लखनऊ: हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक मामले में टिप्पणी की है कि वित्तीय व आर्थिक निर्णयों को चुनौती देने के लिए जनहित याचिका को एक हथियार के तौर पर प्रयोग नहीं किया जा सकता है. न्यायालय ने इस टिप्पणी के साथ एक टेंडर प्रक्रिया को चुनौती देने वाली जनहित याचिका को खारिज कर दिया. यह टिप्पणी न्यायमूर्ति रितुराज अवस्थी और न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया की खंडपीठ ने शिवम वाजपेई की याचिका पर की.
याची ने उत्तर प्रदेश ग्रामीण आजीविका मिशन की टेंडर प्रक्रिया में बिड आमंत्रण के लिए जारी की गई नोटिस को चुनौती दी थी. याची का कहना था कि एक फर्म को फाएदा पहुंचाने के मकसद से कोविड महामारी के दौरान जल्दबाजी में उक्त निविदा आमंत्रित की गई है. वहीं, राज्य सरकार की ओर से याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि उक्त टेंडर प्रक्रिया में 17 फर्मों ने भाग लिया है. न्यायालय ने याची से जनहित याचिका दाखिल करने की प्रमाणिकता के बारे में जवाब मांगा तो याची का कहना था कि वह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का पौत्र है और भारतीय दलित पैंथर नाम के एसोसिएशन का राज्य प्रमुख है और भ्रष्टाचार इत्यादि के मामलों के खिलाफ आवाज उठाता रहता है.
पढ़ें: खुशी दुबे को मानवीय आधार पर किया जाए रिहा- उमेश द्विवेदी
हालांकि, जवाब से न्यायालय संतुष्ट नहीं हुई तो न्यायालय ने कहा कि टेंडर प्रक्रिया में 17 फर्मों ने भाग लिया है. न्यायालय ने इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि इसमें कोई शक नहीं कि जब एक व्यक्ति सरकार के आर्थिक अथवा वित्तीय निर्णय से खुद को पीड़ित पाता है और ऐसे निर्णय को अविधिक मानता है तो न्यायालय के समक्ष जा सकता है, लेकिन एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दाखिल जनहित याचिका को नहीं सुना जा सकता जिसका ऐसे निर्णय से कोई संबंध ही न हो.