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इलेक्ट्रॉनिक झालरों से पुश्तैनी काम छोड़ने पर मजबूर कुम्हार, बोले- लोग अब नहीं खरीदते मिट्टी के दीए

दिवाली को दीपों का त्योहार भले ही कहा जाता हो, लेकिन आधुनिकता के इस दौर में मिट्टे के दीयों की जगह अब रंग-बिरंगी इलेक्ट्रॉनिक्स झालरों ने ले ली है. जिसके चलते अब लोग अपने घरों को दीयों से सजाने की बजाए झालरों से सजाने लगे हैं. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक झालरों की चमक दमक के बीच मिट्टी के दीपक की रोशनी धीमी पड़ती जा रही है, जिसका असर मिट्टी के दीए बनाने वाले कुम्हारों पर भी पड़ रहा है.

कुम्हार.
कुम्हार.
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Published : Oct 19, 2022, 10:28 AM IST

सहारनपुर: दीपावली पर्व पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं. मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, जिसके चलते वे अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं. दीपावली पर्व पर मिट्टी का सामान तैयार करना. उनके लिए महज एक सिजनल धंधा बनकर रह गया है. अगर वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना. उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.

मिट्टी के बर्तनों के कारोबार से जुड़े कुम्हारों का कहना है कि दीपावली और गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग बढ़ जाती है, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी कर किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं. जहां सरकार की ओर से किसी तरह की सहायता नहीं मिल रही है.

वहीं दूसरी तरफ बाजारों में इलेक्ट्रानिक्स झालरों की चमक दमक के बीच मिट्टी के दीपक की रोशनी धीमी पड़ती जा रही है. इस चलते लोग दीपकों का उपयोग महज पूजन के लिए ही करते हैं. इस कारण उन्हें अपनी मेहनत का उचित मेहनताना नहीं मिल रहा. यही कारण है लोग इस काम को धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं.

जानकारी देते कुम्हार.

बेहट तहसील क्षेत्र के कुम्हार सलेकचंद का कहना है कि ढाई से 3 हजार रुपये में चिकनी मिट्टी की ट्राली खरीदकर दिए बनाकर कुम्हार मुनाफा नहीं कमा पा रहा. अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को जीवंत रखने का प्रयास कर रहा है. आज से 20-30 वर्ष पहले जहां कुम्हारों को आस-पास की जगह से ही दिए बनाने के लिए चिकनी मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती थी. अब इस मिट्टी की मोटी कीमत चुकानी पड़ती है. गौरतलब है कि इस मिट्टी से तैयार एक 2 रुपये के दीपक को खरीदते समय लोग मोल-भाव भी करना नहीं भूलते.

कुम्हार दीपक कुमार का कहना है कि सबसे पहले तो मिट्टी मिलना एक बड़ी चुनौती है. बर्तन बनाना हमारा पुस्तैनी काम है, परंतु चाइनीज माल के मार्केट में आने से मिट्टी के बर्तनों व दियों की मांग कम हो गई है. इसके चलते रोजी रोटी कमाना दूभर हो रहा हैं. उन्होंने बताया कि माता-पिता ने कड़ी मेहनत कर उसे पढ़ाया हैं. ग्रेजुएशन करने के बाद बीएड करना चाहता हूं परंतु आर्थिक तंगी के चलते बीएड नहीं कर पा रहा हूं. वहीं, केंद्र सरकार द्वारा कुम्हारों को नि:शुल्क चाक मुहैया करवाए जाने की योजना का भी लाभ उन्हें नहीं मिल पाया है.

कुम्हार विनित कुमार का कहना हैं कि वह हाई स्कूल का छात्र है ओर सुबह 4 बजे उठने के बाद 2 से 3 घंटे तक अपने पिता जी के साथ काम करता है और उसके बाद कॉलेज जाता है. परंतु आर्थिक तंगी पढ़ाई में आड़े आ रहीं है. पुस्तैनी काम को करने से रोजी रोटी कमाना टेढ़ी खीर साबित हो रही हैं. इसलिए इस कार्य को छोड़कर दूसरे काम की ओर बढ़ रहे हैं. विनित का कहना हैं कि केंद्र एवं प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उम्मीद जगी थी कि सरकार कुछ मदद करेगी परंतु ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है.

इसे भी पढे़ं- क्यों मनाते हैं दीपावली, यह हैं हमारे पौराणिक व धार्मिक प्रसंग व प्रमुख कारण

सहारनपुर: दीपावली पर्व पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं. मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, जिसके चलते वे अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं. दीपावली पर्व पर मिट्टी का सामान तैयार करना. उनके लिए महज एक सिजनल धंधा बनकर रह गया है. अगर वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना. उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.

मिट्टी के बर्तनों के कारोबार से जुड़े कुम्हारों का कहना है कि दीपावली और गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग बढ़ जाती है, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी कर किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं. जहां सरकार की ओर से किसी तरह की सहायता नहीं मिल रही है.

वहीं दूसरी तरफ बाजारों में इलेक्ट्रानिक्स झालरों की चमक दमक के बीच मिट्टी के दीपक की रोशनी धीमी पड़ती जा रही है. इस चलते लोग दीपकों का उपयोग महज पूजन के लिए ही करते हैं. इस कारण उन्हें अपनी मेहनत का उचित मेहनताना नहीं मिल रहा. यही कारण है लोग इस काम को धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं.

जानकारी देते कुम्हार.

बेहट तहसील क्षेत्र के कुम्हार सलेकचंद का कहना है कि ढाई से 3 हजार रुपये में चिकनी मिट्टी की ट्राली खरीदकर दिए बनाकर कुम्हार मुनाफा नहीं कमा पा रहा. अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को जीवंत रखने का प्रयास कर रहा है. आज से 20-30 वर्ष पहले जहां कुम्हारों को आस-पास की जगह से ही दिए बनाने के लिए चिकनी मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती थी. अब इस मिट्टी की मोटी कीमत चुकानी पड़ती है. गौरतलब है कि इस मिट्टी से तैयार एक 2 रुपये के दीपक को खरीदते समय लोग मोल-भाव भी करना नहीं भूलते.

कुम्हार दीपक कुमार का कहना है कि सबसे पहले तो मिट्टी मिलना एक बड़ी चुनौती है. बर्तन बनाना हमारा पुस्तैनी काम है, परंतु चाइनीज माल के मार्केट में आने से मिट्टी के बर्तनों व दियों की मांग कम हो गई है. इसके चलते रोजी रोटी कमाना दूभर हो रहा हैं. उन्होंने बताया कि माता-पिता ने कड़ी मेहनत कर उसे पढ़ाया हैं. ग्रेजुएशन करने के बाद बीएड करना चाहता हूं परंतु आर्थिक तंगी के चलते बीएड नहीं कर पा रहा हूं. वहीं, केंद्र सरकार द्वारा कुम्हारों को नि:शुल्क चाक मुहैया करवाए जाने की योजना का भी लाभ उन्हें नहीं मिल पाया है.

कुम्हार विनित कुमार का कहना हैं कि वह हाई स्कूल का छात्र है ओर सुबह 4 बजे उठने के बाद 2 से 3 घंटे तक अपने पिता जी के साथ काम करता है और उसके बाद कॉलेज जाता है. परंतु आर्थिक तंगी पढ़ाई में आड़े आ रहीं है. पुस्तैनी काम को करने से रोजी रोटी कमाना टेढ़ी खीर साबित हो रही हैं. इसलिए इस कार्य को छोड़कर दूसरे काम की ओर बढ़ रहे हैं. विनित का कहना हैं कि केंद्र एवं प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उम्मीद जगी थी कि सरकार कुछ मदद करेगी परंतु ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती दिखाई दे रही है.

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