विदिशा: 'जब रोटी ही नहीं मिलेगी तो जिंदा कैसे रहेंगे. भूख बड़ी चीज होती है साहब..'. विदिशा जिले के आमखेड़ा गांव में रहने वाले मजदूर शायद प्रशासन से यही कह रहे हैं. भूख से बड़ी परेशानी इस दुनिया में कुछ नहीं होती. भूख ही वह चीज होती है, जिसके लिए इंसान सब कुछ करने के लिए राजी होता है.
मजदूरों के ऊपर लॉकडाउन किसी पहाड़ की तरह टूटा है. आमखेड़ा गांव में झुग्गियों के बीच पल रही जिंदगियों को न तो धूप से परहेज है और न ही दुनिया की चकाचौंध भरी जिंदगी से खुशी. इनको मतलब तो बस दो वक्त की रोटी से है, जो इन्हें नसीब नहीं हो रही है.
दो वक्त की रोटी के लिए परेशान हैं मजदूर
विदिशा-भोपाल हाईवे रोड पर बसे आमखेड़ा गांव की 400 से ज्यादा आबादी है. इस गांव में सहरिया आदिवासी वर्ग के लोग रहते हैं, जो हर दिन मजदूरी कर अपना गुजारा करते थे, लेकिन लॉकडाउन ने इनकी जिंदगी रोक दी. मजदूरी मिल नहीं रही, घर चल नहीं रहा, बच्चे भूखे हैं, जिनकी भूख मिटाना अब इनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं.
गांव का हर मासूम अब ये समझने लगा है कि इस बस्ती में चंदा मामा नहीं निकलता बल्कि उसकी कहानी ही आती है. इन मासूमों को न तो चॉकलेट चाहिए, न शहरी पोहा. बस रोटी मिल जाए, वही काफी है, लेकिन हालात तो देखो. सूखी रोटी भी अब नसीब नहीं होती.
खेत से बीन रहे गेंहू के दाने
65 साल की मुन्नी बाई के घर में 6 लोग हैं. मजदूरी करके ही घर चलता था. अब एक वक्त का खाना जुटाने के लिए खेतों में से गेहूं के दाने बीन कर लाना पड़ता है, ताकि कैसे भी रोटी मिल जाए. लेकिन खेत में गेहूं के इतने दाने भी नहीं है कि हर दिन 6 लोगों की भूख मिट जाए.
भले ही सरकारें मजदूरों के घर तक भोजन पहुंचाने के दावे कर रही हो, लेकिन आमखेड़ा की हकीकत से ये दावे धरे-के-धरे नजर आते हैं. कई लोगों के तो राशन कार्ड तक नहीं बने. मजदूर कहते हैं कि दो किलो चावल से परिवार का पेट नहीं भरता. परेशानी के इस मुश्किल दौर में गरीब की कोई नहीं सुनता.
आमखेड़ा गांव की ये मुश्किल हुक्मरानों को न दिखती है और न सुनाई देती है. आमखेड़ा तो बस एक उदाहरण है. 21वीं सदी के आधुनिक भारत में ऐसे कई और भी गांव है, जहां लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं. लेकिन न तो कोई इनकी सुनता है और न कोई इनका दर्द समझता है.