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अखिलेश यादव के सपा कार्यकारिणी भंग करने की ये है खास वजह - उत्तर प्रदेश समाचार

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने संगठन के तमाम मोर्चा प्रकोष्ठ कार्यकारिणी को भंग कर दिया है. इस स्पेशल रिपोर्ट में जानिए कार्यकारिणी भंग करने की क्या खास वजह है...

अखिलेश यादव.
अखिलेश यादव.
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Published : Jul 4, 2022, 5:05 PM IST

लखनऊः समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पिछले कुछ चुनावों में लगातार मिल रही हार से काफी चिंतित और असहज हो चुके हैं. रामपुर-आजमगढ़ लोक सभा के उपचुनाव में मिली हार के बाद संगठन के नेताओं से विस्तृत रिपोर्ट मांगने के साथ ही अखिलेश यादव ने संगठन के तमाम मोर्चा प्रकोष्ठ कार्यकारिणी को भंग कर दिया है. उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है, जिससे आने वाले समय में संगठन में कहां क्या कमियां रह गई थी? कहां क्या कुछ किया जाना है? जिससे आने वाले चुनाव में समाजवादी पार्टी को जीत दिलाई जा सके.

राजनीतिक विश्लेषक दिलीप अग्निहोत्री.

गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी को लगातार 2014 लोकसभा चुनाव, 2017 का विधानसभा चुनाव और फिर 2019 का लोकसभा चुनाव में अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. कई छोटे दलों को साथ लेकर 2022 के विधानसभा चुनाव में भी उतरे लेकिन सरकार नहीं बना पाए. चौंकाने वाली तो ये है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में रामपुर और आजमगढ़ जैसी सीटें जीतने वाली सपा उपचुनाव में जीत बरकरार नहीं रख पाई. जिसको लेकर अखिलेश यादव के नेतृत्व पर ही सवाल उठ रहे हैं.

इसे भी पढ़ें-अखिलेश यादव ने सपा की सभी इकाइयों को किया भंग, जानिए क्या है इसके पीछे की वजह

राजनीतिक जानकारों के अनुसार अब सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को नए सिरे सेअपनी रणनीति बनानी होगी. इसके साथ ही संगठन निर्माण को बेहतर करते हुए युवा और ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को भी जिम्मेदारी देना होगा. अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर प्रदेश कार्यकारिणी के साथ ही समाजवादी पार्टी के अन्य फ्रंटल संगठनों में किन प्रमुख चेहरों को जिम्मेदारी देते हैं. जिससे समाजवादी पार्टी में असंतोष ना होने पाए और समन्वय बनाते हुए सब को समायोजित किया जा सके.

सपा नेता और कार्यकर्ता नाराज
बता दें कि समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी नाराजगी है कि अखिलेश यादव खुद बाहर की दुनिया से वाकिफ नहीं हो रहे हैं. सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों के साथ ही राय मशविरा कर रहे हैं. अखिलेश रामपुर और आजमगढ़ जैसे अपने जीते हुए क्षेत्रों में उपचुनाव के प्रचार में नहीं गए. जिसका खामियाजा हार के रूप में भुगतना पड़ा. ऐसे में अखिलेश यादव को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी होगी बल्कि खुद मैदान में उतरकर भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ संघर्ष करना होगा. उन्हें ट्वीटर पर सवाल उठाने के बजाय जनता के बीच जाना होगा, जिससे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरा जा सका.

संगठन के चेहरे बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा
राजनीतिक विश्लेषक दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि अखिलेश यादव ने चुनाव परिणामों की समीक्षा शुरू की है. इसके अंतर्गत सभी इकाइयों को भंग कर दिया है. इस प्रकार अघोषित रूप से यह स्वीकार किया है कि चुनाव में कोई धांधली नहीं हुई थी. पराजय के कारण पार्टी में ही निहित थे. आजमगढ़ और रामपुर जैसे गढ़ों में पराजय के बाद पार्टी के भीतर ही सुगबुगाहट होने लगी. सहयोगी दलों ने भी नसीहत दी, सवाल नेतृत्व के लिए थे. जिस पर ट्विटर में सक्रियता और जमीन पर निष्क्रियता के आरोप लगते रहे है. चुनाव के पहले और बाद में नेतृत्व ऐसे मुद्दे उठाने में विफल रहा, जिससे सत्ता पक्ष को परेशानी हो. इतना ही नहीं प्रतिपक्ष ने कई बार अपनी ही फजीहत कराई है. फिलहाल पराजय का ठीकरा संगठन पर फूटा है, लेकिन परिवार आधारित पार्टियां सुप्रीमों के नाम पर ही चलती है. उन्हीं के नाम पर पार्टी को वोट मिलते है. उन्हीं के नाम पर जय पराजय होती है. संगठन भी उन्हीं के इशारों पर चलता है. ऐसे में संगठन के चेहरे बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आत्मचिंतन केवल नेतृत्व को करना होगा. परिवार आधारित दल उन्हीं को देखकर संचालित होते हैं.

लखनऊः समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पिछले कुछ चुनावों में लगातार मिल रही हार से काफी चिंतित और असहज हो चुके हैं. रामपुर-आजमगढ़ लोक सभा के उपचुनाव में मिली हार के बाद संगठन के नेताओं से विस्तृत रिपोर्ट मांगने के साथ ही अखिलेश यादव ने संगठन के तमाम मोर्चा प्रकोष्ठ कार्यकारिणी को भंग कर दिया है. उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है, जिससे आने वाले समय में संगठन में कहां क्या कमियां रह गई थी? कहां क्या कुछ किया जाना है? जिससे आने वाले चुनाव में समाजवादी पार्टी को जीत दिलाई जा सके.

राजनीतिक विश्लेषक दिलीप अग्निहोत्री.

गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी को लगातार 2014 लोकसभा चुनाव, 2017 का विधानसभा चुनाव और फिर 2019 का लोकसभा चुनाव में अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. कई छोटे दलों को साथ लेकर 2022 के विधानसभा चुनाव में भी उतरे लेकिन सरकार नहीं बना पाए. चौंकाने वाली तो ये है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में रामपुर और आजमगढ़ जैसी सीटें जीतने वाली सपा उपचुनाव में जीत बरकरार नहीं रख पाई. जिसको लेकर अखिलेश यादव के नेतृत्व पर ही सवाल उठ रहे हैं.

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राजनीतिक जानकारों के अनुसार अब सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को नए सिरे सेअपनी रणनीति बनानी होगी. इसके साथ ही संगठन निर्माण को बेहतर करते हुए युवा और ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को भी जिम्मेदारी देना होगा. अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर प्रदेश कार्यकारिणी के साथ ही समाजवादी पार्टी के अन्य फ्रंटल संगठनों में किन प्रमुख चेहरों को जिम्मेदारी देते हैं. जिससे समाजवादी पार्टी में असंतोष ना होने पाए और समन्वय बनाते हुए सब को समायोजित किया जा सके.

सपा नेता और कार्यकर्ता नाराज
बता दें कि समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी नाराजगी है कि अखिलेश यादव खुद बाहर की दुनिया से वाकिफ नहीं हो रहे हैं. सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों के साथ ही राय मशविरा कर रहे हैं. अखिलेश रामपुर और आजमगढ़ जैसे अपने जीते हुए क्षेत्रों में उपचुनाव के प्रचार में नहीं गए. जिसका खामियाजा हार के रूप में भुगतना पड़ा. ऐसे में अखिलेश यादव को नए सिरे से अपनी रणनीति बनानी होगी बल्कि खुद मैदान में उतरकर भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ संघर्ष करना होगा. उन्हें ट्वीटर पर सवाल उठाने के बजाय जनता के बीच जाना होगा, जिससे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरा जा सका.

संगठन के चेहरे बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा
राजनीतिक विश्लेषक दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि अखिलेश यादव ने चुनाव परिणामों की समीक्षा शुरू की है. इसके अंतर्गत सभी इकाइयों को भंग कर दिया है. इस प्रकार अघोषित रूप से यह स्वीकार किया है कि चुनाव में कोई धांधली नहीं हुई थी. पराजय के कारण पार्टी में ही निहित थे. आजमगढ़ और रामपुर जैसे गढ़ों में पराजय के बाद पार्टी के भीतर ही सुगबुगाहट होने लगी. सहयोगी दलों ने भी नसीहत दी, सवाल नेतृत्व के लिए थे. जिस पर ट्विटर में सक्रियता और जमीन पर निष्क्रियता के आरोप लगते रहे है. चुनाव के पहले और बाद में नेतृत्व ऐसे मुद्दे उठाने में विफल रहा, जिससे सत्ता पक्ष को परेशानी हो. इतना ही नहीं प्रतिपक्ष ने कई बार अपनी ही फजीहत कराई है. फिलहाल पराजय का ठीकरा संगठन पर फूटा है, लेकिन परिवार आधारित पार्टियां सुप्रीमों के नाम पर ही चलती है. उन्हीं के नाम पर पार्टी को वोट मिलते है. उन्हीं के नाम पर जय पराजय होती है. संगठन भी उन्हीं के इशारों पर चलता है. ऐसे में संगठन के चेहरे बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आत्मचिंतन केवल नेतृत्व को करना होगा. परिवार आधारित दल उन्हीं को देखकर संचालित होते हैं.

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