चंदौली: डीडीयू रेल मंडल में तैनात लोको पायलट रमेश प्रसाद ने कोरोना पर एक कविता लिखी है. यह कविता कोरोना वायरस जैसी महामारी से लड़ाई को परिभाषित करती है. साथ ही इस संकट की घड़ी में एक लोको पायलट अपने कर्तव्य पथ अडिग है. कविता का शीर्षक है 'कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है'
'कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है'
गति थम सी गई धरा की, रातें मानो खींच गई,
मानवता के अश्रुधार से, धरती मानो सींच गई.
इस संकट में भी सीमापर, उनकी देखें यह हिम्मत,
हम क्या कभी चुका सकते हैं, इनके त्यागों की कीमत.
कई युद्ध जीते हम मिलकर, ‘कारगिल’ तो एक नमूना है,
हम डटे यहां हैं ताल ठोक, क्या कर सकता तुच्छ कोरोना है.
समय नहीं वह दूर, जब वह अपना शीश झुकाएगा,
मेरे लहू की गर्मी से, वह त्राहिमाम् चिल्लाएगा.
ऐसे ही वीर जवानों के बल पर भारत में दिवाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
नीज सांसों को मंदन दे, जो रूग्णों का सांस चलाते हैं,
रोग मुक्त हो जाने पर जो, मन ही मन मुस्काते हैं.
छिपा हुआ है जिनके हिय में परमपिता का आशीर्वाद,
लगे हाथ चंगा हो जाए, जीवन हो जाए आबाद.
हैं देवदूत ये, इनके मन में जात-पात,रंग-भेद नहीं,
लगे ठहाके औ’ किलकारी, इनके जीवन का उद्देश्य यही.
इन पर आंखें तिरछी करना, काम नहीं इंसानों का,
करे कर्म ऐसा जो इनसे, वो घृणित काम शैतानों का.
ऐसे फरिश्तों के बल पर ही गूंज रहा किलकारी है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
जो संडकें थी अस्त-व्यस्त, वह जनहीन से वीरान पड़े,
फिर भी इन निर्जन राहों पर, बहु वीर-धीर निर्भीक खड़े.
दे रहे नसीहत हर जन को, निज घर से नहीं निकलने का,
यही अदृश्य अस्त्र है अपना, कोरोना से लङने का.
संयम, धैर्य, उत्साह रखें, इस त्रासदी को हमें मिटाना है,
बिना अस्त्र-शस्त्र वाले इस रण में, स्वयं को विजयी बनाना है.
यह गजब का क्रीडा है, जो घर में समय बिताएगा,
प्रथम इनाम के बदले में, वह लंबा जीवन पाएगा.
इन्हीं रक्षकों के हिम्मत पर फैल रही खुशहाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
फसल नहीं कट पाया, देख किस तरह खेत मुरझा रहा,
जीवन बच जाये या जाए, लेश मात्र परवाह कहां.
नहीं नकाब में मुंह छिपाए, इनका चेहरा गिरा हुआ,
बाहर से अत्यंत कठोर, पर इनका हृदय पिघला हुआ.
वे बोले तू तीनों खा जा, दो से मैं काम चला लूंगा,
जीवन अगर बचेगा तो मैं, लोहडी फिर मना लूंगा.
बड़े-बड़े आंधी देखे हैं, और तूफान भी झेला है,
कोरोना तू भी हो जाएगा, तेरा चार दिनों का मेला है.
ऐसे ही कर्मयोद्धा के बल धरती पर हरियाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
रेलगाड़ियां चला रहें जो, जन-जन में गति देने को,
अपनों का परवाह किए बिन, मानवता को सेने को.
कर्म-शपथ जो लिया था हमने, आज भी उसे निभाना है,
संकट में है आज देश, हमें इससे त्राण दिलाना है.
कर्म योद्धा हूं, कर्मवीर हूं, आहुति स्वयं दे जाऊंगा,
पर अकर्मण्यता के सम्मुख, शीश कभी ना झुकाऊंगा.
जो अवसर की ताक में रहते, जीवन में कुछ करने को,
सुयोग खड़ा है उनके सम्मुख, एक मसीहा बनने को.
ऐसे ही वीर सपूतों के बल, इस देश की छटा निराली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
हे! अर्जुन गांडीव उठा, कोरोना का संहार करो,
सुखमय जीवन बीते सभी का, इस जग का कल्याण करो.
जो योद्धा अर्पित हैं, परिजन के प्राण बचाने को,
स्वजन का परवाह किए बिन, रणक्षेत्र में जाने को.
आंखों से बहते जो अविरल, क्या वे अश्रुधार नहीं,
सच कहूं ये आंसू हैं, कोई छद्म व्यापार नहीं.
देख! ‘आपदा’ सच कहता हूं, तू इसमें बह जाएगा,
‘हम’ में कितनी शक्ति है? थाह नहीं तू पाएगा.
पर उपकार की भावना जिनमें उनकी बात निराली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
चंदौली: डीडीयू मंडल के लोको पायलट ने कोरोना पर लिखी कविता - ramesh prasad wrote poem on corona virus
यूपी के चंदौली में लोको पायलट रमेश प्रसाद ने कोरोना एक कविता लिखी है. इस कविता का शीर्षक है 'कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है'.
चंदौली: डीडीयू रेल मंडल में तैनात लोको पायलट रमेश प्रसाद ने कोरोना पर एक कविता लिखी है. यह कविता कोरोना वायरस जैसी महामारी से लड़ाई को परिभाषित करती है. साथ ही इस संकट की घड़ी में एक लोको पायलट अपने कर्तव्य पथ अडिग है. कविता का शीर्षक है 'कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है'
'कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है'
गति थम सी गई धरा की, रातें मानो खींच गई,
मानवता के अश्रुधार से, धरती मानो सींच गई.
इस संकट में भी सीमापर, उनकी देखें यह हिम्मत,
हम क्या कभी चुका सकते हैं, इनके त्यागों की कीमत.
कई युद्ध जीते हम मिलकर, ‘कारगिल’ तो एक नमूना है,
हम डटे यहां हैं ताल ठोक, क्या कर सकता तुच्छ कोरोना है.
समय नहीं वह दूर, जब वह अपना शीश झुकाएगा,
मेरे लहू की गर्मी से, वह त्राहिमाम् चिल्लाएगा.
ऐसे ही वीर जवानों के बल पर भारत में दिवाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
नीज सांसों को मंदन दे, जो रूग्णों का सांस चलाते हैं,
रोग मुक्त हो जाने पर जो, मन ही मन मुस्काते हैं.
छिपा हुआ है जिनके हिय में परमपिता का आशीर्वाद,
लगे हाथ चंगा हो जाए, जीवन हो जाए आबाद.
हैं देवदूत ये, इनके मन में जात-पात,रंग-भेद नहीं,
लगे ठहाके औ’ किलकारी, इनके जीवन का उद्देश्य यही.
इन पर आंखें तिरछी करना, काम नहीं इंसानों का,
करे कर्म ऐसा जो इनसे, वो घृणित काम शैतानों का.
ऐसे फरिश्तों के बल पर ही गूंज रहा किलकारी है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
जो संडकें थी अस्त-व्यस्त, वह जनहीन से वीरान पड़े,
फिर भी इन निर्जन राहों पर, बहु वीर-धीर निर्भीक खड़े.
दे रहे नसीहत हर जन को, निज घर से नहीं निकलने का,
यही अदृश्य अस्त्र है अपना, कोरोना से लङने का.
संयम, धैर्य, उत्साह रखें, इस त्रासदी को हमें मिटाना है,
बिना अस्त्र-शस्त्र वाले इस रण में, स्वयं को विजयी बनाना है.
यह गजब का क्रीडा है, जो घर में समय बिताएगा,
प्रथम इनाम के बदले में, वह लंबा जीवन पाएगा.
इन्हीं रक्षकों के हिम्मत पर फैल रही खुशहाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
फसल नहीं कट पाया, देख किस तरह खेत मुरझा रहा,
जीवन बच जाये या जाए, लेश मात्र परवाह कहां.
नहीं नकाब में मुंह छिपाए, इनका चेहरा गिरा हुआ,
बाहर से अत्यंत कठोर, पर इनका हृदय पिघला हुआ.
वे बोले तू तीनों खा जा, दो से मैं काम चला लूंगा,
जीवन अगर बचेगा तो मैं, लोहडी फिर मना लूंगा.
बड़े-बड़े आंधी देखे हैं, और तूफान भी झेला है,
कोरोना तू भी हो जाएगा, तेरा चार दिनों का मेला है.
ऐसे ही कर्मयोद्धा के बल धरती पर हरियाली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
रेलगाड़ियां चला रहें जो, जन-जन में गति देने को,
अपनों का परवाह किए बिन, मानवता को सेने को.
कर्म-शपथ जो लिया था हमने, आज भी उसे निभाना है,
संकट में है आज देश, हमें इससे त्राण दिलाना है.
कर्म योद्धा हूं, कर्मवीर हूं, आहुति स्वयं दे जाऊंगा,
पर अकर्मण्यता के सम्मुख, शीश कभी ना झुकाऊंगा.
जो अवसर की ताक में रहते, जीवन में कुछ करने को,
सुयोग खड़ा है उनके सम्मुख, एक मसीहा बनने को.
ऐसे ही वीर सपूतों के बल, इस देश की छटा निराली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?
हे! अर्जुन गांडीव उठा, कोरोना का संहार करो,
सुखमय जीवन बीते सभी का, इस जग का कल्याण करो.
जो योद्धा अर्पित हैं, परिजन के प्राण बचाने को,
स्वजन का परवाह किए बिन, रणक्षेत्र में जाने को.
आंखों से बहते जो अविरल, क्या वे अश्रुधार नहीं,
सच कहूं ये आंसू हैं, कोई छद्म व्यापार नहीं.
देख! ‘आपदा’ सच कहता हूं, तू इसमें बह जाएगा,
‘हम’ में कितनी शक्ति है? थाह नहीं तू पाएगा.
पर उपकार की भावना जिनमें उनकी बात निराली है,
कौन कहता है यह वसुंधरा शूरवीरों से खाली है?