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Politics of Uttar Pradesh : 1990 के बाद यूपी में एक बार फिर मंडल और कमंडल की टकराहट, जानिए इस दांव में कितना दम - स्वामी प्रसाद मौर्य

उत्तर प्रदेश की राजनीति (Politics of Uttar Pradesh) हर पांच साल बाद एक नई करवट लेती है. क्षेत्रीय दल हों या राष्ट्रीय उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए दांव पेच में पीछे नहीं रहते हैं. यूपी की जनता की मंशा भांपने में जो दल सफल हो जाता है. वहीं सत्ता में आ जाता है. फिलवक्त 1990 की तरह एक बार फिर यूपी में मंडल कमंडल जैसी टकराहट राजनीतिक दलों के बीच देखने को मिल रही है, लेकिन कुछ अलग अंदाज में.

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Published : Feb 3, 2023, 12:05 PM IST

Updated : Feb 3, 2023, 12:46 PM IST

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लखनऊ : वर्ष 1990 में जब देश में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुई थीं. उसी दौरान अयोध्या में आंदोलन चल रहा था. उत्तर प्रदेश की राजनीति में तब मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हो गई थी. भाजपा हिंदुत्व की राजनीति कर रही थी और विपक्ष मंडल की राजनीति कर रहा था. जिसमें कभी भाजपा ऊपर हुई तो कभी विपक्ष ने दम लगाया था. रामचरितमानस पर हमला बोलकर समाजवादी पार्टी ने अब एक बार फिर से मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू की है. जिसका सामना करने के लिए भारतीय जनता पार्टी में भी पिछड़े और दलित नेताओं को आगे कर दिया है.

देश के प्रधानमंत्री वर्ष 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. तब राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था. उस वक्त राम मंदिर आंदोलन से जुड़ी राजनीति को कमंडल की राजनीति कहा गया था. इसी वक्त मंडल कमीशन की सिफारिशों को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू कर दिया था. जिसकी वजह से समाज के पिछड़े वर्ग को 27 फ़ीसदी में आरक्षण देने की घोषणा हुई थी. इस आरक्षण की व्यवस्था के साथ में सवर्णों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया था. अनेक युवाओं ने आत्मदाह कर लिया था. तब पिछड़ों और राम मंदिर आंदोलन की जो राजनीति पार्टी मंडल और कमंडल की राजनीति कहा गया था. जिसके पास लगातार उत्तर प्रदेश के चुनाव जातिगत आधार पर लड़े गए.

वर्ष 1990 में राम मंदिर आंदोलन के बाद हुए चुनाव में राम लहर चल गई थी. इसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में और केंद्र में जबरदस्त सफलता मिली थी. इसके बाद बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी एक हुए. इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से दोनों ने सरकार बनाई थी. इसके बाद लगातार कमंडल की राजनीति चलती रही और उत्तर प्रदेश जातिगत आधार पर बंटता रहा.

वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के चेहरा बने तो उसके बाद एक बार फिर कमंडल की राजनीति ने जोर पकड़ा. लगातार भारतीय जनता पार्टी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव जीतती रही. आखिरकार एक बार फिर मंडल का दांव समाजवादी पार्टी कमंडल के सामने खेल रही है. हालांकि इस बार तरीका कुछ अलग है. बात आरक्षण की जगह श्रीरामचरितमानस में दर्जनों चौपाइयों की जा रही है. इसी आधार पर पिछड़ों और दलितों को सोनू से अलग करने की कोशिश हो रही है. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विजय उपाध्याय ने बताया कि कमंडल का दांव बिल्कुल अलग था. इस बार का दांव थोड़ा अलग है. मजे की बात यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की पुत्री संघमित्रा मौर्य तक इस मामले में पूरी तरह से उनके साथ नहीं हैं. भविष्य के गर्त में है किसका कितना लाभ समाजवादी पार्टी को होगा.

यह भी पढ़ें : Madrassas radicalised youths: मदरसों में होती है कट्टरपंथी युवाओं की टैलेंट स्पॉटिंग: पुलिस अधिकारी

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लखनऊ : वर्ष 1990 में जब देश में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुई थीं. उसी दौरान अयोध्या में आंदोलन चल रहा था. उत्तर प्रदेश की राजनीति में तब मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हो गई थी. भाजपा हिंदुत्व की राजनीति कर रही थी और विपक्ष मंडल की राजनीति कर रहा था. जिसमें कभी भाजपा ऊपर हुई तो कभी विपक्ष ने दम लगाया था. रामचरितमानस पर हमला बोलकर समाजवादी पार्टी ने अब एक बार फिर से मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू की है. जिसका सामना करने के लिए भारतीय जनता पार्टी में भी पिछड़े और दलित नेताओं को आगे कर दिया है.

देश के प्रधानमंत्री वर्ष 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह थे. तब राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था. उस वक्त राम मंदिर आंदोलन से जुड़ी राजनीति को कमंडल की राजनीति कहा गया था. इसी वक्त मंडल कमीशन की सिफारिशों को प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू कर दिया था. जिसकी वजह से समाज के पिछड़े वर्ग को 27 फ़ीसदी में आरक्षण देने की घोषणा हुई थी. इस आरक्षण की व्यवस्था के साथ में सवर्णों ने एक बड़ा आंदोलन शुरू किया था. अनेक युवाओं ने आत्मदाह कर लिया था. तब पिछड़ों और राम मंदिर आंदोलन की जो राजनीति पार्टी मंडल और कमंडल की राजनीति कहा गया था. जिसके पास लगातार उत्तर प्रदेश के चुनाव जातिगत आधार पर लड़े गए.

वर्ष 1990 में राम मंदिर आंदोलन के बाद हुए चुनाव में राम लहर चल गई थी. इसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में और केंद्र में जबरदस्त सफलता मिली थी. इसके बाद बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी एक हुए. इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से दोनों ने सरकार बनाई थी. इसके बाद लगातार कमंडल की राजनीति चलती रही और उत्तर प्रदेश जातिगत आधार पर बंटता रहा.

वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के चेहरा बने तो उसके बाद एक बार फिर कमंडल की राजनीति ने जोर पकड़ा. लगातार भारतीय जनता पार्टी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव जीतती रही. आखिरकार एक बार फिर मंडल का दांव समाजवादी पार्टी कमंडल के सामने खेल रही है. हालांकि इस बार तरीका कुछ अलग है. बात आरक्षण की जगह श्रीरामचरितमानस में दर्जनों चौपाइयों की जा रही है. इसी आधार पर पिछड़ों और दलितों को सोनू से अलग करने की कोशिश हो रही है. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक विजय उपाध्याय ने बताया कि कमंडल का दांव बिल्कुल अलग था. इस बार का दांव थोड़ा अलग है. मजे की बात यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की पुत्री संघमित्रा मौर्य तक इस मामले में पूरी तरह से उनके साथ नहीं हैं. भविष्य के गर्त में है किसका कितना लाभ समाजवादी पार्टी को होगा.

यह भी पढ़ें : Madrassas radicalised youths: मदरसों में होती है कट्टरपंथी युवाओं की टैलेंट स्पॉटिंग: पुलिस अधिकारी

Last Updated : Feb 3, 2023, 12:46 PM IST
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