ये पूरी नहीं कर पाते हैं.

दिवाली के पर्व पर गणेश-लक्ष्मी का पूजन किया जाता है. इस समय बाजारों में गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां भी सज गई हैं. एक मूर्ति बनाने में कुम्हार को काफी मेहनत करनी पड़ती है. इतनी मेहनत के बाद भी मिट्टी को आकार देकर मूर्ति बनाने वाले कुम्हार के हाथ फिर भी खाली रहते हैं. जिले के शैलेन्द्र प्रजापति का पूरा परिवार मिट्टी की मूर्ति बनाने का काम करता है, लेकिन इससे जीविका चलना भी अब कठिन हो गया है.

इसे भी पढ़ें:- दिवाली पर उम्मीदों के दीया तले कुम्हारों की दिवाली

दरअसल, एक मूर्ति बनाने के लिए लगभग 15 दिन का समय लगता है. मिट्टी से मूर्ति बनाना और फिर उसे सुखाने और पकाने में ही आठ से 10 दिन का समय निकल जाता है. वहीं पकने के बाद मूर्ति पर सफेद पेंट करना उसके सूखने के बाद फिर से कलर पेंट करना और बाद में उसमें ब्रश से कलर भरने में कुम्हार अपना पूरा प्यार उड़ेल देता है. कुम्हार की इतनी मेहनत के बाद भी व्यापारी उसे सिर्फ 40 रुपये ही देता है और खुद उस मूर्ति को चार गुना दामों में बेचता है.

कुम्हार शैलेन्द्र की मानें तो ये उनका पुश्तैनी काम जरूर है, लेकिन अब इससे जीविका नहीं चल पाती है. इस वजह से शैलेन्द्र राजगीर मिस्त्री का काम करते हैं. पत्नी और बच्चे इस काम में ज्यादा से ज्यादा समय देते हैं. वहीं अगर बात करें सरकारी योजनाओं की तो उसका कोई लाभ नहीं मिला है, क्योकि कई बार बैंक के चक्कर लगाने के बावजूद भी कमीशनबाजी के चलते उसे लाभ नहीं मिल सका.

वही शैलेन्द्र के इस पुश्तैनी काम को बच्चे आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं. ग्रेजुएशन कर रहे बेटे राहुल की मानें तो ये उनका पुश्तैनी काम है और पढ़ाई से समय निकालकर वो इसको करते हैं, लेकिन इससे जीविका तक नहीं चल पाती. इसलिए वो अब इसे आगे नहीं बढ़ायेगा. राहुल पढ़ाई पूरी करके फौज में जाकर देश सेवा करना चाहता है.

उन्नाव: कहते हैं दिवाली पटाखों और रोशनी का त्योहार है, लेकिन इस दिन लक्ष्मी-गणेश के पूजन का भी विशेष महत्व है. हालांकि गणेश-लक्ष्मी की प्रतिमा को तैयार करने में एक कुम्हार बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. कुम्हार बड़े ही प्यार से लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा को तैयार करता है. ताकि उसके भी घर में खुशियों की दिवाली हो, लेकिन असल में मिट्टी को आकार देकर भगवान की मूरत बनाने वाले उसी कुम्हार को दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है.

मूर्ति बनाने के लिए कुम्हारों को नहीं मिल रहे उचित दाम.

पटाखों की आवाज के बीच मे इन कुम्हारों की सिसकियां शायद किसी को नहीं सुनाई पड़ती हैं. भगवान की मूर्ति बनाने में की गई मेहनत का पैसा भी उस कुम्हार को नहीं मिलता और वही मूर्ति जब बाजारों में आती है तो ऊंचे दामों में बिकती है. हैरानी की बात तो यह है कि सरकार द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ भी इन्हें नहीं मिल पाता है, क्योंकि बैंक कर्मियों की मांगें ये पूरी नहीं कर पाते हैं.

दिवाली के पर्व पर गणेश-लक्ष्मी का पूजन किया जाता है. इस समय बाजारों में गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां भी सज गई हैं. एक मूर्ति बनाने में कुम्हार को काफी मेहनत करनी पड़ती है. इतनी मेहनत के बाद भी मिट्टी को आकार देकर मूर्ति बनाने वाले कुम्हार के हाथ फिर भी खाली रहते हैं. जिले के शैलेन्द्र प्रजापति का पूरा परिवार मिट्टी की मूर्ति बनाने का काम करता है, लेकिन इससे जीविका चलना भी अब कठिन हो गया है.

इसे भी पढ़ें:- दिवाली पर उम्मीदों के दीया तले कुम्हारों की दिवाली

दरअसल, एक मूर्ति बनाने के लिए लगभग 15 दिन का समय लगता है. मिट्टी से मूर्ति बनाना और फिर उसे सुखाने और पकाने में ही आठ से 10 दिन का समय निकल जाता है. वहीं पकने के बाद मूर्ति पर सफेद पेंट करना उसके सूखने के बाद फिर से कलर पेंट करना और बाद में उसमें ब्रश से कलर भरने में कुम्हार अपना पूरा प्यार उड़ेल देता है. कुम्हार की इतनी मेहनत के बाद भी व्यापारी उसे सिर्फ 40 रुपये ही देता है और खुद उस मूर्ति को चार गुना दामों में बेचता है.

कुम्हार शैलेन्द्र की मानें तो ये उनका पुश्तैनी काम जरूर है, लेकिन अब इससे जीविका नहीं चल पाती है. इस वजह से शैलेन्द्र राजगीर मिस्त्री का काम करते हैं. पत्नी और बच्चे इस काम में ज्यादा से ज्यादा समय देते हैं. वहीं अगर बात करें सरकारी योजनाओं की तो उसका कोई लाभ नहीं मिला है, क्योकि कई बार बैंक के चक्कर लगाने के बावजूद भी कमीशनबाजी के चलते उसे लाभ नहीं मिल सका.

वही शैलेन्द्र के इस पुश्तैनी काम को बच्चे आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं. ग्रेजुएशन कर रहे बेटे राहुल की मानें तो ये उनका पुश्तैनी काम है और पढ़ाई से समय निकालकर वो इसको करते हैं, लेकिन इससे जीविका तक नहीं चल पाती. इसलिए वो अब इसे आगे नहीं बढ़ायेगा. राहुल पढ़ाई पूरी करके फौज में जाकर देश सेवा करना चाहता है.

Intro:उन्नाव:- कहते है दीवाली पटाखों और रोशनी का त्योहार है लेकिन इसी दिन गणेश जी और लक्ष्मी जी के पूजन का भी विशेष महत्व है लेकिन क्या आपको पता है पूजन के लिए जो गणेश लक्ष्मी की प्रतिमा आप घर लाये है उसको तैयार करने में एक कुम्हार कितनी मेहनत करता है बड़े ही प्यार से वो भगवान की मूरत तैयार करता है ताकि उसके घर मे भी खुशियों की दीवाली हो लेकिन असल मे मिट्टी को आकार देकर भगवान की मूरत बनाने वाले उसी कुम्हार को दो वक्त की रोटी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है पटाखों की आवाज़ के बीच मे उन कुम्हारों की सिसकियां शायद किसी को नही सुनाई पड़ती है क्योकि भगवान की मूरत बनाने में की गयी मेहनत का पैसा भी उस कुम्हार को नही मिलता और वही मूरत जब बाज़ारो में आती है तो वही भगवान की मूरत ऊंचे दामो में बिकती है।हैरानी की बात तो ये है कि सरकार द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ भी इन्हें नही मिल पाता है क्योंकि बैंक कर्मियों की मांगें ये पूरी नही कर पाते





Body:दीपावली के पर्व पर जहां गणेश और लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है और इस समय बाज़ारो में मूर्तिया भी सज गयी है लेकिन क्या आपको पता है उस मूरत के पीछे एक कुम्हार की कितनी मेहनत है और इतनी मेहनत के बाद भी मिट्टी को आकार देकर मूरत बनाने वाले कुम्हार के हाथ फिर भी खाली रहते है ऐसा ही एक परिवार है उन्नाव के शैलेन्द्र प्रजापति का। पूरा परिवार मिट्टी की मूरत बनाने का काम करता है लेकिन इससे जीविका चलना भी अब कठिन हो गया है दरहसल एक मूरत बनाने के लिए लगभग 15 दिन का समय लगता है मिट्टी से मूरत बनाने फिर उसे सुखाने और उसके बाद पकाने में ही 8 से 10 दिन का समय निकल जाता है वही पकने के बाद मूरत पर सफेद पेंट करना उसके सूखने के बाद फिर से कलर पेंट करने के बाद उसमें ब्रश से कलर भरने में कुम्हार अपना पूरा प्यार उड़ेल देता है लेकिन इतनी मेहनत के बाद भी व्यापारी उसे सिर्फ 40 रुपये ही देता है और खुद उस मूर्ति को चार गुना दामो में बेचता है शैलेन्द्र की माने तो ये उनका पुश्तैनी काम जरूर है लेकिन अब इससे जीविका नही चल पाती है जिसकी वजह से शैलेन्द्र राजगीर मिस्त्री का काम करते है बाकी पत्नी बेटा और बेटी इस काम मे ज्यादा समय देते है वही अगर बात करे सरकारी योजनाओं की तो शैलेन्द्र को उसका कोई लाभ नही मिला क्योकि कई बार बैंक के चक्कर लगाने के बावजूद कमीशनबाजी के चलते उसे लाभ नही मिल सका।


बाईट--शैलेन्द्र प्रजापति(कुम्हार)









Conclusion:वही शैलेन्द्र के इस पुश्तैनी काम को बच्चे आगे नही बढाना चाहते ग्रेजुएशन कर रहे बेटे राहुल की माने तो ये उनका पुश्तैनी काम जरूर है और पढ़ाई से समय निकालकर वो इसको करते है लेकिन इससे जीविका तक नही चल पाती इसलिए वो अब इसे आगे नही करेगा पढ़ाई पूरी करके वो फौज भी जाकर देश सेवा करना चाहता है।


बाईट-राहुल प्रजापति (कुम्हार)
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