लखनऊ : उत्तर प्रदेश राज्य विधान मंडल (Uttar Pradesh State Legislature) के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 5 दिसंबर से होगी. सदन की कार्यवाही सिर्फ 3 दिन तक चलाए जाने का कैबिनेट से प्रस्ताव पास हुआ है. सदन की कार्यवाही में अनुपूरक बजट लाने को लेकर सरकार सदन की कार्यवाही संचालित करेगी, इसके अलावा अन्य जरूरी संसदीय कार्य निपटाए जाएंगे. कुछ विधयक सदन के पटल पर रखने की कार्यवाही की जाएगी. सदन की कार्यवाही के दौरान जनहित से जुड़े विषयों पर चर्चा कम होती जा रही है. सदन की कार्यवाही भी पहले की तुलना में अब काफी कम हो रही है.
दरअसल, सदन की कार्यवाही जितना अधिक चलेगी जनहित से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा चर्चा होगी. विधायक अपने क्षेत्र की समस्याओं व विकास कार्यों को लेकर सदन में याचिका लगाते हैं और उस पर बहस और कार्यवाही होती है, लेकिन पिछले करीब दो दशक से सदन की कार्यवाही लगातार कम होती जा रही है. सदन के अंदर शोर-शराबा और नकारात्मक भूमिका के कारण सदन कम चल पा रहे हैं. विपक्ष के साथ-साथ सरकार की भी कोशिश रहती है कि सदन की कार्यवाही ज्यादा दिन चलने पाए. लोकतंत्र और संवैधानिक परंपराओं के लिए बिल्कुल भी ठीक नहीं माना जाता है. संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, सदन की कार्यवाही पूरे साल में 90 दिन के लिए संचालित होनी चाहिए, लेकिन अब पूरे साल में अधिकतम 20 से 25 दिन में सदन की कार्यवाही संचालित होती है. जिससे जनहित से जुड़े मुद्दे या विकास से जुड़ी याचिकाओं पर चर्चा परिचर्चा नहीं हो पाती है.
राजनीतिक विश्लेषक मनमोहन कहते हैं कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत विधानसभा का सत्र 90 दिन का 1 वर्ष में होना चाहिए और तीन सत्र होने चाहिए. जिसके अंतर्गत बजट सत्र मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र आहूत किए जाने की परंपरा रही है, लेकिन 90 के दशक के बाद से अब तक सदन के सत्र ज्यादा चलने की परंपरा समाप्त हो रही है. उत्तर प्रदेश में सदन की संख्या कम हो रही है. सरकार पर निर्भर करता है कि सत्र कितने दिन तक चलेंगे, सदन ज्यादा चलेगा तो जनहित के मुद्दे पर चर्चा होती है. सदन में दिया गया सरकार का कोई भी बयान आश्वासन कहा जाता है. 1990 के बाद से लगातार सदन की कार्यवाही कम होती जा रही है. कभी 30 दिन कभी 25 दिन कभी 28 दिन सदन की कार्यवाही होती है. सदन की कार्यवाही जितना कम होगी, बहस और जनहित के मुद्दे पर चर्चा कम ही होगी. यह बहुत बड़ी विडंबना है.
राजनीतिक विश्लेषक मनमोहन कहते हैं कि सदन के सत्र चलाने की जिम्मेदारी सरकार के साथ-साथ विपक्ष की भी है. सरकार अब अपने हिसाब से सहूलियत से सत्र चलाती है. बजट सत्र पहले विभागवार आता था. बजट सत्र 20 दिन 25 दिन चलता था, मगर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. अब निर्धारित सत्र भी आधे दिनों में निपट जाता है. सदन के अंदर विपक्ष की जो भूमिका है सकारात्मक ना रहकर शोर-शराबा, हल्ला-गुल्ला और नकारात्मक भूमिका के रूप में ज्यादा है. सरकार के लिए यह बाध्यता है कोई भी वैधानिक निर्णय लेना है तो उसे सदन में जाना होगा. कोई भी अध्यादेश सरकार लाती है इसे विधिक और कानूनी मान्यता देनी है तो 6 महीने के बाद उसे सदन में लाना ही है. विधानसभा के दो सत्रों के बीच में 6 माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए. सदन ज्यादा दिन चलेंगे तो संवैधानिक की परंपराएं मजबूत होंगी. लोकतंत्र मजबूत होगा, जनता से जुड़े विषयों पर चर्चा होगी और सरकार बाध्य होगी, जनता से जुड़े मुद्दों पर जवाब देने के लिए. सरकारों का जो रवैया है संवैधानिक व्यवस्थाओं को फुलफिल नहीं करता है. सरकार सिर्फ औपचारिकता मात्र के लिए सदन चलाती है. बजट लाने के लिए अनुपूरक बजट लाने के लिए सदन चलाए जाते हैं. सिर्फ औपचारिकता पूरी करने के लिए सदन की संख्या लगातार कम हो रही है जो बिल्कुल भी स्वस्थ परंपराओं के लिए ठीक नहीं है.