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जमीयत उलमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी बोले-मुसलमान बोल कर हो रहे बहुत सारे वाकयात...

जमीयत उलमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी से ईटीवी भारत की टीम ने खास बातचीत की. पेश है एक्स्क्लूसिव इंटरव्यू के खास अंश.

ईटीवी भारत
जमीयत उलमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी
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Published : Jan 19, 2022, 10:23 PM IST

लखनऊ/नई दिल्ली: जमीयत उलमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी से ईटीवी भारत की टीम ने खास बातचीत की. पेश है एक्स्क्लूसिव इंटरव्यू के खास अंश.

सवाल: उत्तर प्रदेश समेत पांच सूबों में चुनाव हैं. यूपी में 80 और 20 की बात शुरू हो गई है. इतने खुल्लमखुल्ला कभी कोई ऐलान हुआ नहीं था. इसका भारतीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा.

जवाब: देखिए, इसके दो मायने निकल सकते हैं. एक तो वो जो हम और आप समझ रहे हैं और अगर वो मायने निकलते हैं तो ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका असर सिर्फ राजनीति पर नहीं पड़ेगा, बल्कि समाज पर और देश पर पड़ेगा. हम हमेशा से ये कोशिश करते चले आए हैं कि अगर मुसलमान की बात हम करते भी हैं, तो वो मुसलमान होने की हैसियत से नहीं, बल्कि भारतीय मुसलमान होने की हैसियत से करते हैं. उसका भारतीय होना, उसके मुसलमान होने पर हावी होता है. एक भारतीय नागरिक को जो मौके मिलते हैं, जो इंसाफ मिलता है, जो उसका अधिकार बनता है, वो मिलना चाहिए, इसलिए नहीं कि वो मुसलमान है, इसलिए उसको कोई स्पेशल चीज़ मिले बल्कि इसलिए कि वो भारत का नागरिक है और अगर वो कमज़ोर है, तो भारत, भारत के लोग, भारत का सिस्टम उसे मजबूत करें. उनकी मज़बूती भारत की मज़बूती है. वो कमज़ोर होगा, एलियनेट होगा, साइडलाइन किया जाएगा या कम्युनल लाइन्स पर उसे बांटा जाएगा, तो ये भारत का नुकसान है, 80 और 20 की बात को मैं बहुत दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं. ये मुसलमान के लिए भी अच्छा नहीं है, दूसरों के लिए भी अच्छा नहीं है. ये देश के लिए भी अच्छा नहीं है।

सवाल: राइट विंग पार्टियां अक्सर कहती हैं कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है. कहीं ये 80 और 20 की बात उसी की प्रतिक्रिया में तो नहीं आ रही ? तुष्टीकरण हुआ हो या नहीं, किसी पार्टी ने मुसलमानों का फायदा नहीं किया और इस लिहाज़ से नुकसान हुआ है, ऐसा आप मानते हैं.

जवाब: राइट विंग पार्टियों से पूछिए कि तुष्टीकरण का मतलब बता दें और ज़रा ये समझा दें कि तुष्टीकरण अगर हुआ है तो कैसे. कोई तुष्टीकरण नहीं हुआ है, अब तो लोगों ने भी ये कहना छोड़ दिया है. आज की तारीख में आमतौर पर मुसलमान एजुकेशनली और सोशली बैकवर्ड है फिर उसे एलियनेट कर दिया गया है मुसलमान-मुसलमान बोल कर बहुत सारे वाकयात हो रहे हैं लगातार. उत्तर प्रदेश की या पूरे देश की बात करें , तो ये बहुत दुखद है और ये स्थिति अचानक नहीं बनी है. निश्चित तौर पर इसमें 75 साल लगे हैं. धर्म के नाम पर विभाजन तो सच्चाई है, लेकिन जो भारत का मुसलमान भारत में रह गया था, उसमें से ज़्यादातर 99.99 फीसदी लोग मजदूर वर्ग के लोग थे तो पिछले 75 सालों में मुसलमानों ने बहुत सी उपलब्धियां भी हासिल की हैं. अपनी मेहनत से साइंस में, नेचुरल साइंस में, मेडिकल में, शिक्षा के क्षेत्र में, व्यापार में बहुत कुछ हासिल किया है. ये शिकायत अपनी जगह जायज़ है कि बराबरी के मौके हमें नहीं मिले. इसके बावजूद पूरे उपमहाद्वीप के मुसलमानों से अगर तुलना करें, तो भारत के मुसलमानों ने किसी से कम हासिल नहीं किया है, बल्कि ज़्यादा ही किया है.

सवाल: आपको ऐसा क्यों लगता है कि मुसलमानों को बराबरी के मौके नहीं मिले.

जवाब: अगर मुसलमान शिक्षा के मामले में पिछड़ा है, तो क्यों पिछड़ा रह गया. मुस्लिम इलाकों में शिक्षण संस्थाओं को देख लीजिए. सरकार की मदद से जो स्कूल चलाए जाते हैं, वो आज भी और इससे पहले भी दूसरों के मुकाबले में कमज़ोर नज़र आता हैं लेकिन इसके बावजूद इस मुल्क और इस मुल्क के लोगों की मदद से मुसलमानों ने अपनी मेहनत से बहुत कुछ हासिल किया है. हम शुक्रिया अदा करना चाहते हैं इस देश का और इस देश के लोगों का.

सवाल: अगर 75 साल से मुसलमानों के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उसका ज़िम्मेवार कौन है ?

जवाब: राजनैतिक दल और खुद हम, देखिए हम अपने ऊपर से ज़िम्मेवारी को हटा दें और कहें कि ये उनका काम है, तो ऐसा नहीं होता. काम तो खुद ही करना होता है, फिर वो मुसलमान हो या कोई और कौम हो. अगर इस मुल्क में मेहनत नहीं करेंगे, तो कोई भी हो, उसे क्या मिलेगा. घर में भी उसे बच्चे की कद्र होती है, जो मेहनती होता है, जो शरीफ, ईमानदार,सच्चा होता है और मां-बाप की बात मानता है तो हमारी भी कमज़ोरी है और सरकारों की भी कमज़ोरी है.

सवाल: एलियनेशन की या अलग-थलग पड़ने की जो भावना है, वो क्यों है ?

जवाब: प्रोपेगैंडे का ज़्यादा असर है और इस तरह की घटनाएं भी हो रही हैं।

सवाल: ये घटनाएं तो अभी हो रही हैं। इससे पहले ?

जवाब: इससे पहले दूसरे अंदाज़ की होती थीं, अब दूसरे अंदाज़ की होती हैं. अब ‘हेट क्राइम’ बढ़ गए हैं और उनकी इंटेन्सिटी भी बढ़ गई है. बोलना, फिर बोलने वाले के खिलाफ कार्रवाई न होना, या फिर दिखावे की कार्रवाई होना, इस तरह की चीज़ें हो रही हैं.

सवाल: आमतौर पर बीजेपी जैसी पार्टियां ये मान कर चलती हैं कि उन्हें मुसलमानों के वोट तो मिलने नहीं हैं तो वो उसी हिसाब से हिंदुओं का वोट मैनेज करते हैं लेकिन कोई एक इतनी बड़ी कम्युनिटी ये तय कर ले कि किसी खास पार्टी को वोट देना ही नहीं है, तो इसे आप लोकतंत्र के लिए खतरनाक मानते हैं.

जवाब: ये मुनासिब नहीं है लोकतंत्र के लिए भी, खुद उस कम्युनिटी के लिए भी मुनासिब नहीं है कि कोई एक राजनैतिक दल मुसलमानों के बारे में ये समझ ले कि ये तो हमें मिलेंगे ही नहीं किसी क़ीमत पर तो ये न उस पार्टी के लिए अच्छा है, न उस लोकतंत्र के लिए, न उस कम्युनिटी के लिए अच्छा है और न ही दूसरी कम्युनिटी के लिए अच्छा है. सबके लिए एक फेयर सिस्टम हो, जिसका जहां जी चाहेगा जाएगा. एक राज्य के सीएम ने कहा था कि उन्हें हमारा वोट ही नहीं चाहिए. यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है. एक नेशनल लीडर अगर ऐसी बात कर रहा है तो हमारे लिए भी उसके पीछे एक मैसेज है.

सवाल: भारतीय राजनीति में मुसलमानों की जो हिस्सेदारी है, आप उससे संतुष्ट हैं ?

जवाब: वैसे तो इंसान हमेशा असंतुष्ट ही रहता है. डेमोक्रेसी है, तो मोटे तौर पर गिनती तो होगी कि प्रतिनिधित्व कितना है. उससे ज़्यादा अहम ये है कि अगर इंसाफ करने वाले लोग, एक विज़न रखने वाले लोग, चाहे वो किसी भी समुदाय के हों, अगर वो सिस्टम में मौजूद रहेंगे, तो मुल्क का फायदा होगा, मुसलमान का फायदा होगा. अब मुसलमान हो और मुसलमान के काम का न हो, ऐसे मुसलमान का क्या फायदा.

सवाल: ऐसा कोई लीडर है आपकी निगाह में ?

जवाब: बहुत सारे हैं, अब मैं किस किस का नाम लूं. हर पार्टी में ऐसे बहुत सारे लोग बैठे हुए हैं, जिनका मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है, हैं वो मुसलमान. पोलिटिकल पार्टीज़ ने मुसलमानों के पोलिटिकल लीडर नहीं बनाए, पोलिटिकल पार्टीज़ के मुस्लिम लीडर्स बनाए, मुझे इस पर कोई ऐतराज़ भी नहीं है इसलिए कि अगर वो पार्टियां और उनके दूसरे गैर-मुस्लिम नेता मुसलमानों के साथ काम करने लगें, मुसलमानों के मुद्दों को हल करने लगें तो फिर मुसलमान लीडर की वहां क्या ज़रूरत है.

सवाल: और ये लोकतंत्र के लिए भी अच्छा है ?

जवाब: आज़ादी के बाद से लेकर आज तक आप देख लीजिए. मुसलमानों ने किसी मुसलमान नेता को अपना लीडर नहीं बनाया. इसी को लोग शिकायत भी करते हैं कि ये तो फंसे हुए हैं तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के चक्कर में. इससे इनका तुष्टीकरण हो जाता है, फायदा होता नहीं है, ग़लत इस्तेमाल होता है, तो आप उन्हें ईमानदारी से लेकर तो देखिए. ताली तो दोनों हाथ से बजती है. ये मुसलमानों के लिए और मुल्क के लिए भी अच्छा नहीं है कि किसी एक पार्टी को हराने के लिए एक जगह वोट करें तो जिसके पास मुसलमान जा सकता है, लेकिन जा नहीं रहा है, उसको भी तो लेने की एक गंभीर कोशिश करनी है. वो कब की गई ? कभी कोई गंभीर कोशिश की गई ? अगर हो तो मुझे इस बात का अटूट विश्वास है कि मुसलमान वहां भी जा सकता है.

सवाल: आपने कहा कि किसी एक पार्टी को किसी भी कीमत पर हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उससे क्या नुकसान है.

जवाब: एक तो ये कि जिसे हराने के लिए जा रहे हो, उसे लगता है कि ये तो हमे हर हाल में हराने के लिए लगे हैं, तो हमारे तो ये हैं ही नहीं, हम किसी और को देखेंगे. जैसे एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कह दिया कि हमें मियां की ज़रूरत नहीं है, और जिनके पास जा रहे हैं , उनको ये लगता है कि ये करेंगे क्या, हमारे पास नहीं आएंगे तो जाएंगे कहां. इनको तो उस पार्टी को हराना ही है हर हाल में। तो नुकसान ही नुकसान है, फायदे का तो सवाल ही नहीं है.

सवाल: क्या सरकार के कुछ फैसलों से भी मुसलमानों में नाराज़गी है ? जैसे तीन तलाक पर कानून, सीएए या जनसंख्या कानून पर प्राइवेट मेंबर बिल लाया गया, उससे ?

जवाब: जनसंख्या के बिल में मुसलमानों से सीधे कोई मतलब नहीं है, लेकिन जब उसको मुसलमान का नाम लेकर कहा जाता है कि हम दो-हमारे दो और वो पांच-उनके पच्चीस, जब ऐसे नारे दिए जाते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है.

सवाल: किसी मुस्लिम लीडर ने कभी मुसलमानों से ये क्यों नहीं कहा कि परिवार छोटा हो तो आर्थिक मजबूती बनी रहेगी ?

जवाब: आपने ये कैसे मान लिया कि मुसलमान के यहां परिवार बड़ा होता ही है. देखिए ये सामाजिक और आर्थिक मामला भी है. हिदू हों या मुसलमान, जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं, उनमें दोनों में एक पैटर्न मिलेगा जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से अगड़े हैं, उनमें भी एक पैटर्न मिलेगा, चाहे मुसलमान हों या हिंदू. ये मुद्दा मुस्लिम-ग़ैर मुस्लिम का नहीं है, ये आर्थिक और शैक्षिक मुद्दा है. मुसलमान पढ़ेगा तो अपने मुद्दों को समझेगा, संभालेगा और ठीक तरह से बीहेव भी करेगा. बीहेवियर का भी तो सवाल है न. ये तो नहीं कहा जा सकता है कि सारा काम मुसलमान सही ही करते हैं, न ही ये कहा जा सकता है कि सारा काम गैर मुस्लिम सही करते हैं. बहुत सा काम सही होते हैं और बहुत से गलत. सुधार के लिए करना ये चाहिए कि आप बंद खिड़कियां खोल दें. वो बंद खिड़की क्या है. वो है इल्म देना. बच्चों को शिक्षा दी जाए, इस पर काम करने की ज़रूरत है.

ये भी पढ़ेंः सपा से ऐसे दूर चलीं गईं मुलायम कुनबे की छोटी बहू अपर्णा...पढ़िए पूरी खबर

सवाल: चुनाव आते ही असदुद्दीन ओवैसी मैदान में आ जाते हैं. कहा जाता है कि वो बीजेपी की बी टीम हैं और मुसलमानों के वोट काटने आते हैं.

जवाब: लोकतंत्र में सबको आने का मौका मिलना चाहिए. किसी को कोई मौका मिला है और कोई आ रहा है तो उसको ए टीम या बी टीम कहने की बजाय लोगों पर छोड़ देना चाहिए, जिसके उम्मीदवार अच्छे होंगे, वो आगे बढ़ेंगा.

सवाल: क्या कोई ऐसी सूरत होगी कभी कि चुनावों में मजहब या जात-पाति की बात नहीं होगी, सरकार की उपलब्धियों पर चुनाव लड़े जाएंगे.

जवाब: ऐसा ख्वाब ज़रूर देखना चाहिए हमको कि ऐसा हमारा मुल्क हो जाए. बात ये है कि कुछ लोगों ने इसका ये आसान तरीका ढूंढ़ लिया है. राजनैतिक दल भी इसी में सहूलियत देखते हैं. जातीय और धार्मिक समीकरण बनाते हैं और उसकी गंद बहुत दिनों तक रहती है. कई मर्तबा तो दिलों में बैठ ही जाती है वो, निकलती नहीं है. निकलेगी नहीं तो डिवीज़न होगा. हम लोग ऐसे ही रह गए हैं आज कल (Living together separately) रहते साथ हैं, लेकिन सबने अपनी अपनी दुकान अलग लगा रखी है. ये अच्छा नहीं है.

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लखनऊ/नई दिल्ली: जमीयत उलमा ए हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी से ईटीवी भारत की टीम ने खास बातचीत की. पेश है एक्स्क्लूसिव इंटरव्यू के खास अंश.

सवाल: उत्तर प्रदेश समेत पांच सूबों में चुनाव हैं. यूपी में 80 और 20 की बात शुरू हो गई है. इतने खुल्लमखुल्ला कभी कोई ऐलान हुआ नहीं था. इसका भारतीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा.

जवाब: देखिए, इसके दो मायने निकल सकते हैं. एक तो वो जो हम और आप समझ रहे हैं और अगर वो मायने निकलते हैं तो ये बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका असर सिर्फ राजनीति पर नहीं पड़ेगा, बल्कि समाज पर और देश पर पड़ेगा. हम हमेशा से ये कोशिश करते चले आए हैं कि अगर मुसलमान की बात हम करते भी हैं, तो वो मुसलमान होने की हैसियत से नहीं, बल्कि भारतीय मुसलमान होने की हैसियत से करते हैं. उसका भारतीय होना, उसके मुसलमान होने पर हावी होता है. एक भारतीय नागरिक को जो मौके मिलते हैं, जो इंसाफ मिलता है, जो उसका अधिकार बनता है, वो मिलना चाहिए, इसलिए नहीं कि वो मुसलमान है, इसलिए उसको कोई स्पेशल चीज़ मिले बल्कि इसलिए कि वो भारत का नागरिक है और अगर वो कमज़ोर है, तो भारत, भारत के लोग, भारत का सिस्टम उसे मजबूत करें. उनकी मज़बूती भारत की मज़बूती है. वो कमज़ोर होगा, एलियनेट होगा, साइडलाइन किया जाएगा या कम्युनल लाइन्स पर उसे बांटा जाएगा, तो ये भारत का नुकसान है, 80 और 20 की बात को मैं बहुत दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं. ये मुसलमान के लिए भी अच्छा नहीं है, दूसरों के लिए भी अच्छा नहीं है. ये देश के लिए भी अच्छा नहीं है।

सवाल: राइट विंग पार्टियां अक्सर कहती हैं कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है. कहीं ये 80 और 20 की बात उसी की प्रतिक्रिया में तो नहीं आ रही ? तुष्टीकरण हुआ हो या नहीं, किसी पार्टी ने मुसलमानों का फायदा नहीं किया और इस लिहाज़ से नुकसान हुआ है, ऐसा आप मानते हैं.

जवाब: राइट विंग पार्टियों से पूछिए कि तुष्टीकरण का मतलब बता दें और ज़रा ये समझा दें कि तुष्टीकरण अगर हुआ है तो कैसे. कोई तुष्टीकरण नहीं हुआ है, अब तो लोगों ने भी ये कहना छोड़ दिया है. आज की तारीख में आमतौर पर मुसलमान एजुकेशनली और सोशली बैकवर्ड है फिर उसे एलियनेट कर दिया गया है मुसलमान-मुसलमान बोल कर बहुत सारे वाकयात हो रहे हैं लगातार. उत्तर प्रदेश की या पूरे देश की बात करें , तो ये बहुत दुखद है और ये स्थिति अचानक नहीं बनी है. निश्चित तौर पर इसमें 75 साल लगे हैं. धर्म के नाम पर विभाजन तो सच्चाई है, लेकिन जो भारत का मुसलमान भारत में रह गया था, उसमें से ज़्यादातर 99.99 फीसदी लोग मजदूर वर्ग के लोग थे तो पिछले 75 सालों में मुसलमानों ने बहुत सी उपलब्धियां भी हासिल की हैं. अपनी मेहनत से साइंस में, नेचुरल साइंस में, मेडिकल में, शिक्षा के क्षेत्र में, व्यापार में बहुत कुछ हासिल किया है. ये शिकायत अपनी जगह जायज़ है कि बराबरी के मौके हमें नहीं मिले. इसके बावजूद पूरे उपमहाद्वीप के मुसलमानों से अगर तुलना करें, तो भारत के मुसलमानों ने किसी से कम हासिल नहीं किया है, बल्कि ज़्यादा ही किया है.

सवाल: आपको ऐसा क्यों लगता है कि मुसलमानों को बराबरी के मौके नहीं मिले.

जवाब: अगर मुसलमान शिक्षा के मामले में पिछड़ा है, तो क्यों पिछड़ा रह गया. मुस्लिम इलाकों में शिक्षण संस्थाओं को देख लीजिए. सरकार की मदद से जो स्कूल चलाए जाते हैं, वो आज भी और इससे पहले भी दूसरों के मुकाबले में कमज़ोर नज़र आता हैं लेकिन इसके बावजूद इस मुल्क और इस मुल्क के लोगों की मदद से मुसलमानों ने अपनी मेहनत से बहुत कुछ हासिल किया है. हम शुक्रिया अदा करना चाहते हैं इस देश का और इस देश के लोगों का.

सवाल: अगर 75 साल से मुसलमानों के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उसका ज़िम्मेवार कौन है ?

जवाब: राजनैतिक दल और खुद हम, देखिए हम अपने ऊपर से ज़िम्मेवारी को हटा दें और कहें कि ये उनका काम है, तो ऐसा नहीं होता. काम तो खुद ही करना होता है, फिर वो मुसलमान हो या कोई और कौम हो. अगर इस मुल्क में मेहनत नहीं करेंगे, तो कोई भी हो, उसे क्या मिलेगा. घर में भी उसे बच्चे की कद्र होती है, जो मेहनती होता है, जो शरीफ, ईमानदार,सच्चा होता है और मां-बाप की बात मानता है तो हमारी भी कमज़ोरी है और सरकारों की भी कमज़ोरी है.

सवाल: एलियनेशन की या अलग-थलग पड़ने की जो भावना है, वो क्यों है ?

जवाब: प्रोपेगैंडे का ज़्यादा असर है और इस तरह की घटनाएं भी हो रही हैं।

सवाल: ये घटनाएं तो अभी हो रही हैं। इससे पहले ?

जवाब: इससे पहले दूसरे अंदाज़ की होती थीं, अब दूसरे अंदाज़ की होती हैं. अब ‘हेट क्राइम’ बढ़ गए हैं और उनकी इंटेन्सिटी भी बढ़ गई है. बोलना, फिर बोलने वाले के खिलाफ कार्रवाई न होना, या फिर दिखावे की कार्रवाई होना, इस तरह की चीज़ें हो रही हैं.

सवाल: आमतौर पर बीजेपी जैसी पार्टियां ये मान कर चलती हैं कि उन्हें मुसलमानों के वोट तो मिलने नहीं हैं तो वो उसी हिसाब से हिंदुओं का वोट मैनेज करते हैं लेकिन कोई एक इतनी बड़ी कम्युनिटी ये तय कर ले कि किसी खास पार्टी को वोट देना ही नहीं है, तो इसे आप लोकतंत्र के लिए खतरनाक मानते हैं.

जवाब: ये मुनासिब नहीं है लोकतंत्र के लिए भी, खुद उस कम्युनिटी के लिए भी मुनासिब नहीं है कि कोई एक राजनैतिक दल मुसलमानों के बारे में ये समझ ले कि ये तो हमें मिलेंगे ही नहीं किसी क़ीमत पर तो ये न उस पार्टी के लिए अच्छा है, न उस लोकतंत्र के लिए, न उस कम्युनिटी के लिए अच्छा है और न ही दूसरी कम्युनिटी के लिए अच्छा है. सबके लिए एक फेयर सिस्टम हो, जिसका जहां जी चाहेगा जाएगा. एक राज्य के सीएम ने कहा था कि उन्हें हमारा वोट ही नहीं चाहिए. यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है. एक नेशनल लीडर अगर ऐसी बात कर रहा है तो हमारे लिए भी उसके पीछे एक मैसेज है.

सवाल: भारतीय राजनीति में मुसलमानों की जो हिस्सेदारी है, आप उससे संतुष्ट हैं ?

जवाब: वैसे तो इंसान हमेशा असंतुष्ट ही रहता है. डेमोक्रेसी है, तो मोटे तौर पर गिनती तो होगी कि प्रतिनिधित्व कितना है. उससे ज़्यादा अहम ये है कि अगर इंसाफ करने वाले लोग, एक विज़न रखने वाले लोग, चाहे वो किसी भी समुदाय के हों, अगर वो सिस्टम में मौजूद रहेंगे, तो मुल्क का फायदा होगा, मुसलमान का फायदा होगा. अब मुसलमान हो और मुसलमान के काम का न हो, ऐसे मुसलमान का क्या फायदा.

सवाल: ऐसा कोई लीडर है आपकी निगाह में ?

जवाब: बहुत सारे हैं, अब मैं किस किस का नाम लूं. हर पार्टी में ऐसे बहुत सारे लोग बैठे हुए हैं, जिनका मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है, हैं वो मुसलमान. पोलिटिकल पार्टीज़ ने मुसलमानों के पोलिटिकल लीडर नहीं बनाए, पोलिटिकल पार्टीज़ के मुस्लिम लीडर्स बनाए, मुझे इस पर कोई ऐतराज़ भी नहीं है इसलिए कि अगर वो पार्टियां और उनके दूसरे गैर-मुस्लिम नेता मुसलमानों के साथ काम करने लगें, मुसलमानों के मुद्दों को हल करने लगें तो फिर मुसलमान लीडर की वहां क्या ज़रूरत है.

सवाल: और ये लोकतंत्र के लिए भी अच्छा है ?

जवाब: आज़ादी के बाद से लेकर आज तक आप देख लीजिए. मुसलमानों ने किसी मुसलमान नेता को अपना लीडर नहीं बनाया. इसी को लोग शिकायत भी करते हैं कि ये तो फंसे हुए हैं तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के चक्कर में. इससे इनका तुष्टीकरण हो जाता है, फायदा होता नहीं है, ग़लत इस्तेमाल होता है, तो आप उन्हें ईमानदारी से लेकर तो देखिए. ताली तो दोनों हाथ से बजती है. ये मुसलमानों के लिए और मुल्क के लिए भी अच्छा नहीं है कि किसी एक पार्टी को हराने के लिए एक जगह वोट करें तो जिसके पास मुसलमान जा सकता है, लेकिन जा नहीं रहा है, उसको भी तो लेने की एक गंभीर कोशिश करनी है. वो कब की गई ? कभी कोई गंभीर कोशिश की गई ? अगर हो तो मुझे इस बात का अटूट विश्वास है कि मुसलमान वहां भी जा सकता है.

सवाल: आपने कहा कि किसी एक पार्टी को किसी भी कीमत पर हराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उससे क्या नुकसान है.

जवाब: एक तो ये कि जिसे हराने के लिए जा रहे हो, उसे लगता है कि ये तो हमे हर हाल में हराने के लिए लगे हैं, तो हमारे तो ये हैं ही नहीं, हम किसी और को देखेंगे. जैसे एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कह दिया कि हमें मियां की ज़रूरत नहीं है, और जिनके पास जा रहे हैं , उनको ये लगता है कि ये करेंगे क्या, हमारे पास नहीं आएंगे तो जाएंगे कहां. इनको तो उस पार्टी को हराना ही है हर हाल में। तो नुकसान ही नुकसान है, फायदे का तो सवाल ही नहीं है.

सवाल: क्या सरकार के कुछ फैसलों से भी मुसलमानों में नाराज़गी है ? जैसे तीन तलाक पर कानून, सीएए या जनसंख्या कानून पर प्राइवेट मेंबर बिल लाया गया, उससे ?

जवाब: जनसंख्या के बिल में मुसलमानों से सीधे कोई मतलब नहीं है, लेकिन जब उसको मुसलमान का नाम लेकर कहा जाता है कि हम दो-हमारे दो और वो पांच-उनके पच्चीस, जब ऐसे नारे दिए जाते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है.

सवाल: किसी मुस्लिम लीडर ने कभी मुसलमानों से ये क्यों नहीं कहा कि परिवार छोटा हो तो आर्थिक मजबूती बनी रहेगी ?

जवाब: आपने ये कैसे मान लिया कि मुसलमान के यहां परिवार बड़ा होता ही है. देखिए ये सामाजिक और आर्थिक मामला भी है. हिदू हों या मुसलमान, जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं, उनमें दोनों में एक पैटर्न मिलेगा जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से अगड़े हैं, उनमें भी एक पैटर्न मिलेगा, चाहे मुसलमान हों या हिंदू. ये मुद्दा मुस्लिम-ग़ैर मुस्लिम का नहीं है, ये आर्थिक और शैक्षिक मुद्दा है. मुसलमान पढ़ेगा तो अपने मुद्दों को समझेगा, संभालेगा और ठीक तरह से बीहेव भी करेगा. बीहेवियर का भी तो सवाल है न. ये तो नहीं कहा जा सकता है कि सारा काम मुसलमान सही ही करते हैं, न ही ये कहा जा सकता है कि सारा काम गैर मुस्लिम सही करते हैं. बहुत सा काम सही होते हैं और बहुत से गलत. सुधार के लिए करना ये चाहिए कि आप बंद खिड़कियां खोल दें. वो बंद खिड़की क्या है. वो है इल्म देना. बच्चों को शिक्षा दी जाए, इस पर काम करने की ज़रूरत है.

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सवाल: चुनाव आते ही असदुद्दीन ओवैसी मैदान में आ जाते हैं. कहा जाता है कि वो बीजेपी की बी टीम हैं और मुसलमानों के वोट काटने आते हैं.

जवाब: लोकतंत्र में सबको आने का मौका मिलना चाहिए. किसी को कोई मौका मिला है और कोई आ रहा है तो उसको ए टीम या बी टीम कहने की बजाय लोगों पर छोड़ देना चाहिए, जिसके उम्मीदवार अच्छे होंगे, वो आगे बढ़ेंगा.

सवाल: क्या कोई ऐसी सूरत होगी कभी कि चुनावों में मजहब या जात-पाति की बात नहीं होगी, सरकार की उपलब्धियों पर चुनाव लड़े जाएंगे.

जवाब: ऐसा ख्वाब ज़रूर देखना चाहिए हमको कि ऐसा हमारा मुल्क हो जाए. बात ये है कि कुछ लोगों ने इसका ये आसान तरीका ढूंढ़ लिया है. राजनैतिक दल भी इसी में सहूलियत देखते हैं. जातीय और धार्मिक समीकरण बनाते हैं और उसकी गंद बहुत दिनों तक रहती है. कई मर्तबा तो दिलों में बैठ ही जाती है वो, निकलती नहीं है. निकलेगी नहीं तो डिवीज़न होगा. हम लोग ऐसे ही रह गए हैं आज कल (Living together separately) रहते साथ हैं, लेकिन सबने अपनी अपनी दुकान अलग लगा रखी है. ये अच्छा नहीं है.

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