लखनऊः हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत लिए गए मजिस्ट्रेटी बयान को सिद्ध करने के लिए बयान रिकॉर्ड करने वाले मजिस्ट्रेट को गवाही के लिए नहीं बुलाया जा सकता है. न्यायालय ने कहा कि धारा 164 के तहत रिकॉर्ड किया बयान एक सार्वजनिक दस्तावेज है. इसे सिद्ध करने के लिए मजिस्ट्रेट को समन करने की कोई आवश्यकता नहीं है.
यह आदेश न्यायमूर्ति आलोक माथुर की एकल सदस्यीय पीठ ने सीबीआई की ओर से दाखिल याचिका को खारिज करते हुए पारित किया है. याचिका में कहा गया था कि 26 नवम्बर 2008 को लखनऊ जनपद न्यायालय के अधिवक्ताओं ने हड़ताल की थी. इस दौरान सेंट्रल बार एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के नेतृत्व में अधिवक्ताओं के एक समूह ने चौकीदार मोहम्मद अनीस और लिफ्ट ऑपरेटर दिनेश कुमार वर्मा को बुरी तरह से पीटा था. इन दोनों ने ही इमारत और लिफ्ट की चाभी वकीलों को देने से इंकार कर दिया था.
पीड़ित मुकर गए बयान से
इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई थी. बाद में हाईकोर्ट के आदेश पर मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई. सीबीआई ने दोनों पीड़ितों का मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के तहत बयान कराया. इसमें उन्होंने खुद को नामजद व्यक्तियों द्वारा पीटने की पुष्टि की. इस मामले के ट्रायल के दौरान दोनों ने अपना बयान बदल दिया. इस पर सीबीआई ने दोनों के बयान की पुष्टि के लिए बयान रिकॉर्ड करने वाले मजिस्ट्रेट की गवाही कराने की मांग निचली अदालत में की थी. इसे निचली अदालत ने खारिज कर दिया. इस पर सीबीआई ने हाईकोर्ट में निचली अदालत के आदेश को चुनौती दी थी
यह कहा न्यालय ने
न्यायालय ने कहा कि धारा 164 के तहत रिकॉर्ड किया गया बयान एक सार्वजनिक दस्तावेज है. इसलिए सम्बंधित मजिस्ट्रेट को समन करने की कोई आवश्यकता नहीं है. इसके साथ ही न्यायालय ने सीबीआई की याचिका को खारिज कर दिया. हालांकि, प्रसिद्ध कानूनविद बेंथम की एक पंक्ति भी उद्धत की. इसमें कहा कि साक्षी न्याय के लिए आंख और कान होते हैं. यदि साक्षी स्वयं न्याय के लिए आंख और कान बनने में असमर्थ है तो उस मामले का परीक्षण पंगु हो जाता है और यह एक निष्पक्ष परीक्षण नहीं रह जाता