लखनऊः यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में सियासी पार्टियां अपनी-अपनी गोटियां सेंकने में लगी हुई हैं. इसी को लेकर बड़ी राजनीतिक पार्टियां छोटे-छोटे दलों को अपने पाले में मिलाने की हर संभव कोशिश भी कर रही हैं. ऐसे में सूबे में दलित, ओबीसी और मुसलमान का एक गठबंधन तैयार हुआ है. जिसे भागीदारी परिवर्तन मोर्चा नाम दिया गया है. इस गठबंधन में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, बीएसपी सरकार में कद्दावर मंत्री रहे और पिछड़े समाज के नेता बाबू सिंह कुशवाहा और वामन मेश्राम की बहुजन मुक्ति पार्टी समेत कई अन्य दल शामिल हैं.
असदुद्दीन ओवैसी ने लखनऊ में गठबंधन का ऐलान कर 5 साल में दो मुख्यमंत्री जिसमें दलित, ओबीसी और तीन डिप्टी सीएम जिसमें एक मुस्लिम होगा, इसकी घोषणा की है. इस गठबंधन का ऐलान होने के बाद अब नए समीकरण तैयार होने लगे हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति दलित, ओबीसी और मुसलमान के इर्द गिर्द ही घूमती आई है. मौजूदा समय जहां सभी राजनीतिक दल ओबीसी जिसमें खासतौर पर गैर यादव जातियां हैं को साधने के लिए पिछले नेताओं को अपने दलों में शामिल करा रहे हैं.
वहीं दलितों को लुभाने के लिए उनके घर खिचड़ी खाकर उनका रहनुमा साबित करने की होड़ मची है. वहीं बीजेपी को छोड़ बाकी सभी राजनीतिक दल मुस्लिमों पर भी डोरे डालने में पीछे नहीं है. ऐसे में इन तीन छोटे दलों के इस गठबंधन ने अन्य बड़ी पार्टियों में खलबली मचा दी है. हालांकि राजनीतिक पंडित इस गठबंधन को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और दलित चिंतक कविराज का मानना है कि ये जरूर है कि बाबू सिंह कुशवाहा का पश्चिम और बुंदेलखंड के 14 से ज्यादा जिलों में अपने समाज में पैठ है. लेकिन आज के दौर में मौर्य, शाक्य और कुशवाहा जाति के कई और नेता हो गए हैं, जो सरकार में भी है और विपक्ष में भी. वहीं ओवैसी को मुसलमान बीजेपी की बी टीम में मानकर चलता है. इसके साथ ही वामन मेश्राम दशकों से दलितों के लिए अपने संगठन के बैनर तले काम करते आ रहे हैं और चुनाव में वो फायदा उठा पाएंगे ये कहा नहीं जा सकता है. ऐसे में इस गठबंधन को ज्यादा लाभ होते नहीं देखा जा सकता है. उन्होंने कहा कि फिलहाल यूपी चुनाव टू पार्टी इलेक्शन होता दिख रहा है, जो एसपी और बीजेपी के बीच होना है.
वरिष्ठ पत्रकार विजय उपाध्याय कहते हैं कि इस गठबंधन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यूपी में द्विध्रुवी चुनाव की स्थिति बनी हुई है. एक ओर एसपी गठबंधन दूसरी ओर बीजेपी का गठबंधन. अगर ये गठबंधन कांग्रेस या बीएसपी के साथ होता तो तब ये महत्वपूर्ण होते हैं. क्यों कि उन्होंने किसी बड़ी पार्टी से अलायंस नहीं किया है. इससे इस गठबंधन से कोई महत्वपूर्ण असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नहीं पड़ने वाला है. ये जरूर है कि ये लोग किसी पार्टी को फायदा पहुंचा सकते हैं या फिर किसी को नुकसान. लेकिन इनकी कोई उपलब्धि नहीं होने वाली है.
यूपी में ओबीसी वोटर की बात करे तो ओबीसी वोट करीब 44 फीसदी है और गैर यादव ओबीसी करीब 35 फीसदी है. जिसमें शाक्य, कुशवाहा व मौर्य की बात करे तो पूरे उत्तर प्रदेश में ये 6 फीसदी हैं. लेकिन करीब 14 जिलों में ये 15 फीसदी तक हैं. जहां लखनऊ व इसके आसपास पूर्वांचल तक मौर्य समुदाय प्रभावी स्थिति में है. वहीं बुंदेलखंड में कुशवाहा समाज का बाहुल्य है. एटा, बदायूं, मैनपुरी, इटावा और इसके आसपास जनपदों में शाक्य समाज काफी प्रभावी है, जो करीब 100 सीटों पर प्रभाव डालते हैं. जिसका इस तरह भी देखा जा सकता है कि 2017 के चुनावों में इन समाज के 15 विधायक चुने गए थे. जिसमें 14 बीजेपी के ही थे. यही नहीं 10 सीटों में दूसरे नम्बर पर थे.
मुस्लिम और दलित वोट बैंक की बात करें तो, बसपा, सपा और कांग्रेस इन दोनों वर्गों को अपने साथ साधने के लिए भरसक प्रयास कर रहे हैं. वहीं बीजेपी दलितों को लुभाने के लिए दलितों के यहां भोजन करने के साथ ही अपनी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दे रही है.
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यूपी में दलितों की बात करें तो कुल 21 प्रतिशत दलित मतदाता हैं. जिसमें सबसे ज्यादा जाटव हैं. कुल दलित आबादी में 55 फीसदी जाटव हैं, जो बसपा का बेस वोट बैंक माना जाता है. इसी वोट बैंक में चंद्रशेखर आजाद और बहुजन मुक्ति पार्टी और बामसेफ प्रमुख वामन मेश्राम की नजर है. अन्य दलित जातियों पर पहले से ही बीजेपी डोरे डाल रही है. वामन मेश्राम कासीराम से लेकर मायावती के साथ मिलकर दलितों के उत्थान के लिए दशकों से कार्य कर रहे हैं. ऐसे में अगर दलित वोट बैंक मेश्राम पर थोड़ा भी भरोसा जताती है तो समीकरण बदल सकते हैं.
वहीं ओवैसी भी लगभग राज्य की 119 मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं. सूबे में 20 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो करीब 143 विधानसभा सीटों पर अपना खासा प्रभाव रखती है. इसी सियासी असर को देखते हुए यूपी में मुस्लिम राजनीति के कई बार विकल्प बनाने की कोशिश की गई. लेकिन एक चुनाव के बाद उन्हें दूसरी बार सफलता नहीं मिली. ऐसे में अब इस गठबंधन से ओवैसी को उम्मीद है कि मुसलमान वोट के साथ अगर ओबीसी और दलित वोट साथ जुड़ेगा तो कुछ बड़ा किया जा सकता है.
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