लखनऊ : विधानसभा के बजट सत्र का पहला दिन विपक्षी विधायकों के हंगामे और पत्रकारों से की गई अभद्रता का मुद्दा छाया रहा. विपक्षी दलों के विधायकों का विरोध कोई नई बात नहीं है. सरकार कोई भी हो, किसी भी दल की हो, यह परंपरा बन गई है, लेकिन सत्र शुरू होने से पहले ही विधान भवन में कवरेज करने गए पत्रकारों के साथ मार्शल ने जो किया वह अप्रत्याशित और अभूतपूर्व था. कवरेज कर रहे पत्रकारों को न सिर्फ अपमान का सामना करना पड़ा, धक्के खाने पड़े, बल्कि मार्शल की हाथापाई में कुछ लोगों को चोट भी आईं. इस प्रकरण में पत्रकारों की गलती हो अथवा न हो, लेकिन यह चिंता का विषय है कि आखिर लगातार पत्रकारों की गरिमा क्यों गिरती जा रही है.
सोमवार को सोशल मीडिया पर पत्रकारों से अपमान का मुद्दा खूब चर्चा में रहा. इस घटना से ठीक एक दिन पहले हमीरपुर जिले के पत्रकार का ऑडियो वायरल होता है, जिसमें वह खबर न चलाने के लिए किसी व्यक्ति से पैसा की मांग कर रहा है. यह दोनों ही घटनाएं शर्मनाक हैं. पहली बात तो यही है कि पत्रकारों ने खुद ही अपनी गरिमा का ध्यान नहीं रखा. वाकई अराजक गतिविधियों में लिप्त हो गए और पत्रकारिता कलंकित होते रही. बेशक ऐसे भ्रष्ट पत्रकारों की संख्या बेहद कम है, बावजूद इसके 'एक मछली पूरे तालाब को गंदा करती है' की कहावत भी चरितार्थ होती है. एक, दो या चार लोगों के भ्रष्ट और पेशे से इतर आचरण ने पूरी पत्रकारिता को बदनाम कर दिया है. यही कारण है कि खबरों की विश्वसनीयता कम हुई है. इसका दूसरा पहलू भी है. कई बड़े मीडिया संस्थानों की नीतियां निष्पक्ष न होकर राजनीतिक दलों से प्रेरित होती हैं. इसका खामियाजा भुगतते हैं पत्रकार, क्योंकि हर बार पत्रकारों की निष्ठा और ईमानदारी पर सवाल उठाए जाते हैं, जबकि वह अपनी पेशेगत विवशताओं के कारण बाध्य होते हैं. वहीं राजनीतिक दलों में भी अब लोक लाज कम ही बचा है. वह खुलकर अपना एजेंडा चलाते हैं और पत्रकारों का दमन और अपमान करने से हिचकते नहीं. सोशल मीडिया के कारण पत्रकारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है. यह भी एक कारण है कि अधिकारी और नेता अच्छे और बुरे पत्रकार में अंतर ही नहीं कर पाते.