हैदराबाद: अगर आज की सियासत में ईमानदार पॉलिटिशियन (honest politician) की तलाश की जाए तो बामुश्किल कोई मिले और अगर कोई मिल भी गया तो उसके सोलह आने खरा होने की कोई गारंटी नहीं. इसकी एक वजह यह है कि आज विचारों की जगह मौकापरस्ती ने ले ली है. नेताओं के दल-बदल के साथ ही उनके विचार और विचारधारा भी बदल जाते हैं. लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब लोग नेताओं के नामों की कसमें खाया करते थे. आज लोग धोखेबाजों से गुर सीखते हैं और उनके शातिराना दांव-पेंचों के मुरीद बन जाते हैं, लेकिन तब ऐसा नहीं था और खासकर सियासत में तो एक से बढ़कर एक नेता आए. हर एक की शख्सियत जुदा थी. ऐसे ही बेमिसाल सियासतदारों की सूची में एक नाम उत्तर प्रदेश के पहले व पूर्व मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant) का भी है.
पंत जी के बारे में कहा जाता है कि वे एक ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो चाय-नाश्ते का पैसा भी अपनी जेब से भरते थे. वे पहाड़ की सीधी-सादी जिंदगी से उतरकर उत्तर प्रदेश की घाघ सियासत में आए और देखते ही देखते छा गए थे. दरअसल, अल्मोड़ा में जन्मे गोविंद बल्लभ पंत मूल रूप से मराठी थे. बचपन में उनके घरवाले उन्हें प्यार से थपुआ कहा करते थे, क्योंकि वो बहुत मोटे थे और बच्चों के साथ खेलने की बजाय एक ही स्थान पर बैठे रहते थे.
हालांकि, पंडित गोविन्द बल्लभ पंत की निजी जिंदगी और उनका सियासी सफर बड़ा रोचक और दिलचस्प रहा है. उनके सियासत में आने के बारे में कहा जाता है कि वो सियासत में आने से पहले एक अधिवक्ता थे. एक दिन वो चैंबर से गिरीताल घूमने चले गए थे, जहां उन्होंने देखा कि दो लड़के आपस में स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में चर्चा कर रहे थे. उनकी बातें सुन पंत जी ने उन युवकों से पूछा कि क्या यहां पर भी देश-समाज को लेकर बहस होती है? इस पर उन युवकों ने जवाब दिया कि यहां बस नेतृत्व की जरूरत है. बस उसी समय पंत जी ने वकालत छोड़कर सियासत में आने का मन बना लिया.
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ऐसे हुई थी पंडित नेहरू से मुलाकात
साल 1921 में गोविन्द बल्लभ पंत ने सक्रिय सियासत में पदार्पण किया और लेजिस्लेटिव असेंबली में चुने गए. उस समय उत्तर प्रदेश, यूनाइटेड प्रोविंसेज ऑफ आगरा और अवध होता था. 1932 में पंत जी की अचानक पंडित नेहरू से बरेली और देहरादून की जेल में मिले. उस दौरान पंडित नेहरू से उनकी यारी हो गई. कहा जाता है कि नेहरू जी उनके मुरीद हो गए थे. वहीं, जब कांग्रेस ने 1937 में सरकार बनाने का फैसला किया तो बहुत सारे लोगों के बीच से पंत का ही नाम नेहरू जी के दिमाग में पहले आया था. नेहरू जी का पंत जी पर अटूट विश्वास करते थे.
साल 1955 से 1961 के बीच गोविंद बल्लभ पंत केंद्र सरकार में गृह मंत्री रहे. गृह मंत्री रहने के दौरान उनकी सबसे बड़ी कामयाबी भाषायी आधार पर विभक्त राज्यों का पुनर्गठन था. उस दौरान यह आशंका थी कि ये देश की एकता के लिए घातक हो सकती है. मगर हुआ ठीक इसके विपरीत. हालांकि, पंत जी सबसे अधिक हिंदी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए जाने गए.
इस हद की थी उनकी ईमानदारी
उनके मुख्यमंत्रित्व काल की एक रोचक घटना है. एक बार पंत जी सरकारी बैठक कर रहे थे. जाहिर सी बात थी कि जब मुख्यमंत्री खुद बैठक कर रहे हों तो उसमें चाय-नाश्ते का इंतजाम होना ही था. बाद में जब बैठक के चाय-नाश्ते का बिल पास होने उनके पास आया तो उन्होंने बिल पास करने से मना कर दिया.
उन्होंने कहा कि सरकारी बैठकों में सरकारी खर्चे से केवल चाय मंगवाने का नियम है. ऐसे में नाश्ते का बिल नाश्ता मंगवाने वाले शख्स को देना होगा. खैर, चाय का बिल पास हो सकता है. लेकिन नाश्ते पर हुए खर्च को मैं सरकारी खजाने से चुकाने की इजाजत नहीं दे सकता हूं.
इतना ही नहीं कहा जाता है कि पंडित गोविंद बल्लभ पंत पढ़ने में होशियार थे, लेकिन 10 साल की उम्र तक उन्होंने विद्यालय का मुंह तक नहीं देखा था. वहीं, 14 साल की उम्र में उन्हें हार्ट अटैक आ गया था. साथ ही उन्होंने तीन शादियां की थीं.
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