लखनऊ : बारिश का मौसम आते ही सरकारी और संस्थाओं के स्तर पर 'वर्षा जल संचयन' की रस्मी खबरें सामने आने लगती हैं हालांकि हकीकत बहुत ही भयावह है. भूगर्भ जल का दोहन इस कदर किया जा रहा है कि निकट भविष्य में हमें बहुत बड़ी त्रासदी का सामना करना पड़ सकता है. सरकारी स्तर पर अब तक जमीन के नीचे के पानी को निकालने से रोकने या नियम बनाने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए गए हैं. सिंचाई और शहरी पेयजल आपूर्ति का अस्सी फीसदी पानी हम धरती के गर्भ से ही निकालते हैं. वहीं, वर्षा का अधिकांश पानी नदी-नालों के माध्यम से बह जाता है. इस तरह हमारी धरती की कोख खाली होती जा रही है. इस समस्या को लेकर हमने बात की वरिष्ठ भूगर्भ जल वैज्ञानिक आरएस सिन्हा. पेश हैं प्रमुख अंश.
प्रश्न : भूगर्भ जल लगातार नीचे जा रहा है. पानी की समस्या बढ़ती जा रही है. इस समस्या को आप किस तरह से देखते हैं?
उत्तर : देखिए आज जो भी समस्या है, चाहे भूगर्भ जल की बात कहें या जो पानी कम हो रहा है, इसके पीछे बात यह है कि जब हम किसी प्राकृतिक संसाधन का दोहन करते हैं, तो उसका असर उपलब्धता पर पड़ता है. ग्राउंड वाटर के साथ भी यही हुआ. खासतौर से उत्तर प्रदेश में 80 के दशक में जब ग्रीन रिवॉल्यूशन आया, तो हमें जरूरत थी अधिक से अधिक कृषि उपज बढ़ाने की. इस चुनौती को पूरा करने के लिए भूगर्भ जल का बेतहाशा दोहन किया जाने लगा, क्योंकि सबसे सरलता से भूगर्भ जल ही उपलब्ध था. सन 1980-90 के दशक में एक नलकूप क्रांति आई थी. इसका असर यह हुआ कि कृषि उत्पादकता के क्षेत्र में हमने आज कई आयाम बना लिए हैं. गन्ना उत्पादन में हम देश में सबसे अव्वल हैं. चावल में हमारी बहुत अच्छी स्थिति है. हम गेहूं और आलू में भी सबसे ऊपर स्थान रखते हैं. यह इसीलिए है कि हमारे पास प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध है.
कृषि के लिए सिंचाई का मुख्य साधन ग्राउंड वाटर ही है. सिंचित कृषि का 70% ग्राउंड वाटर सही पूरा किया जाता है. यह तब है जब हमारा 75,000 किलोमीटर का नेहरों का सिंचाई तंत्र है. हालांकि किसी न किसी कारण से हम उस पानी का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. किसानों के लिए भी आराम है कि वह एक नलकूप लगाएं और पानी की व्यवस्था कर लें. इसके कारण हमारी अर्थव्यवस्था को बल मिला. हमने कृषि ही नहीं उद्योगों पर ही भी अपनी अधिकांश निर्भरता ग्राउंड वाटर पर ही रखी और अत्यधिक भूगर्भ जल का दोहन शुरू कर दिया. अब स्थिति चिंताजनक हो चुकी है.
प्रश्न : पहले भूगर्भ जल का दोहन कठिन था, सब लोग अपनी जरूरत भर का ही पानी निकालते थे. आज तकनीक ने बहुत क्रांति की है और लोग सबमर्सिबल के माध्यम से अनावश्यक रूप से भूगर्भ जल का दोहन कर रहे हैं. क्या आप इससे सहमत हैं? उत्तर : आपने बिल्कुल सही कहा. हमारी टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस हो गई है. बोरिंग के नए-नए तरीके आ गए हैं. अच्छी मशीनें आ गई हैं, जो पानी निकालती हैं, जिससे हम गहराई तक जा सकते हैं. हमारे पास बिजली की उपलब्धता भी हो गई है. सरकार इसके लिए प्रोत्साहित करती है कि जो किसान नलकूप के लिए कनेक्शन लेंगे उन्हें छूट भी मिलेगी. हमारे लिए प्रकृति ने व्यवस्था की है, कि जो पानी बरसेगा वह धीरे-धीरे जमील सोखेगी और नीचे जाकर स्टोर होगा. जितना बारिश का जल धरती के नीचे जाता है, हमें उतना ही निकालना चाहिए. हमारा क्षेत्र बहुत समृद्ध है, क्योंकि हम गंगा बेसिन के क्षेत्र में रहते हैं, लेकिन हमें उस गहराई के पानी को टच नहीं करना चाहिए. क्योंकि मान लीजिए चार-पांच साल बारिश नहीं हुई और हमारे जलाशय सूख गए या पानी खत्म हो गया, ऐसी स्थिति में हमें पूरी तरह भूगर्भ जल पर ही आश्रित होना पड़ेगा. बरसात के दौरान जो पानी रिचार्ज होता है, हम वह तो निकाल ही लेते हैं, उसके अतिरिक्त भी बड़ी मात्रा में भूगर्भ जल का दोहन कर रहे हैं. इसका कारण है कि किसी पर कोई अंकुश और नियंत्रण नहीं है. इसके लिए सरकार को सोचना पड़ेगा. अन्यथा या जो अदृश्य भूजल है, उसके प्रबंधन में बहुत बड़ी दिक्कतें सामने आ सकती हैं.
प्रश्न : उत्तर प्रदेश में कितने ब्लॉक हैं, जहां भूगर्भ जल की स्थिति डेंजर जोन में पहुंच गई है?
उत्तर : भूगर्भ जल के स्तर का गिरना खतरे को दर्शाता है. अध्ययन में सामने आया है कि 820 विकास खंडों में से 600 से अधिक में भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की गई है. वहीं शहरी क्षेत्र में भी 70% तक भूगर्भ जल में गिरावट दर्ज की गई है. क्षेत्रों में मुख्य रूप से भूगर्भ जल पर ही निर्भरता है.
प्रश्न : पानी की स्थिति को लेकर राज्य सरकार कितना गंभीर है? भूगर्भ जल का दोहन रोकने के लिए क्या कानून है?
उत्तर : 1990 के दशक से भूगर्भ जल के स्तर में गिरावट सामने आने लगी थी. इस दौरान हम लोगों ने चिंता जाहिर की और सरकार को अवगत कराया. सन् 2000 से यहां पर चिंतन शुरू हो गया. 2001 में सरकार रेन वाटर हार्वेस्टिंग की पॉलिसी लेकर आई. इसके बाद संकटग्रस्त क्षेत्रों में तालाब और चेक डैम बनाने का काम शुरू किया गया. प्रदेश में करीब 14,0000 तालाब बन चुके हैं. सवाल उठता है कि यदि इतने सारे तालाब बने हैं, तो उनका असर क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? इसका मतलब यह है कि या तो जो तालाब बने हैं, उनमें जल संचयन ठीक से नहीं हो रहा है, उसे देखने की जरूरत है. दूसरी बात जो हम रिचार्ज करने का सिस्टम बना रहे हैं, उसके सापेक्ष हमारा भूजल दोहन बहुत ज्यादा है. यदि लखनऊ की ही बात करें, तो यहां सवा लाख से ज्यादा सबमर्सिबल बोरिंग हैं.
प्रश्न : किसी का कितना भी छोटा प्लॉट या भूखंड क्यों न हो, वह बेरोकटोक कितना भी भूजल निकाल सकता है. कई लोग टैंकर भरने का व्यवसाय कर रहे हैं. क्या इस पर कोई प्रतिबंध या कानून होना चाहिए?
उत्तर : देखिए हम लगातार इस पर चिंतन कर रहे हैं. 2001 में हम इस पर एक्ट लेकर आए. 2003-2004 में एक एक्ट लाया गया. 2015 तक हम लोग 4-5 एक्ट लाए, लेकिन इनको अप्रूवल नहीं मिला. भारत सरकार में एक सेंट्रल ग्राउंड वॉटर अथॉरिटी बनी हुई है, उसने दबाव डाला कि राज्य अपना कानून खुद बनाएं. 2016 में एक एक्ट का ड्राफ्ट बनाया गया. 2019 में वह अप्रूव हुआ. इसमें हमारा समग्र नियंत्रण कम हो गया. जो एक्ट बनाया उसमें केवल उद्योगों को ही दायरे में लाने की कोशिश की. इससे दोहन में कोई कमी नहीं आई. वर्षा में भी हर साल 20% तक की गिरावट देखी जा रही है. इन सबको देखते हुए चुनौतियां बहुत बड़ी हैं. जब तक हम समग्र रूप से भूगर्भ जल और सतही जल के साथ वर्षा जल का प्रबंधन नहीं करेगी, तब तक उचित परिणाम मिलना मुश्किल है.
प्रश्न : पहले गांव में जो मिट्टी के घर होते थे, वह धीरे-धीरे पक्के हो गए हैं इसलिए तालाबों से मिट्टी निकालने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि गांव में तालाब पटते जा रहे हैं या उन पर कब्जा होता जा रहा है. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में भूगर्भ जल का रिचार्ज कैसे हो पाएगा?
उत्तर : निश्चितरूप से तालाबों के पीछे यही धारणा थी कि वर्षा का जल संचित होकर धीरे-धीरे भूगर्भ जल में चला जाए, लेकिन अब गांव में तालाबों के आसपास तमाम विकास हो गए हैं या उनका कैचमेंट एरिया बाधित हो गया है, जिससे तालाबों में पानी आ ही नहीं पाता. परंपरागत व्यवस्थाएं पूरी तरह बाधित होती जा रही हैं. भूगर्भ जल का संग्रह करने वाली हमारी जो विराजते हैं, हमें उनका ठीक प्रकार से विकास करना चाहिए.
प्रश्न : हमारे दर्शकों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे? वह जल संरक्षण कैसे कर सकते हैं?
उत्तर : बहुत सारे जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाते हैं. लोग आते हैं, भाषण सुनते हैं, लेकिन उसे स्वीकारते नहीं. वैज्ञानिक महत्वपूर्ण बातें बताते हैं, लेकिन लोग इस पर ध्यान नहीं देते. लोगों को यह समझना पड़ेगा कि जल सीमित है. प्रकृति ने पानी का एक जल चक्र बनाया है. उसी के हिसाब से वह पानी को नियंत्रित करती है. हमें प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. हम यह मानकर चलें किन नदी-नालों में जो पानी दिखाई दे रहा है, जो भूगर्भ में जल है, यह सब उसी जल चक्र का हिस्सा है. हमें परंपरागत तरीकों को भी अपनाना होगा. वृक्षों की तरह जब तक पानी को लेकर भी लोगों की संवेदना विकसित नहीं होगी, तब तक इन स्थितियों में सुधार करना कठिन है.
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