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करगिल विजय दिवस: लखनऊ में आज भी मौजूद हैं वीर शहीदों की निशानी

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में वर्ष 1999 के करगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों की याद में शहीद वाटिका बनवाया गया था. जहां कई वीर शहीदों की निशानी आज भी मौजूद है.

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Published : Jul 26, 2020, 9:32 PM IST

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राजधानी में आज भी मौजूद देश के शहीदों की निशानी.

लखनऊ: राजधानी में बने शहीद वाटिका में आज भी शहीद हुए देश के बीर सपूतों की निशानी मौजूद है. ठीक 21 साल पहले करगिल की बर्फीली पहाड़ियों में दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हुए जवान की याद में बनाए गए इस शहीद स्मारक में आज भी उनकी निशानी मौजूद है. अपनी सेना के जिस शौर्य को सराह रहे हैं, उसकी एक निशानी यहां की शहीद वाटिका है, जो राजधानी की शान बढ़ा रही है.

राजधानी में आज भी मौजूद देश के शहीदों की निशानी.

बीमार पत्नी को छोड़कर हो गए शहीद
15 कुमाऊं में तैनात शहीद लांसनायक केवलानंद द्विवेदी की पत्नी कमला की बहुत ज्यादा तबीयत खराब थी. वह 26 मार्च 1999 को उनको देखने के लिए घर आए थे. इसी समय उनको पता चला कि युद्ध छिड़ गया है और वह 30 मई को वापस करगिल रवाना हो गए. आखिरी बार उन्होंने 30 जून को अपनी पत्नी को फोन किया और कहा कि कल मैं दुश्मनों को नेस्तनाबूद करके आऊंगा, तब बात करूंगा. ईश्वर से प्रार्थना करना कि हमें विजय मिले. 6 जून को केवलानंद द्विवेदी की टुकड़ी और दुश्मनों के बीच जमकर घमासान हुआ. ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों की गोलियों का सामना करते हुए केवलानंद द्विवेदी आगे बढ़ रहे थे, तभी एक गोली उनके सीने में आकर लगी और वह गिर गए, लेकिन आखिरी समय तक दुश्मनों पर गोलियां बरसाते रहे. काफी देर तक मोर्चा लेने के बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए.

देश के लिए गंवाई जान
कैप्टन आदित्य मिश्र लखनऊ के कैथड्रेल ऑल चिल्ड्रन एकेडमी के बाद आगे की शिक्षा के लिए पिता के साथ जम्मू-कश्मीर चले गए. 8 जून 1996 को सेना की सिग्नल कोर में सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन लिया. सितंबर 1998 में कैप्टन आदित्य की तैनाती लद्दाख में हुई, जहां से वह 19 जून 1999 को बटालिक सेक्टर पहुंचे. यहां दुश्मनों के कब्जे से 17 हजार फीट ऊंची पॉइंट 5203 पोस्ट को छुड़ाने के लिए उनकी लद्दाख स्काउट टीम ने दुश्मनों पर हमला बोल दिया. भारतीय सेना का पोस्ट पर कब्जा हो गया और कैप्टन आदित्य अपने टुकड़ी के साथ नीचे आ गए. कैप्टन आदित्य संचार लाइन बिछाने दोबारा पोस्ट पर गए तो दुश्मनों ने उन पर हमला बोल दिया. इस हमले में कैप्टन आदित्य घायल हो गए, लेकिन उन्होंने संचालन बिछाते-बिछाते दुश्मन की सेना पर हमला बोला और अपने प्राण छोड़ दिए.

दुश्मनों को किया परास्त
शहर के एकमात्र परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय को 6 जून 1997 को 11 गोरखा राइफल में कमीशन प्राप्त हुआ. उनकी पहली तैनाती जम्मू-कश्मीर के नौशेरा सेक्टर में हुई थी. इसके बाद वह सियाचिन की चौकी पर देश की रक्षा के लिए पहुंचे. 4 मई 1999 को उनकी पलटन को पुणे की जगह करगिल कूच करने के आदेश दिया गया. कैप्टन पांडेय को 2 और 3 जुलाई को खालूबार पोस्ट आजाद कराने का जिम्मा मिला. वहां पहुंचकर कैप्टन मनोज ने कई बंकरों को नष्ट करने के लिए कूच कर गए. वह आगे बढ़ रहे थे, तभी दुश्मनों का गोला उनके सामने आकर गिरा. वह बुरी तरह घायल हो गए, उन्होंने सभी बंकरों को आजाद कराते हुए अपने प्राण त्याग दिए.

लखनऊ: राजधानी में बने शहीद वाटिका में आज भी शहीद हुए देश के बीर सपूतों की निशानी मौजूद है. ठीक 21 साल पहले करगिल की बर्फीली पहाड़ियों में दुश्मन से लोहा लेते हुए शहीद हुए जवान की याद में बनाए गए इस शहीद स्मारक में आज भी उनकी निशानी मौजूद है. अपनी सेना के जिस शौर्य को सराह रहे हैं, उसकी एक निशानी यहां की शहीद वाटिका है, जो राजधानी की शान बढ़ा रही है.

राजधानी में आज भी मौजूद देश के शहीदों की निशानी.

बीमार पत्नी को छोड़कर हो गए शहीद
15 कुमाऊं में तैनात शहीद लांसनायक केवलानंद द्विवेदी की पत्नी कमला की बहुत ज्यादा तबीयत खराब थी. वह 26 मार्च 1999 को उनको देखने के लिए घर आए थे. इसी समय उनको पता चला कि युद्ध छिड़ गया है और वह 30 मई को वापस करगिल रवाना हो गए. आखिरी बार उन्होंने 30 जून को अपनी पत्नी को फोन किया और कहा कि कल मैं दुश्मनों को नेस्तनाबूद करके आऊंगा, तब बात करूंगा. ईश्वर से प्रार्थना करना कि हमें विजय मिले. 6 जून को केवलानंद द्विवेदी की टुकड़ी और दुश्मनों के बीच जमकर घमासान हुआ. ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों की गोलियों का सामना करते हुए केवलानंद द्विवेदी आगे बढ़ रहे थे, तभी एक गोली उनके सीने में आकर लगी और वह गिर गए, लेकिन आखिरी समय तक दुश्मनों पर गोलियां बरसाते रहे. काफी देर तक मोर्चा लेने के बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए.

देश के लिए गंवाई जान
कैप्टन आदित्य मिश्र लखनऊ के कैथड्रेल ऑल चिल्ड्रन एकेडमी के बाद आगे की शिक्षा के लिए पिता के साथ जम्मू-कश्मीर चले गए. 8 जून 1996 को सेना की सिग्नल कोर में सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन लिया. सितंबर 1998 में कैप्टन आदित्य की तैनाती लद्दाख में हुई, जहां से वह 19 जून 1999 को बटालिक सेक्टर पहुंचे. यहां दुश्मनों के कब्जे से 17 हजार फीट ऊंची पॉइंट 5203 पोस्ट को छुड़ाने के लिए उनकी लद्दाख स्काउट टीम ने दुश्मनों पर हमला बोल दिया. भारतीय सेना का पोस्ट पर कब्जा हो गया और कैप्टन आदित्य अपने टुकड़ी के साथ नीचे आ गए. कैप्टन आदित्य संचार लाइन बिछाने दोबारा पोस्ट पर गए तो दुश्मनों ने उन पर हमला बोल दिया. इस हमले में कैप्टन आदित्य घायल हो गए, लेकिन उन्होंने संचालन बिछाते-बिछाते दुश्मन की सेना पर हमला बोला और अपने प्राण छोड़ दिए.

दुश्मनों को किया परास्त
शहर के एकमात्र परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय को 6 जून 1997 को 11 गोरखा राइफल में कमीशन प्राप्त हुआ. उनकी पहली तैनाती जम्मू-कश्मीर के नौशेरा सेक्टर में हुई थी. इसके बाद वह सियाचिन की चौकी पर देश की रक्षा के लिए पहुंचे. 4 मई 1999 को उनकी पलटन को पुणे की जगह करगिल कूच करने के आदेश दिया गया. कैप्टन पांडेय को 2 और 3 जुलाई को खालूबार पोस्ट आजाद कराने का जिम्मा मिला. वहां पहुंचकर कैप्टन मनोज ने कई बंकरों को नष्ट करने के लिए कूच कर गए. वह आगे बढ़ रहे थे, तभी दुश्मनों का गोला उनके सामने आकर गिरा. वह बुरी तरह घायल हो गए, उन्होंने सभी बंकरों को आजाद कराते हुए अपने प्राण त्याग दिए.

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