प्रयागराज : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत वाराणसी बस स्टैंड में 90 फीसदी बनकर तैयार जन शौचालय के निर्माण पर रोक लगाने को गंभीरता से लिया है. कहा कि नगर निगम और परिवहन निगम के बीच करार के तहत याची फर्म ने शौचालय की निर्माण लगभग पूरा कर लिया तो अधिकारियों ने काम रोक दिया. निर्माण की अनुमति विभागीय नीति के खिलाफ है. जिस अधिकारी ने अनुमति दी, उसे ऐसा करने का अधिकार ही नहीं था.
शौचालय फर्म को अपने पैसे से बनाकर उसे 30 साल संचालित करने के बाद नगर निगम को स्थानांतरित कर देना था. अब पैसा डूबता नजर आ रहा. इस विषय पर अधिकारियों ने पल्ला झाड़ लिया है. कोर्ट ने परिवहन निगम के प्रबंध निदेशक को निर्माण कार्य करने वाली फर्म याची के साथ बैठकर दो हफ्ते में हल निकालने का निर्देश दिया है. कहा कि प्रबंध निदेशक व्यक्तिगत हलफनामे के मार्फत अपना प्रस्ताव दाखिल करें. याचिका की सुनवाई 25 मई को होगी. यह आदेश न्यायमूर्ति एम.के गुप्ता (Justice MK Gupta) तथा न्यायमूर्ति दिनेश पाठक (Justice Dinesh Pathak) की खंडपीठ ने मेसर्स अजय प्रताप और अन्य की याचिका पर दी है.
याचिका पर अधिवक्ता संजय कुमार यादव, नगर निगम वाराणसी के अधिवक्ता बिपिन बिहारी पांडेय और परिवहन निगम के अधिवक्ता विवेक सरन ने बहस की. कोर्ट ने कहा इस केस से पता चलता है कि दो लोक प्राधिकारी किस तरह से काम करते हैं. याची को नगर निगम वाराणसी 21 जून 16 को शहर में कई स्थानों पर पब्लिक शौचालय बनाने का ठेका दिया. उद्देश्य था कि नागरिकों और आगंतुकों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराई जाएं. याची को अपने खर्चे पर शौचालय निर्माण, संचालन और रखरखाव करने और 30 साल बाद नगर निगम को सौंप देने का करार किया गया.
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27 दिसंबर 16 को अपर नगर आयुक्त ने क्षेत्रीय प्रबंधक परिवहन निगम वाराणसी को बस स्टैंड के भीतर शौचालय निर्माण के लिए पत्र लिखा. 31 दिसंबर को अनुमोदित हो गया. शर्त थी कि निर्माण स्वीकृत नक्शे के अनुसार होगा और यूरिनल की सुविधा नि:शुल्क होगी. निर्माण शुरू हुआ और 90 फीसदी पूरा ही हुआ था कि मौखिक आदेश से 31 मई 17 को निर्माण रोक दिया गया. नगर निगम ने परिवहन निगम को सारे तथ्य सहित 20 लाख के खर्च की जानकारी दी और निर्माण पूरा करने की अनुमति मांगी. सुनवाई न होने पर यह याचिका दायर की गई.
कोर्ट ने परिवहन निगम से जवाब मांगा तो बताया कि क्षेत्रीय प्रबंधक को 30 साल के लिए अनुमति देने का अधिकार ही नहीं है. नीतिगत निर्णय अनुसार केवल पांच वर्ष के लिए ही अनुमति दी जा सकती है. कोर्ट ने कहा कि हलफनामे में यह नहीं बताया गया कि क्षेत्रीय प्रबंधक पर क्या कार्रवाई की गई.
याची का कहना है कि उसने बीस लाख खर्च कर दिए. या तो निर्माण पूरा करने दें या ब्याज सहित खर्च राशि वापस करें. कोर्ट ने कहा कि दोनों निगमों में हल निकालने का कोई प्रयास नहीं किया. भारी धन की बर्बादी हुई और जनहित भी पूरा नहीं हुआ. इसलिए बीच का रास्ता निकाला जाय.
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