सहारनपुर : आधुनिकता के इस दौर में जहां लोग एक्वागार्ड और फ्रिज को अपना फैशन बना चुके हैं. इनके प्रचलन से मिट्टी के बने बर्तन ही नहीं देसी फ्रिज माना जाने वाले घड़े का अस्तित्व भी खत्म होता जा रहा है. मिट्टी की हांडी, कुल्हड़, कसोरे, सुराही और घड़े समेत तमाम बर्तन बाजारों से विलुप्त होते जा रहे हैं. इसके चलते कुम्हारों के सामने आर्थिक संकट मंडराने लगा है.
एक जमाना था जब देसी फ्रिज यानी घड़े के पानी के लिए प्यासा व्यक्ति दूर-दूर से चला आता था. घड़े का पानी न सिर्फ सेहत के लिए फायदेमंद रहता था बल्कि प्यास बुझाने के साथ साथ स्वाद को भी बढ़ा देता था. इतना ही नहीं मिट्टी के बर्तन में रखा गया पानी शुद्ध भी माना जाता था लेकिन आधुनिकता के दौर में जैसे जैसे बिजली के फ्रिज और एक्वागार्ड आये तो मिट्टी के सुराही और घड़े बेगाने लगने लगे. धीरे धीरे घड़े और सुराही समेत तमाम मिट्टी के बर्तनों की मांग कम हो गई. रही सही कसर प्लास्टिक के कैम्परों ने आकर पूरी कर दी. हालांकि, कुम्हारों ने लोगों की सुविधा के मुताबिक टोंटी लगे मिट्टी के कैम्पर भी बनाने शुरू कर दिए लेकिन लोगों का रुझान फैंसी और महंगे उपकरणों की ओर चला गया.
ईटीवी भारत ने दो जून की रोटी के लिए दुकान लगाए बैठे कुम्हारों से इस बाबत बातचीत की तो उनका दर्द छलक उठा. मिट्टी के बर्तन बेच रही बिमला देवी ने बताया कि हम सुबह से ही धूप में दुकान लगाकर बैठ जाते हैं. दिन भर में बहुत कम ग्राहक मिट्टी के घड़े और अन्य पानी के बर्तन खरीदने आते हैं. बर्तनों की कम बिक्री से उनके घर परिवार का खर्चा नहीं चल पाता है.
राजकुमार बताते हैं कि 40 सालों से वह अपनी दुकान लगाते आ रहे हैं. करीब 10 साल पहले तो कुछ ग्राहक मिट्टी के घड़े, सुराही, हांडी आदि बर्तन खरीदकर ले जाते थे लेकिन जब से फ्रिज और बिजली के अन्य उपकरणों का प्रचलन हुआ है तब से मिट्टी की घड़ों की मांग कम हो गयी है.