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छोटी सी कमाई से खरीदी ढाई बीघा जमीन, दान देकर बन गए बेसहारा बुजुर्गों का सहारा

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Published : Jan 23, 2021, 12:46 PM IST

मुरादाबाद में शाहबाद रोड पर सीट कवर सिलने और गाड़ियों की रिपेरिंग की एक छोटी सी दुकान चलाने वाले पूरन मौर्य लोगों के लिए प्रेरणा बने हुए है. इन्होंने दिन-रात की मेहनत से पाई-पाई जोड़कर खरीदी गई अपनी 2.5 बीघा जमीन को सामाजिक कार्य के लिए दान कर दी है.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

मुरादाबाद : कहते हैं जहां चाह हो, वहां राह, खुद-ब-खुद बन जाती है. फिर किसी काम को करने के लिए आपकी आमदनी मायने नहीं रखती, बस चाहिए होता है बड़ा दिल. जिससे आप कुछ बड़ा कर जाते हैं, जो समाज के तमाम लोगों के लिए उदाहरण बनता है. कुछ ऐसी ही कहानी है, मुरादाबाद के बिलारी में वृद्धाश्रम चलाने वाले रोहन सामाजिक और पूरन मौर्य की. पूरन मौर्य भले ही एक छोटी सी दुकान चलाते हों लेकिन लोकसेवा के लिए इनका बड़ा दिल और दान देखकर बड़े-बड़े दानियों को प्रेरणा मिलती है. वहीं, रोहन ने तो अपनी पूरी जिंदगी ही असहाय और निराश्रित बुज़ुर्गों के नाम कर दी है.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

क्या है पूरन मौर्य की कहानी
बिलारी में महाराणा प्रताप चौक के पास शाहबाद रोड पर एक छोटी सी दुकान है. जहां पर पूरन सिंह मौर्य सीट कवर सिलने और गाड़ियों की रिपेरिंग का काम करते हैं. यह दुकान आजकल चर्चा के केंद्र में है. पूरन मौर्य भले ही अपने परिवार के भरण पोषण के कम पैसे जोड़ पाते हों, लेकिन उन्होंने पाई-पाई जोड़कर खरीदी गई अपनी 2.5 बीघा जमीन को सामाजिक कार्य के लिए दान कर दी. अब बिलारी के ग्वारखेड़ा गांव में इनके जमीन पर पांच कमरों से युक्त असहाय बुजुर्गों का आशियाना है. जिसे लोग वृद्धाश्रम के नाम से जानते हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट.

कैसे मिली यह प्रेरणा
पूरन सिंह मौर्य भले ही एक सीमित संसाधन के जरिए अपना जीवन यापन कर रहे हों. वह गाड़ियों के सीट कवर सिलकर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हों, लेकिन उनका दिल बहुत बड़ा है. 40 वर्षीय पूरन बताते हैं कि मुझसे सड़क पर भटकते असहाय बुजर्गों का दर्द नहीं देखा गया. मैंने भले ही अपनी मेहनत की कमाई से इस जमीन को खरीदा था. लेकिन जब समाज में ठोकर खाते बुजुर्गों को देखा तो मन में कुछ करने का जज़्बा खुद ही पैदा हो गया. मैंने ठान लिया कि कुछ बेहतर करके इन्हें सम्मान दिया जाएगा.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

पूरन मौर्य बताते हैं कि इस काम में मेरे प्रेरणा स्त्रोत बने रोहन मौर्य सामाजिक. जो पहले से ही बिलारी शहर में एक वृद्धाश्रम चलाते थे. जब उनके आश्रम में असहाय बुज़ुर्गों के लिए जगह कम पड़ने लगी तो वह जमीन खोज रहे थे, लेकिन इतने पैसे नहीं थे. वह मेरे पास आए तो मैंने कहा कि कोई न कोई रास्ता निकलेगा. इसके बाद मैंने परिवार में मंत्रणा की तो सभी इस बात के लिए राज़ी हो गए कि जमीन संस्था के नाम कर दी जाए. पूरन मौर्य ने कहा कि समाज में तमाम ऐसे लोग हैं, जो अपनी छोटी कमाई के बावजूद भी अपना बहुत कुछ न्यौछावर कर दिया करते हैं. मैंने तो बस इन बुजुर्ग, गरीब और असहाय लोगों के लिए अपनी जमीन दान की है. उन्होंने कहा कि रोहन मौर्य और उनकी पूरी टीम का काम बेहद सराहनीय है, जिससे मुझे भी प्रेरणा मिलती है.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
क्या है रोहन मौर्य की कहानीग्वारखेड़ा गांव की आबादी तकरीबन दो हजार होगी, यहां पर मुख्य व्यवसाय खेती किसानी है. ज़्यादातर लोग जो पढ़े लिखे हैं, वह बाहर नौकरी करते हैं. वहीं बैंगलोर से फार्मेसी की डिग्री हासिल करने वाले रोहन (32) सन 2011 से असहाय बुज़ुर्गों के लिए आशियाना बनाने में जुटे हुए हैं. जिसमें इन्होंने बड़ी सफलता हासिल की है. रोहन मौर्य ने सामाजिक आश्रय मानव सेवा संसाधन आश्रम की स्थापना में न केवल अपना पूरा जीवन लगा दिया. बल्कि आज उसे एक नए आयाम तक पहुंचा चुके हैं. रोहन पूरे दिन बुजुर्गों की सेवा के काम में लगे रहते हैं. जब वह बैंगलोर से फार्मेसी करके आए थे, तो उनके पास बेहतर जीवन और नौकरी के कई ऑफर थे. लेकिन उन्होंने बुजुर्गों की सेवा का काम चुना.

अपना सब कुछ लगा दिया
रोहन मौर्य बताते हैं कि इस काम में उन्होंने सब कुछ लगा दिया. उन्होंने बताया कि जब मैं छोटा था, तब से सेवा के काम में लगा हुआ हूं. फिर जब कॉलेज से पास होकर निकला तो नौकरी के अच्छे ऑफर और वह तमाम सुविधाएं मिल सकती थीं, जिससे बेहतर जीवन जी सकता था. लेकिन मैंने बुजुर्गों की सेवा में खुद को अर्पित करने की योजना बनाई. जिसके बाद वृद्धाश्रम की शुरुआत 2014 में बिलारी कस्बे में एक किराए के मकान से की. तब वहां पर 15-20 बुजुर्ग एक साथ रहा करते थे. फिर धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी तो अधिक जगह की आवश्यकता पड़ी. हमने एक कमरा और किराए पर लिया, लेकिन फिर भी जगह कम ही पड़ती थी.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

उन्होंने बताया कि हम लोग योजना बना ही रहे थे कि 2018 में पूरन मौर्य से मुलाकात हुई. हमने उन्हें समस्या बताई तो उन्होंने मदद करने की ठानी. ग्वारखेड़ा में ही पूरन मौर्य की ढाई बीघा जमीन थी, जिसे उन्होंने वृद्ध आश्रम के लिए दान कर दी. दो साल तक लगातार लोग मदद करते रहे और भवन बनकर तैयार हो गया. अभी यहां पर 9 बुजुर्ग रहते हैं, जिनमें से 3 महिलाएं भी हैं. हम लोग लगातार ऐसे बुजुर्गों की मदद करते हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है.

सैंकड़ों बुज़ुर्गों को दी मंज़िल
रोहन बताते हैं, इन गरीबों के देखभाल के साथ-साथ हम लोग ऐसे बुजुर्गों को उनके घर पहुंचाने का काम भी करते हैं, जो लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए हैं या कहीं भटक जाया करते हैं. ऐसे सैकड़ों बुजुर्गों को हम लोगों ने अपनी कोशिश के जरिए उनके घरों तक पहुंचाया है.

बुज़ुर्ग करते हैं तारीफ, देते हैं दुआएं
यहां पर रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि उन्हें वह तमाम सुविधाएं मिलती हैं, जिसकी उन्हें आवश्यकता है. मसलन, दवाई, कपड़े, भोजन इत्यादि की व्यवस्था सामाजिक मानव सेवा संस्थान करता है. यहां पर न तो खाने की परेशानी है और न ही रहने की. बुजुर्गों ने बताया कि जब उनके अपनों ने उन्हें ठुकरा दिया तो वह किसी तरह यहां पर आ गए. वह जब से यहां पर आए हैं, तब से घर जैसी सुविधाएं मिलती हैं. इतना ख्याल तो उनके घर में कोई नहीं रखता, जितना यहां पर रखा जाता है.

प्रेरणा देती है यह कहानी
कुल मिलाकर सेवाभावना के लिए न तो बहुत ज्यादा पैसे की जरूरत होती है. न ही किसी बहुत बड़े सपोर्ट की. बस चाहिए होता है तो केवल जज्बा और बड़ा दिल. जो दानवीर पूरन मौर्य और कर्मवीर रोहन मौर्य सामाजिक के पास है. यह दोनों अपने कार्यों की वजह से न केवल आज समाज में सराहना पाते हैं. बल्कि इनके जज्बे और सेवा भावना के कारण सैकड़ों की संख्या में बुजुर्गों को मदद भी मिली है.

मुरादाबाद : कहते हैं जहां चाह हो, वहां राह, खुद-ब-खुद बन जाती है. फिर किसी काम को करने के लिए आपकी आमदनी मायने नहीं रखती, बस चाहिए होता है बड़ा दिल. जिससे आप कुछ बड़ा कर जाते हैं, जो समाज के तमाम लोगों के लिए उदाहरण बनता है. कुछ ऐसी ही कहानी है, मुरादाबाद के बिलारी में वृद्धाश्रम चलाने वाले रोहन सामाजिक और पूरन मौर्य की. पूरन मौर्य भले ही एक छोटी सी दुकान चलाते हों लेकिन लोकसेवा के लिए इनका बड़ा दिल और दान देखकर बड़े-बड़े दानियों को प्रेरणा मिलती है. वहीं, रोहन ने तो अपनी पूरी जिंदगी ही असहाय और निराश्रित बुज़ुर्गों के नाम कर दी है.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

क्या है पूरन मौर्य की कहानी
बिलारी में महाराणा प्रताप चौक के पास शाहबाद रोड पर एक छोटी सी दुकान है. जहां पर पूरन सिंह मौर्य सीट कवर सिलने और गाड़ियों की रिपेरिंग का काम करते हैं. यह दुकान आजकल चर्चा के केंद्र में है. पूरन मौर्य भले ही अपने परिवार के भरण पोषण के कम पैसे जोड़ पाते हों, लेकिन उन्होंने पाई-पाई जोड़कर खरीदी गई अपनी 2.5 बीघा जमीन को सामाजिक कार्य के लिए दान कर दी. अब बिलारी के ग्वारखेड़ा गांव में इनके जमीन पर पांच कमरों से युक्त असहाय बुजुर्गों का आशियाना है. जिसे लोग वृद्धाश्रम के नाम से जानते हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट.

कैसे मिली यह प्रेरणा
पूरन सिंह मौर्य भले ही एक सीमित संसाधन के जरिए अपना जीवन यापन कर रहे हों. वह गाड़ियों के सीट कवर सिलकर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हों, लेकिन उनका दिल बहुत बड़ा है. 40 वर्षीय पूरन बताते हैं कि मुझसे सड़क पर भटकते असहाय बुजर्गों का दर्द नहीं देखा गया. मैंने भले ही अपनी मेहनत की कमाई से इस जमीन को खरीदा था. लेकिन जब समाज में ठोकर खाते बुजुर्गों को देखा तो मन में कुछ करने का जज़्बा खुद ही पैदा हो गया. मैंने ठान लिया कि कुछ बेहतर करके इन्हें सम्मान दिया जाएगा.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

पूरन मौर्य बताते हैं कि इस काम में मेरे प्रेरणा स्त्रोत बने रोहन मौर्य सामाजिक. जो पहले से ही बिलारी शहर में एक वृद्धाश्रम चलाते थे. जब उनके आश्रम में असहाय बुज़ुर्गों के लिए जगह कम पड़ने लगी तो वह जमीन खोज रहे थे, लेकिन इतने पैसे नहीं थे. वह मेरे पास आए तो मैंने कहा कि कोई न कोई रास्ता निकलेगा. इसके बाद मैंने परिवार में मंत्रणा की तो सभी इस बात के लिए राज़ी हो गए कि जमीन संस्था के नाम कर दी जाए. पूरन मौर्य ने कहा कि समाज में तमाम ऐसे लोग हैं, जो अपनी छोटी कमाई के बावजूद भी अपना बहुत कुछ न्यौछावर कर दिया करते हैं. मैंने तो बस इन बुजुर्ग, गरीब और असहाय लोगों के लिए अपनी जमीन दान की है. उन्होंने कहा कि रोहन मौर्य और उनकी पूरी टीम का काम बेहद सराहनीय है, जिससे मुझे भी प्रेरणा मिलती है.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
क्या है रोहन मौर्य की कहानीग्वारखेड़ा गांव की आबादी तकरीबन दो हजार होगी, यहां पर मुख्य व्यवसाय खेती किसानी है. ज़्यादातर लोग जो पढ़े लिखे हैं, वह बाहर नौकरी करते हैं. वहीं बैंगलोर से फार्मेसी की डिग्री हासिल करने वाले रोहन (32) सन 2011 से असहाय बुज़ुर्गों के लिए आशियाना बनाने में जुटे हुए हैं. जिसमें इन्होंने बड़ी सफलता हासिल की है. रोहन मौर्य ने सामाजिक आश्रय मानव सेवा संसाधन आश्रम की स्थापना में न केवल अपना पूरा जीवन लगा दिया. बल्कि आज उसे एक नए आयाम तक पहुंचा चुके हैं. रोहन पूरे दिन बुजुर्गों की सेवा के काम में लगे रहते हैं. जब वह बैंगलोर से फार्मेसी करके आए थे, तो उनके पास बेहतर जीवन और नौकरी के कई ऑफर थे. लेकिन उन्होंने बुजुर्गों की सेवा का काम चुना.

अपना सब कुछ लगा दिया
रोहन मौर्य बताते हैं कि इस काम में उन्होंने सब कुछ लगा दिया. उन्होंने बताया कि जब मैं छोटा था, तब से सेवा के काम में लगा हुआ हूं. फिर जब कॉलेज से पास होकर निकला तो नौकरी के अच्छे ऑफर और वह तमाम सुविधाएं मिल सकती थीं, जिससे बेहतर जीवन जी सकता था. लेकिन मैंने बुजुर्गों की सेवा में खुद को अर्पित करने की योजना बनाई. जिसके बाद वृद्धाश्रम की शुरुआत 2014 में बिलारी कस्बे में एक किराए के मकान से की. तब वहां पर 15-20 बुजुर्ग एक साथ रहा करते थे. फिर धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी तो अधिक जगह की आवश्यकता पड़ी. हमने एक कमरा और किराए पर लिया, लेकिन फिर भी जगह कम ही पड़ती थी.

बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.
बेसहारा बुजुर्गों का सहारा.

उन्होंने बताया कि हम लोग योजना बना ही रहे थे कि 2018 में पूरन मौर्य से मुलाकात हुई. हमने उन्हें समस्या बताई तो उन्होंने मदद करने की ठानी. ग्वारखेड़ा में ही पूरन मौर्य की ढाई बीघा जमीन थी, जिसे उन्होंने वृद्ध आश्रम के लिए दान कर दी. दो साल तक लगातार लोग मदद करते रहे और भवन बनकर तैयार हो गया. अभी यहां पर 9 बुजुर्ग रहते हैं, जिनमें से 3 महिलाएं भी हैं. हम लोग लगातार ऐसे बुजुर्गों की मदद करते हैं, जिनका कोई सहारा नहीं है.

सैंकड़ों बुज़ुर्गों को दी मंज़िल
रोहन बताते हैं, इन गरीबों के देखभाल के साथ-साथ हम लोग ऐसे बुजुर्गों को उनके घर पहुंचाने का काम भी करते हैं, जो लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए हैं या कहीं भटक जाया करते हैं. ऐसे सैकड़ों बुजुर्गों को हम लोगों ने अपनी कोशिश के जरिए उनके घरों तक पहुंचाया है.

बुज़ुर्ग करते हैं तारीफ, देते हैं दुआएं
यहां पर रहने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि उन्हें वह तमाम सुविधाएं मिलती हैं, जिसकी उन्हें आवश्यकता है. मसलन, दवाई, कपड़े, भोजन इत्यादि की व्यवस्था सामाजिक मानव सेवा संस्थान करता है. यहां पर न तो खाने की परेशानी है और न ही रहने की. बुजुर्गों ने बताया कि जब उनके अपनों ने उन्हें ठुकरा दिया तो वह किसी तरह यहां पर आ गए. वह जब से यहां पर आए हैं, तब से घर जैसी सुविधाएं मिलती हैं. इतना ख्याल तो उनके घर में कोई नहीं रखता, जितना यहां पर रखा जाता है.

प्रेरणा देती है यह कहानी
कुल मिलाकर सेवाभावना के लिए न तो बहुत ज्यादा पैसे की जरूरत होती है. न ही किसी बहुत बड़े सपोर्ट की. बस चाहिए होता है तो केवल जज्बा और बड़ा दिल. जो दानवीर पूरन मौर्य और कर्मवीर रोहन मौर्य सामाजिक के पास है. यह दोनों अपने कार्यों की वजह से न केवल आज समाज में सराहना पाते हैं. बल्कि इनके जज्बे और सेवा भावना के कारण सैकड़ों की संख्या में बुजुर्गों को मदद भी मिली है.

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