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इस्लाम में सफर के दौरान रोजा छोड़ने की इजाजत, सफर की तय सीमा 48 मील

कुरान के अनुसार इस्लाम में रोजा रखना बेहद खास बताया गया है. इस्लाम में रोजेदारों को सफर के दौरान रोजा छोड़ने की इजाजत भी दी गई है, लेकिन सफर की तय सीमा शरीयत मानती हो.

जानकारी देते इस्लामिक विद्वान शाकिर कासमी.
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Published : May 14, 2019, 10:15 AM IST

Updated : Sep 17, 2020, 4:21 PM IST

सहारनपुर: रोजा इस्लाम की अहम इबादतों में एक है. इन्हीं इबादतों में सफर भी शामिल है. सफर के दौरान रोजेदार को रोजा छोड़ने की इजाजत दी हुई है, लेकिन सफर के वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है. इस्लाम में यह भी शर्त है कि सफर का एक निश्चित फासला हो, जिसे शरीयत सफर मानती हो, तभी यह सुविधा हासिल होगी. इस्लाम में सफर की तय सीमा 48 मील रखी गई है.

पुस्तक किफायतुल मुफ्ती के मुताबिक सफर की हालत में नमाज आधी हो जाती है, लेकिन रोजा पूरा छोड़ा जा सकता है. पुस्तक मआरिफुल कुरान के अनुसार सफर के दौरान रोजेदार अगर किसी जगह पर 15 दिन से कम ठहरना है तो यह दिन सफर में शुमार होंगे, लेकिन सफर 15 दिन या उससे ज्यादा की है तो वह शख्स मुसाफिर नहीं होता, बल्कि मुकीम बन गया. इसलिए उसके लिए रोजे रखना जरूरी है.

जानकारी देते इस्लामिक विद्वान शाकिर कासमी.

इस्लाम में रमजान के दौरान ध्यान देने वाली बातें:

  • इस्लाम में रोजा एक इबादत है.
  • सफर में रोजेदार को रोजा छोड़ने की इजाजत है.
  • शरीयत के अनुसार सफर की समय अवधि 48 मील है.
  • कुरान पाक के अनुसार रोजा रखना बेहतर है.

कोई व्यक्ति 48 मील के सफर पर जा रहा है तो उसे रोजा न रखने की इजाजत है, लेकिन सफर के वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है.
-शाकिर कासमी, इस्लामिक विद्वान

सहारनपुर: रोजा इस्लाम की अहम इबादतों में एक है. इन्हीं इबादतों में सफर भी शामिल है. सफर के दौरान रोजेदार को रोजा छोड़ने की इजाजत दी हुई है, लेकिन सफर के वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है. इस्लाम में यह भी शर्त है कि सफर का एक निश्चित फासला हो, जिसे शरीयत सफर मानती हो, तभी यह सुविधा हासिल होगी. इस्लाम में सफर की तय सीमा 48 मील रखी गई है.

पुस्तक किफायतुल मुफ्ती के मुताबिक सफर की हालत में नमाज आधी हो जाती है, लेकिन रोजा पूरा छोड़ा जा सकता है. पुस्तक मआरिफुल कुरान के अनुसार सफर के दौरान रोजेदार अगर किसी जगह पर 15 दिन से कम ठहरना है तो यह दिन सफर में शुमार होंगे, लेकिन सफर 15 दिन या उससे ज्यादा की है तो वह शख्स मुसाफिर नहीं होता, बल्कि मुकीम बन गया. इसलिए उसके लिए रोजे रखना जरूरी है.

जानकारी देते इस्लामिक विद्वान शाकिर कासमी.

इस्लाम में रमजान के दौरान ध्यान देने वाली बातें:

  • इस्लाम में रोजा एक इबादत है.
  • सफर में रोजेदार को रोजा छोड़ने की इजाजत है.
  • शरीयत के अनुसार सफर की समय अवधि 48 मील है.
  • कुरान पाक के अनुसार रोजा रखना बेहतर है.

कोई व्यक्ति 48 मील के सफर पर जा रहा है तो उसे रोजा न रखने की इजाजत है, लेकिन सफर के वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है.
-शाकिर कासमी, इस्लामिक विद्वान

Intro:सफर में रोजा छोडऩे की इजाजत, वापसी पर होगी कजा

-48मील (77.24किमी) की दूरी को शरीयत ने माना है सफर

           रोजा इस्लाम की अहम इबादतों में एक है। लेकिन अल्लाह ने अपने बंदों की सहूलत को ध्यान में रखते हुए कुछ हालात में रोजा छोडऩे की इजाजत दी हुई है। इन्हीं में से एक हालत है सफर। सफर की हालत में रोजा छोडऩे की इजाजत है लेकिन वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है। इस मसले में यह भी शर्त है कि वह सफर इतने फासले का हो कि शरीयत उसे सफर मानती हो, तभी यह सुविधा हासिल होगी। 



Body:सफर में रोजा छोडऩे की इजाजत, वापसी पर होगी कजा

-48मील (77.24किमी) की दूरी को शरीयत ने माना है सफर

           रोजा इस्लाम की अहम इबादतों में एक है। लेकिन अल्लाह ने अपने बंदों की सहूलत को ध्यान में रखते हुए कुछ हालात में रोजा छोडऩे की इजाजत दी हुई है। इन्हीं में से एक हालत है सफर। सफर की हालत में रोजा छोडऩे की इजाजत है लेकिन वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है। इस मसले में यह भी शर्त है कि वह सफर इतने फासले का हो कि शरीयत उसे सफर मानती हो, तभी यह सुविधा हासिल होगी। 

पुस्तक किफायतुल मुफ्ती के मुताबिक सफर की हालत में नमाज (कसर) आधी हो जाती है, लेकिन रोजा पूरा छोड़ा जा सकता है। अलबत्ता वापसी के बाद रोजे की कजा लाजिम है। जब इस बारे में इस्लामिक शिक्षक मुफ़्ती शाकिर कासमी से बात की गई तो उन्होंने बताया कि इस्लाम के मुताबिक शरई सफर की शर्त 48 मील है। इससे कम सफर पर अतलाक (मान्य) नहीं होगा। 48 मील अंग्रेजी में 77.24 किमी होता है। पुस्तक मआरिफुल कुरान के अनुसार सफर के दौरान अगर किसी जगह पर 15दिन से कम ठहरना है तो यह दिन सफर में शुमार होंगे लेकिन अगर नीयत 15 दिन या उससे ज्यादा की है तो वह शख्स मुसाफिर नहीं रहा बल्कि मुकीम बन गया इसलिए उसके लिए रोजे रखना जरूरी है लेकिन यदि कोई व्यक्ति लगातार सफर में है, कुछ दिन ठहरता है और आगे बढ़ जाता है और किसी जगह 15 दिन लगातार नहीं ठहरता है तो ऐसा व्यक्ति मुसाफिर समझा जाएगा, चाहे कितने ही दिन क्यों न गुजर जाए। ऐसे में एक दिन का सफर भी सफर ही माना जाएगा और रोजा छोडऩे की इजाजत होगी। पुस्तक आहसनुल फतावा के मुताबिक यदि कोई शख्स सादिक (सूरज निकलने) से पहले सफर के लिए निकल पड़े तो उसके लिए रोजा छोडऩा दुरुस्त है लेकिन यदि कोई व्यक्ति सुबह सादिक के बाद सफर पर निकले तो उसे इस दिन का रोजा रखना चाहिए लेकिन यदि उसने सफर शुरू करने से पहले रोजा तोड़ डाला तो इसकी कजा होगी कफ्फारा नहीं होगा।

बाईट मुफ़्ती शाकिर कासमी
इस्लामिक विद्वान



यदि आप रमजान के महीने में सफर कर रहे हो तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें :-

सफर कैसा भी हो चाहे जायज हो नाजायज, दुश्वारियों से भरा हो या फिर आसान, पैदल हो या सवारी, रेल का हो या फिर कार का या फिर हवाई जहाज का ही क्यों न हो, हर हालत में मुसाफिर के लिए रोजा न रखने की गुंजाइश है लेकिन बेहतर यह है कि सफर की हालत में रोजा कजा न करें। कुरान पाक में कहा गया है कि यदि तुम रोजा रखो तो यह तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह रोजा रखकर सफर कर सकता है या नहीं। फतावा दारुल उलूम के अनुसार बेहतर यही होगा की रमजान की फजीलत हासिल करने के लिए रोजा रखा जाए, यदि सेहर व इफतार की सहुलत न हो तो रोजा कजा करने में कोई हर्ज नहीं है।




Conclusion:बलवीर सैनी
देवबन्द सहारनपुर
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Last Updated : Sep 17, 2020, 4:21 PM IST
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