लखनऊ: मोहर्रम महीने का आगाज इस वर्ष 20 अगस्त से हो रहा है. मोहर्रम कोई पर्व नहीं बल्कि हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत को याद करने का महीना है. शिया समुदाय के लोग इस महीने के आरंभ होते ही काले लिबास धारण कर लेते हैं. घरों और इमामबाड़ों में मजलिसों और मातम का दौर शुरू हो जाता है. राजधानी लखनऊ में बड़े पैमाने पर मोहर्रम के जुलूस निकलते हैं, जिसमें हजारों की तादाद में लोग शिरकत कर ईमाम हुसैन की याद में आंसू बहाते हैं.
प्रशासन की तैयारियां तेज
कोरोना काल के चलते इस वर्ष मजलिस, मातम और जुलूसों पर भी संक्रमण का खतरा मंडरा रहा है. हालांकि मोहर्रम से पहले प्रशासन ने इमामबाड़ों को संवारने और उनकी मरम्मत कराने का काम शुरू कर दिया है. लखनऊ के ऐतिहासिक छोटे इमामबाड़े में पुताई और मरम्मत का काम तेजी से चल रहा है. इसी छोटे इमामबाड़े में मोहर्रम का पहला जुलूस पहुंचकर सम्पन्न होता है. मोहर्रम का महीना कानून व्यवस्था के लिहाज़ से भी काफी संवेदनशील माना जाता है.
आखिर क्यों मनाया जाता है मोहर्रम
इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार, पैगम्बर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ दो मोहर्रम को कर्बला पहुंचे थे. उनके काफिले में छोटे बच्चे, औरतें और बूढ़े भी शामिल थे. जालिम बादशाह यजीद ने हजरत इमाम हुसैन और उनके काफिले पर बेइंतहा जुल्म करना शुरू कर दिया. उस काफिले में इमाम हुसैन के परिवार सहित कुल 72 लोग शामिल थे, जिनका सात मोहर्रम को पानी बंद कर दिया गया. मोहर्रम की नौ तारीख की रात इमाम हुसैन ने अपने साथियों से कहा कि यजीद की सेना बड़ी है और उनके पास एक से बढ़कर एक हथियार हैं. ऐसे में बचना मुश्किल है. मैं तुम सबको यहां से चले जाने की इजाज़त देता हूं. मुझे कोई आपत्ति नहीं है. इसके बावजूद इमाम हुसैन को छोड़कर कोई नहीं गया और मोहर्रम की 10 तारीख को यजीद की सेना ने हुसैन के प्यासे काफिले पर हमला कर दिया. शाम होते-होते इमाम हुसैन का पूरा काफिला शहीद हो गया, जिसमें 6 महीने के उनके बेटे हजरत अली असगर भी शामिल थे.