रायबरेली: जिले का किसान आंदोलन अंग्रेजों के जुल्म और सितम के काले अध्याय के विरुद्ध भारतीय किसानों के बलिदान की अमिट गाथा, जिसे मुंशीगंज गोलीकांड का नाम दिया गया. उस शहादत के सात जनवरी को सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं. अंग्रेजी शासन के हुक्म से सभा में मौजूद सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर किसानों पर पुलिस बलों द्वारा गोलियों की बौछार कर दी गई. इसके बाद सई नदी की धारा किसानों के खून से रक्त रंजित हो उठी. राष्ट्र के लिए सैकड़ों किसानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. उस अदम्य साहस और शौर्य की अमर गाथा. पेश है ईटीवी भारत की यह स्पेशल रिपोर्ट...
मुंशीगंज शहीद स्मारक के सौ साल किसानों ने लिखी थी अजर अमर की गाथारायबरेली के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उत्तराधिकारी संगठन के प्रभारी और अध्यक्ष अनिल मिश्रा कहते हैं कि मुंशीगंज गोलीकांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐतिहासिक परिस्थितियों की वह अंगड़ाई थी ,जिसे सई का जल और सैकड़ों किसानों का तर्पण प्राप्त हुआ. इसलिए यह कांड उस काल से ही जंगे आजादी की अजर अमर गाथा बन गया.किसान आंदोलन अंग्रेजों के जुल्म और सितम के काले अध्याय के विरुद्ध भारतीय किसानों के बलिदान की अमिट गाथा, जिसे मुंशीगंज गोलीकांड का नाम दिया गया. 7 जनवरी 1921 का वो काला दिन था रायबरेली शहर के एक क्षोर पर स्थित मुंशीगंज कस्बा सई नदी के तट पर बसा है. पांच जनवरी 1921 को किसान तत्कालीन कांग्रेस शासकों के अत्याचारों से तंग आकर, अमोल शर्मा और बाबा जानकी दास के नेतृत्व में एक जनसभा कर रहे थे. दूर-दूर के गांव के किसान भी सभा में भाग लेने के लिए आए थे. इस जनसभा को असफल करने के मकसद से तालुकेदार ने तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर एजी शेरिफ से मिलकर दोनों नेताओं को गिरफ्तार करवा कर लखनऊ जेल भिजवा दिया. अंग्रेजी शासन के हुक्म से सभा में मौजूद सैकड़ों निहत्थे और बेकसूर किसानों पर पुलिस बलों द्वारा गोलियों की बौछार कर दी गई. दोनों नेताओं की गिरफ्तारी के अगले दिन रायबरेली में लोगों के बीच तेजी से यह खबर फैल गई कि लखनऊ के जेल प्रशासन द्वारा दोनों नेताओं की हत्या करवा दी गई है. इसके चलते 7 जनवरी 1921 को रायबरेली के मुंशीगंज में सई नदी के तट पर अपने नेताओं के समर्थन में एक विशाल जनसमूह एकत्रित होने लगा. किसानों के भारी विरोध को देखते हुए नदी किनारे बड़ी मात्रा में पुलिस बल तैनात कर दिया गया था.
राष्ट्र के लिए सैकड़ों किसानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी. मुंशीगंज नहीं पहुंच पाएं थे जवाहर लाल नेहरु रायबरेली में उपजे हालात की गंभीरता को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने भी मुंशीगंज का रुख किया,लेकिन पहुंचने से पहले ही उन्हें कलेक्ट्रेट परिसर के नज़दीक ही उन्हें रोक दिया गया. अंग्रेजी शासन ने सभा में मौजूद किसानों पर पुलिस बलों द्वारा गोलियों की बौछार करा दी, जिसके बाद सई नदी की धारा किसानों के खून से लाल हो गई. सात सौ पचास से ज्यादा किसान इस नरसंहार में मारे गए थे और पन्द्रह सौ से ज्यादा हताहत हुए थे.रायबरेली में उपजे हालात की गंभीरता को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने भी मुंशीगंज का रुख किया,लेकिन पहुंचने से पहले ही उन्हें कलेक्ट्रेट परिसर के नज़दीक ही उन्हें रोक दिया गया. मुंशीगंज गोलीकांड ने बदली जंगे आज़ादी की दिशा और दशा रायबरेली के राजनीतिक जानकार विजय विद्रोही कहते हैं कि मुंशीगंज गोलीकांड कई मायनों में बेहद खास है. इसकी तुलना अन्य किसी आंदोलन से करना भी उचित नहीं होगा. हालांकि यह बात सही है कि मुंशीगंज गोलीकांड को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में वह दर्जा नहीं मिल सका, जिसका यह हकदार रहा, लेकिन जंगे आज़ादी की दिशा और दशा बदलने में यह जरुर कामयाब रहा. मुंशीगंज गोली कांड का ही नतीजा रहा कि गुलामी के खिलाफ अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूंक चुकी कांग्रेस सिर्फ तालुकेदार और ज़मींदारों तक सीमित न रहकर अन्नदाता और मजदूरों की पार्टी का रूप ले चुकी थी. यही आंदोलन रहा जिसके कारण स्वाधीनता संग्राम में आम जनमानस की सहभागिता बढ़ी और आगे चलकर 1947 में स्वाधीनता का लक्ष्य प्राप्ति पूरा हो सका.