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यूपी के मुख्य सचिव और डीजीपी को NHRC ने भेजा नोटिस - रेप केस में कोर्ट का निर्णय

यूपी के ललितपुर ट्रायल कोर्ट के गलत फैसले पर एक युवक को 20 वर्ष की सजा काटनी पड़ी. इस मामले को एनएचआरसी ने गंभीरता से लेते हुए यूपी मुख्य सचिव और डीजीपी को नोटिस भेजा है. वहीं एनएचआरसी ने छह हफ्ते का समय देकर रिपोर्ट जमा करने को भी कहा है.

एनएचआरसी
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Published : Mar 6, 2021, 12:52 AM IST

लखनऊः बलात्कार के आरोप में 20 साल जेल में सजा काट चुके विष्णु तिवारी के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) गंभीर है. एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आरके तिवारी और पुलिस महानिदेशक एचएसी अवस्थी को नोटिस जारी कर पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है. इसके लिए एनएचआरसी ने छह हफ्ते का समय दिया है.

एनएचआरसी ने उठाये सवाल
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बलात्कार के मामले में एक व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने के बीस साल बाद उसके बरी होने की रिपोर्ट पर कहा कि यह धारा 433 सीआरपीसी के गैर-आवेदन का मामला है. इसके द्वारा सजा की समीक्षा बोर्ड कानून के तहत सजा सुनाए जाने के दृष्टिकोण के साथ अदालत द्वारा दी गई सजा की समीक्षा पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. आयोग ने कहा कि ऐसे कई मामलों में जेलों में 75 साल से अधिक उम्र के कैदी हो सकते हैं, जो स्पष्ट रूप से सेंटेंस रिव्यू बोर्ड की निष्क्रियता को दर्शाते हैं.

NHRC ने कहा, लोक सेवकों पर हो करवाई
आयोग ने कहा कि इस मामले में जिम्मेदार लोक सेवकों के खिलाफ की गई कार्रवाई और पीड़िता को राहत और पुनर्वास के लिए उठाए गए कदमों को शामिल करना चाहिए. यह सजा काल के दौरान हुए आघात, मानसिक पीड़ा और सामाजिक कलंक की कुछ हद तक क्षतिपूर्ति करता है. आयोग ने कहा कि हमें छह सप्ताह के भीतर प्रतिक्रिया की उम्मीद है.

रेप मामले में 20 वर्ष पहले सुनाई थी सजा
बता दें कि ट्रायल कोर्ट ने 23 वर्षीय युवक को 20 वर्ष पहले बलात्कार के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई थी. बीस साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी को निर्दोष घोषित किया. इस अवधि के दौरान उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य की मृत्यु हो गई थी. जेल में उनका आचरण हमेशा अच्छा पाया गया लेकिन पैरोल के लिए उनके आवेदन को उनके पिता के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया. यही नहीं उन्हें अपने भाई के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं होने दिया गया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने युवक को किया बरी
साल 1999 में युवक पर अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ बलात्कार, आपराधिक धमकी और यौन शोषण का आरोप लगाया गया था. मामले की सुनवाई ललितपुर जिले की निचली अदालत ने की. इस दौरान कोर्ट ने युवक को दोषी पाया. वर्ष 2003 में युवक को आगरा सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां उनका आचरण हमेशा अच्छा रहा. इसके बाद साल 2005 में युवक ने निचली अदालत के फैसले को चुनौती देने का फैसला किया और उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. चौदह साल की अवधि पूरी करने के बाद, पीड़िता ने मर्सी प्ली को स्थानांतरित कर दिया और जेल अधिकारियों ने कदम रखा. राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने उच्च न्यायालय में अपील को प्राथमिकता देने में उसकी मदद की और 28 जनवरी 2021 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने फैसला सुनाया जिसमें उसे दोषी करार नहीं दिया गया.

अभियुक्त गलत तरह से ठहराया था दोषीः हाईकोर्ट
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि मामले में प्राथमिकी तीन दिन देरी से दर्ज की गई थी और महिला के निजी अंगों पर कोई चोट नहीं थी, जिसके बारे में कहा गया था कि उसकी पिटाई की गई थी. शिकायतकर्ता की ओर से मकसद था क्योंकि पक्षों के बीच भूमि विवाद था, और एफआईआर भी कथित पीड़ित के पति और ससुर द्वारा दर्ज की गई थी और उसके द्वारा नहीं. उच्च न्यायालय ने कथित तौर पर अपने आदेश में कहा है कि तथ्यों और रिकॉर्ड पर सबूतों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि अभियुक्त को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया था. जिसके चलते ट्रायल कोर्ट के फैसले और लगाए गए आदेश को उलट दिया गया है और अभियुक्त को बरी कर दिया गया है.

इसके अलावा कथित तौर पर उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य के विधि सचिव को आदेश भी दिए हैं कि वे जिला मजिस्ट्रेटों को धारा 432 और 433 सीआरपीसी के जनादेश के अनुसार चौदह साल के बाद के पुनर्वासन के लिए मामलों का फिर से मूल्यांकन करने के लिए प्रभावित करें. यदि अपील उच्च न्यायालय में लंबित है.

लखनऊः बलात्कार के आरोप में 20 साल जेल में सजा काट चुके विष्णु तिवारी के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) गंभीर है. एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आरके तिवारी और पुलिस महानिदेशक एचएसी अवस्थी को नोटिस जारी कर पूरी घटना की रिपोर्ट तलब की है. इसके लिए एनएचआरसी ने छह हफ्ते का समय दिया है.

एनएचआरसी ने उठाये सवाल
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बलात्कार के मामले में एक व्यक्ति को दोषी ठहराए जाने के बीस साल बाद उसके बरी होने की रिपोर्ट पर कहा कि यह धारा 433 सीआरपीसी के गैर-आवेदन का मामला है. इसके द्वारा सजा की समीक्षा बोर्ड कानून के तहत सजा सुनाए जाने के दृष्टिकोण के साथ अदालत द्वारा दी गई सजा की समीक्षा पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. आयोग ने कहा कि ऐसे कई मामलों में जेलों में 75 साल से अधिक उम्र के कैदी हो सकते हैं, जो स्पष्ट रूप से सेंटेंस रिव्यू बोर्ड की निष्क्रियता को दर्शाते हैं.

NHRC ने कहा, लोक सेवकों पर हो करवाई
आयोग ने कहा कि इस मामले में जिम्मेदार लोक सेवकों के खिलाफ की गई कार्रवाई और पीड़िता को राहत और पुनर्वास के लिए उठाए गए कदमों को शामिल करना चाहिए. यह सजा काल के दौरान हुए आघात, मानसिक पीड़ा और सामाजिक कलंक की कुछ हद तक क्षतिपूर्ति करता है. आयोग ने कहा कि हमें छह सप्ताह के भीतर प्रतिक्रिया की उम्मीद है.

रेप मामले में 20 वर्ष पहले सुनाई थी सजा
बता दें कि ट्रायल कोर्ट ने 23 वर्षीय युवक को 20 वर्ष पहले बलात्कार के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई थी. बीस साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आरोपी को निर्दोष घोषित किया. इस अवधि के दौरान उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य की मृत्यु हो गई थी. जेल में उनका आचरण हमेशा अच्छा पाया गया लेकिन पैरोल के लिए उनके आवेदन को उनके पिता के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होने दिया गया. यही नहीं उन्हें अपने भाई के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं होने दिया गया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने युवक को किया बरी
साल 1999 में युवक पर अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ बलात्कार, आपराधिक धमकी और यौन शोषण का आरोप लगाया गया था. मामले की सुनवाई ललितपुर जिले की निचली अदालत ने की. इस दौरान कोर्ट ने युवक को दोषी पाया. वर्ष 2003 में युवक को आगरा सेंट्रल जेल ले जाया गया, जहां उनका आचरण हमेशा अच्छा रहा. इसके बाद साल 2005 में युवक ने निचली अदालत के फैसले को चुनौती देने का फैसला किया और उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. चौदह साल की अवधि पूरी करने के बाद, पीड़िता ने मर्सी प्ली को स्थानांतरित कर दिया और जेल अधिकारियों ने कदम रखा. राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने उच्च न्यायालय में अपील को प्राथमिकता देने में उसकी मदद की और 28 जनवरी 2021 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने फैसला सुनाया जिसमें उसे दोषी करार नहीं दिया गया.

अभियुक्त गलत तरह से ठहराया था दोषीः हाईकोर्ट
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि मामले में प्राथमिकी तीन दिन देरी से दर्ज की गई थी और महिला के निजी अंगों पर कोई चोट नहीं थी, जिसके बारे में कहा गया था कि उसकी पिटाई की गई थी. शिकायतकर्ता की ओर से मकसद था क्योंकि पक्षों के बीच भूमि विवाद था, और एफआईआर भी कथित पीड़ित के पति और ससुर द्वारा दर्ज की गई थी और उसके द्वारा नहीं. उच्च न्यायालय ने कथित तौर पर अपने आदेश में कहा है कि तथ्यों और रिकॉर्ड पर सबूतों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि अभियुक्त को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया था. जिसके चलते ट्रायल कोर्ट के फैसले और लगाए गए आदेश को उलट दिया गया है और अभियुक्त को बरी कर दिया गया है.

इसके अलावा कथित तौर पर उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य के विधि सचिव को आदेश भी दिए हैं कि वे जिला मजिस्ट्रेटों को धारा 432 और 433 सीआरपीसी के जनादेश के अनुसार चौदह साल के बाद के पुनर्वासन के लिए मामलों का फिर से मूल्यांकन करने के लिए प्रभावित करें. यदि अपील उच्च न्यायालय में लंबित है.

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