प्रयागराज: संगमनगरी में सावन के आखिरी सोमवार को गहरेबाजी (घोड़ा गाड़ी की दौड़) हुई, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया. गौरतलब है कि सावन के महीने में प्रयागराज की धरती पर 'गहरेबाजी' कई दशकों से पुराने ऐतिहासिक परंपराओं में शुमार है.
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#WATCH | Uttar Pradesh: The traditional horsecart race of Prayagraj, 'Gahrebazi' was organised in the city yesterday on the last Monday of Sawan month. pic.twitter.com/AeaOV5LM6M
— ANI UP/Uttarakhand (@ANINewsUP) August 9, 2022 " class="align-text-top noRightClick twitterSection" data="
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गहरेबाजी को आगे बढ़ाने में सहयोग करनेवाले प्रयाग के तीर्थ पुरोहित मधुचहका बताते हैं कि परंपरा और जुनून से जुड़े गहरेबाजी का इतिहास राजा और महाराजाओं के दौर से चला आ रहा है. प्रयाग का पुरोहित समाज इसे महाराजा हर्षवर्धन के जमाने से चली आ रही परंपरा बताता है. मधुचहकाजी बताते हैं कि राजा हर्षवर्धन खुद इस परंपरा का आयोजन कराते थे और खुद राजघराने के घोड़ों को मैदान में उतारते थे.
दारागंज के रहने वाले राम कुमार पंडा बताते हैं कि यह परंपरा सदियों पुरानी है, पुराने जमाने में तीर्थ पुरोहितों को सावन के महीने में राजा महाराजाओं को संगम स्नान कराकर शिव मंदिरों में भोले बाबा का दर्शन पूजन कराते थे. तो कई बार ऐसा होता था कि पुरोहितों को दक्षिणा स्वरूप घोड़े दान में मिला करते थे. नीरज पंडा बताते हैं कि उनके घर के कई बड़े बुजुर्ग बताया करते थे,कि राजा हर्षवर्धन को देखने के बाद से देश भर से आने वाले राजा महाराजा घोड़े दान में दे कर चले जाया करते थे.
गहरेबाजी संघ के अध्यक्ष राजीव भारद्वाज उर्फ बब्बन महाराज ने बताया कि इस प्राचीन परंपरा का महत्व है, कि सावन के महीने में प्रयाग के पुराने शहर मालवीय नगर, अहियापुर, कीडगंज और दारागंज में रहने वाले पुरोहित घोड़ा, बग्घी, इक्का से संगम का जल शिवकुटी कोटेश्वर मंदिर जाने जाते थे, जो परंपरा अभी भी निर्वहन हो रही है. हालांकि अब ज्यादातर लोग गाड़ी और वाहनों से जा रहे हैं. लेकिन बब्बन भैया बताते हैं कि अभी भी उनके पास तांगा है और वह प्रयास करते हैं कि सावन में उसकी सवारी करें.
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