लखनऊ : हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने राज्य सरकार द्वारा 5 दिसंबर को जारी उस ड्राफ्ट नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है जिसके जरिए आगामी स्थानीय निकाय चुनाव में राज्य सरकार ने एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को भागीदारी देने के लिए आरक्षण तय करते हुए आम लोगों से आपत्तियां मांगी थीं. इसके साथ ही कोर्ट ने राज्य सरकार व राज्य चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि संविधान की मंशा को ध्यान में रखते हुए, चुनाव को वर्तमान निकायों के कार्यकाल समाप्त होने तक संपन्न करा लिया जाए. न्यायालय ने पाया कि 31 जनवरी 2023 तक निकायों के कार्यकाल समाप्त हो रहे हैं.
यह निर्णय जस्टिस देवेंद्र कुमार उपाध्याय और जस्टिस सौरभ लवानिया की खंडपीठ ने वैभव पांडेय आदि द्वारा अलग-अलग दायर 93 याचिकाओं को एक साथ मंजूर करते हुए पारित किया. पीठ ने अपने आदेश में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 12 साल पहले सरकार को ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला अपनाने की बात कही थी किंतु इतना लंबा समय बीतने के बाद भी उक्त आदेश का अनुपालन नहीं किया गया. कोर्ट ने कहा कि जब तक ट्रिपल टेस्ट में बताई गई सारी बातों को राज्य सरकार पूरा नहीं करती तब तक पिछड़ा वर्ग के नागरिकों को निकाय चुनावों में आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जाएगा.
कोर्ट ने कहा कि तमाम निकायों का कार्यकाल खत्म हो चुका है और कुछ का 31 जनवरी 2023 तक खत्म हो जाएगा, ऐसे में जबकि ट्रिपल टेस्ट की कार्यवाही कराना बहुत ही दुष्कर है और इसमें काफी लंबा वक्त लगेगा तो यही उचित होगा कि राज्य सरकार और राज्य चुनाव आयोग स्थानीय निकाय चुनाव करने के लिए तत्काल नोटिफिकेशन जारी करे. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि स्थानीय निकाय चुनाव में एससी, एसटी और महिलाओं को संविधान में प्रदत्त व्यवस्था के अनुरूप आरक्षण प्रदान किया जाएगा, जबकि सरकार ने अभी तक इस चुनाव के लिए जो सीटें पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित की थीं वे सीटें सामान्य श्रेणी की मान कर नोटिफिकेशन जारी किया जाए. पीठ ने अपने आदेश में कहा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 243 यू कहता है कि जिस निकाय का कार्यकाल खत्म होने वाला हो वहां उससे पहले चुनाव करा लिया जाए और ऐसे में चूंकि ट्रिपल टेस्ट फार्मूले के आधार पर जो डाटा इकट्ठा करना है उसमें काफी वक्त लगेगा जबकि संविधान की मंशा है कि इन चुनावों में कत्तई देरी नहीं होनी चाहिए, तो यह अनिवार्य है कि चुनाव जल्द से जल्द हो और इसमें कोई देरी ना हो. कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा कि जब डेडीकेटेड कमीशन बनाकर पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के विषय पर मंथन हो तो ऐसे में थर्ड जेंडर को बैकवर्ड क्लास में आरक्षण देने के बारे में भी विचार किया जाए. कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा गत 12 दिसंबर को जारी उस शासनादेश को भी खारिज कर दिया, जिसके जरिए निकाय का कार्यकाल खत्म होने पर वहां प्रशासक नियुक्त करने की बात कही गई थी. कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के एक आदेश के आधार पर उक्त व्यवस्था बनाई है, जबकि वह आदेश केवल एक वर्ष के लिए 2011 में था जिसे आगे लागू नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि जिन निकायों का कार्यकाल खत्म हो रहा है, वहां जिलाधिकारी की अध्यक्षता में कमेटी बनाई जाए यह कमेटी दिन-प्रतिदिन के कार्यों को देखेगी परंतु कोई नीतिगत निर्णय नहीं लेगी.
राज्य सरकार के 5 दिसंबर के ड्राफ्ट नोटिफिकेशन को चुनौती देकर याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि सुप्रीम कोर्ट ने के कृष्णमूर्ति एवं विकास किशनराव गवली के मामले में करीब 12 साल पहले अपना फैसला दिया था कि निकाय चुनाव में बैकवर्ड क्लास को आरक्षण देने के लिए एक डेडीकेटेड कमीशन बनाया जाए. यह कमीशन पिछड़ा वर्ग के लोगों की राजनीतिक पिछड़ेपन का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट दे, जिसके आधार पर निकाय चुनाव में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने पर निर्णय लिया जाए. याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन न करते हुए पिछड़ा वर्ग के लोगों के शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखते हुए एक सर्वे कराया और उसी के अनुसार आरक्षण ड्राफट तैयार करा दिया है जो कि नियमानुसार नहीं है अतः खारिज किए जाने योग्य है. राज्य सरकार की ओर से याचिका के विरोध में कहा गया कि सरकार ने अभी केवल ड्राफ्ट जारी किया है और यदि किसी याचिकाकर्ता को कोई आपत्ति है तो वह अपनी आपत्ति पेश करे जिसका निस्तारण सरकार करेगी और ऐसे में याचिकाएं पोषणीय नहीं है. सरकार की ओर से आगे कहा गया कि सरकार ने 7 अप्रैल 2017 को एक शासनादेश जारी किया गया था और उसी क्रम में 2022 में रैपिड सर्वे करवाया और उसके अनुसार ही पिछड़ा वर्ग को आरक्षण प्रदान किया गया है. सरकार की ओर से कहा गया कि सरकार का रैपिड सर्वे उतना ही बेहतर है जितना कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुझाया गया ट्रिपल टेस्ट फार्मूला है. सरकार की ओर से यह भी तर्क दिया गया सरकार ने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का जो तरीका अपनाया है वह म्यूनिसिपालिटीज अधिनियम तथा यूपी म्यूनिसिपल काॅरपोरेशन अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप है. कहा गया कि याचिकाकर्ताओं ने अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती नहीं दी है.
हालांकि पीठ ने राज्य सरकार के तर्क को नहीं माना. कोर्ट ने कहा कि भले ही उक्त अधिनियम के प्रावधानों को चुनौती न दी गई हो किंतु सुप्रीम कोर्ट ने 12 साल पहले एक व्यवस्था प्रदान कर दी थी जिसे राज्य सरकार मानने के लिए बाध्य है, वहीं कोर्ट ने कहा कि सरकार ने 5 दिसंबर 2022 के ड्राफ्ट नोटिफिकेशन को तैयार करने के लिए जो रैपिड सर्वे अपनाया, उसमें उसने शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को ध्यान में रखा, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक पिछड़ेपन के अध्ययन को अनिवार्य बताया है. अतः राज्य सरकार द्वारा कराया गया सर्वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुझाए गए फार्मूले से मेल नहीं खाता है. कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा गत 12 दिसंबर को जारी शासनादेश जिससे निकायों का कार्यकाल खत्म होने पर वहां प्रशासक की नियुक्ति होने की बात कही गई है पर कहा कि सरकार ने हाईकोर्ट के एक पुराने आदेश के आधार पर यह व्यवस्था अपनाई है, जबकि उक्त आदेश में स्पष्ट है कि वह व्यवस्था केवल एक वर्ष के लिए थी. ऐसे में प्रशासक नियुक्त करने की व्यवस्था बिना किसी प्रावधान के की गई है जो कि खारिज होने योग्य है. कोर्ट ने 12 दिसंबर के नोटिफिकेशन को रद्द करते हुए कहा कि संबंधित जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जाएगी जो कि निकायों का कार्यकाल पूरा होने पर वहां की फौरी व्यवस्था देखेगी.
क्या है ट्रिपल टेस्ट : शीर्ष अदालत ने सुरेश महाजन मामले में आदेश दिया था कि ट्रिपल टेस्ट के तहत स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण दिए जाने के लिए एक आयोग का गठन किया जाएगा जो स्थानीय निकायों में पिछड़ेपन की प्रकृति व प्रभाव की जांच करेगा, तत्पश्चात ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों को प्रस्तावित करेगा तथा आयोग यह भी सुनिश्चित करेगा कि एससी, एसटी व ओबीसी आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक न हो.
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