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प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए गंभीर नहीं सरकार

प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा का हाल बेहद ही खराब है. शिक्षकों को कभी चुनाव तो कभी जनगणना, कभी चुनाव के लिए सूचियां तैयार करने में लगा दिया जाता है. अब शिक्षकों को एक क्विंटल भूसा जुटाकर गोशालाओं में दान करने के लिए कहा गया है. शिक्षक संगठनों ने इस फैसले का विरोध करते हुए नाराजगी जताई है. पेश है ईटीवी भारत के यूपी ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी की यह रिपोर्ट.

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प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिए गंभीर नहीं सरकार
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Published : May 28, 2022, 7:52 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में लगभग पांच लाख से अधिक बेसिक शिक्षकों के स्वीकृत पद हैं. लगभग डेढ़ लाख पद रिक्त होने के बाद भी साढ़े तीन लाख शिक्षक अध्यापन कार्य में लगे हैं. प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों की इतनी बड़ी तादाद के बावजूद उत्तर प्रदेश में सरकारी स्तर पर दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा का हाल बहुत ही बदतर है. प्राथमिक शिक्षा की इस बदहाली के कई कारण हैं. पहला और सबसे बड़ा कारण है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के लिए कतई गंभीर नहीं है. सरकारी स्तर पर पढ़ाई की गुणवत्ता कैसे सुधरे, इस बारे में सोचने के बजाय अफसर ऐसा मौका ढूढ़ने में लगे रहते हैं कि शिक्षकों को कैसे किसी और काम में लगा पाएं. कभी चुनाव तो कभी जनगणना, कभी चुनाव के लिए सूचियां तैयार करना तो कभी सरकार के एजेंडे को पूरा करने के लिए और काम. हाल ही में कुछ जिलों में अधिकारियों ने शिक्षकों को एक क्विंटल भूसा एकत्र कर नजदीकी गोशाला में दान करने का आदेश दिया है. जरा सोचिए सरकार की नजर में शिक्षकों का क्या स्तर है? बेसिक शिक्षा के गिरते स्तर के लिए कहीं न कहीं शिक्षक भी जिम्मेदार है, जो सरकार से पैसा और सुविधाएं तो लेना चाहते हैं, लेकिन पढ़ाना नहीं चाहते.

सरकार करना चाहे तो क्या नहीं कर सकती. केंद्र सरकार द्वारा संचालित केंद्रीय विद्यालय देशभर में बेहतरीन शिक्षा के लिए जाने जाते हैं. इन विद्यालयों में प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक की शिक्षा दी जाती है. इन विद्यालयों में एडमिशन को लेकर सिफारिशों का अंबार रहता है. अभी हाल ही में विद्यालयों में प्रवेश का सांसदों का कोटा समाप्त किया गया, क्योंकि सांसदों पर इन स्कूलों में दाखिले का खासा दबाव था. यह एक उदाहरण है. एक ओर सरकारी विद्यालयों में दाखिले के लिए सिफारिशें लग रही हैं, तो दूसरी ओर सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चे पढ़ना नहीं चाहते. तमाम स्कूल ऐसे भी हैं, जहां अभिभावक बच्चों के दाखिले सरकारी और प्राइवेट दोनों स्कूलों में कराते हैं. सरकारी स्कूलों में इसलिए कि उन्हें ड्रेस व अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता रहे और निजी स्कूलों में इसलिए कि बच्चा कुछ पढ़ भी सके. तमाम प्राथमिक विद्यालयों का यह हाल है कि वहां पांचवीं कक्षा के बच्चे भी ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं जानते.

यह बोले शिक्षक नेता आरपी मिश्रा.
इन विद्यालयों का एक और पक्ष भी है. प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों की फीस तो बहुत आकर्षक है. शायद यही कारण है कि इन स्कूलों में शिक्षक बनने के लिए युवाओं में होड़ लगी रहती है. जो लोग संघर्ष करके नौकरी पा गए उनमें बड़ी संख्या में पढ़ाना नहीं चाहते. तमाम शिक्षक-शिक्षिकाएं महानगरों और जिला मुख्यालयों में रहते हैं और सुबह गाड़ियों से अपने स्कूल पहुंचते हैं. उन्हें बस घंटे पूरे करने का इंतजार रहता है. कभी-कभी समय से पहले भी शिक्षक 'सैर पूरी' कर लौट आते हैं. ऐसे में गंभीर पढ़ाई का सपना साकार ही नहीं हो पाता. इन शिक्षकों को नौकरी भी घर में ही चाहिए. इसलिए सालभर तबादलों के लिए राजनीति होती रहती है. स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता पर तो चर्चा होती ही नहीं. विडंबना यह है कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी कुछ करना नहीं चाहती. पहले शिक्षक भूसा दान यात्रा पर लगाए गए थे. अब उन्हें खुद ही कम से कम एक क्विंटल भूसा एकत्र कर नजदीकी गोशाला में दान करने का आदेश दिया है. ऐसे आदेश दर्शाते हैं कि सरकार समझती है कि शिक्षकों के पास पर्याप्त काम नहीं है, शायद इसी कारण उन्हें ऐसे कामों में लगाया गया है. निराश करने वाली बात यह है कि निकट भविष्य में प्राथमिक शिक्षा का भविष्य सुधरता दिखाई नहीं देता. इस संबंध में शिक्षक नेता आरपी मिश्रा कहते हैं कि अध्यापकों से भूसा मंगवाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. यह एक तुगलकी आदेश है. शिक्षकों का काम पढ़ाना है. बच्चों के लिए अध्यापन कार्य करना है. न्यायालय ने भी कहा है कि शिक्षकों से केवल शिक्षण कार्य लिया जाए. यह हास्यास्पद लगता है कि क्या शिक्षक घर-घर जाकर भूसा मांगेंगे. क्या सरकार इतनी गरीब हो गई है, उसके पास पैसा नहीं है कि वह गायों के लिए भूसा उपलब्ध करा सके. हालांकि चुनाव के दौरान आवारा पशुओं के लिए प्रबंध करने की बात प्रधानमंत्री जी ने भी की थी. अब यह व्यवस्था सरकार नहीं कर पा रही है. अब शिक्षकों को बंधुआ मजदूर समझ लिया गया है, कि घर-घर जाकर भीख मांगिये भूसे की. यह बहुत ही गंभीर बात है. इसकी निंदा की जानी चाहिए. इसे सरकार को तत्काल वापस ले लेना चाहिए. शिक्षकों से ऐसा कार्य न कराया जाए, जो उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा के खिलाफ हो, यह कतई उचित नहीं है.

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लखनऊ : उत्तर प्रदेश में लगभग पांच लाख से अधिक बेसिक शिक्षकों के स्वीकृत पद हैं. लगभग डेढ़ लाख पद रिक्त होने के बाद भी साढ़े तीन लाख शिक्षक अध्यापन कार्य में लगे हैं. प्राथमिक शिक्षा में शिक्षकों की इतनी बड़ी तादाद के बावजूद उत्तर प्रदेश में सरकारी स्तर पर दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा का हाल बहुत ही बदतर है. प्राथमिक शिक्षा की इस बदहाली के कई कारण हैं. पहला और सबसे बड़ा कारण है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के लिए कतई गंभीर नहीं है. सरकारी स्तर पर पढ़ाई की गुणवत्ता कैसे सुधरे, इस बारे में सोचने के बजाय अफसर ऐसा मौका ढूढ़ने में लगे रहते हैं कि शिक्षकों को कैसे किसी और काम में लगा पाएं. कभी चुनाव तो कभी जनगणना, कभी चुनाव के लिए सूचियां तैयार करना तो कभी सरकार के एजेंडे को पूरा करने के लिए और काम. हाल ही में कुछ जिलों में अधिकारियों ने शिक्षकों को एक क्विंटल भूसा एकत्र कर नजदीकी गोशाला में दान करने का आदेश दिया है. जरा सोचिए सरकार की नजर में शिक्षकों का क्या स्तर है? बेसिक शिक्षा के गिरते स्तर के लिए कहीं न कहीं शिक्षक भी जिम्मेदार है, जो सरकार से पैसा और सुविधाएं तो लेना चाहते हैं, लेकिन पढ़ाना नहीं चाहते.

सरकार करना चाहे तो क्या नहीं कर सकती. केंद्र सरकार द्वारा संचालित केंद्रीय विद्यालय देशभर में बेहतरीन शिक्षा के लिए जाने जाते हैं. इन विद्यालयों में प्राथमिक से लेकर माध्यमिक तक की शिक्षा दी जाती है. इन विद्यालयों में एडमिशन को लेकर सिफारिशों का अंबार रहता है. अभी हाल ही में विद्यालयों में प्रवेश का सांसदों का कोटा समाप्त किया गया, क्योंकि सांसदों पर इन स्कूलों में दाखिले का खासा दबाव था. यह एक उदाहरण है. एक ओर सरकारी विद्यालयों में दाखिले के लिए सिफारिशें लग रही हैं, तो दूसरी ओर सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चे पढ़ना नहीं चाहते. तमाम स्कूल ऐसे भी हैं, जहां अभिभावक बच्चों के दाखिले सरकारी और प्राइवेट दोनों स्कूलों में कराते हैं. सरकारी स्कूलों में इसलिए कि उन्हें ड्रेस व अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता रहे और निजी स्कूलों में इसलिए कि बच्चा कुछ पढ़ भी सके. तमाम प्राथमिक विद्यालयों का यह हाल है कि वहां पांचवीं कक्षा के बच्चे भी ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं जानते.

यह बोले शिक्षक नेता आरपी मिश्रा.
इन विद्यालयों का एक और पक्ष भी है. प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों की फीस तो बहुत आकर्षक है. शायद यही कारण है कि इन स्कूलों में शिक्षक बनने के लिए युवाओं में होड़ लगी रहती है. जो लोग संघर्ष करके नौकरी पा गए उनमें बड़ी संख्या में पढ़ाना नहीं चाहते. तमाम शिक्षक-शिक्षिकाएं महानगरों और जिला मुख्यालयों में रहते हैं और सुबह गाड़ियों से अपने स्कूल पहुंचते हैं. उन्हें बस घंटे पूरे करने का इंतजार रहता है. कभी-कभी समय से पहले भी शिक्षक 'सैर पूरी' कर लौट आते हैं. ऐसे में गंभीर पढ़ाई का सपना साकार ही नहीं हो पाता. इन शिक्षकों को नौकरी भी घर में ही चाहिए. इसलिए सालभर तबादलों के लिए राजनीति होती रहती है. स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता पर तो चर्चा होती ही नहीं. विडंबना यह है कि सरकार सब कुछ जानते हुए भी कुछ करना नहीं चाहती. पहले शिक्षक भूसा दान यात्रा पर लगाए गए थे. अब उन्हें खुद ही कम से कम एक क्विंटल भूसा एकत्र कर नजदीकी गोशाला में दान करने का आदेश दिया है. ऐसे आदेश दर्शाते हैं कि सरकार समझती है कि शिक्षकों के पास पर्याप्त काम नहीं है, शायद इसी कारण उन्हें ऐसे कामों में लगाया गया है. निराश करने वाली बात यह है कि निकट भविष्य में प्राथमिक शिक्षा का भविष्य सुधरता दिखाई नहीं देता. इस संबंध में शिक्षक नेता आरपी मिश्रा कहते हैं कि अध्यापकों से भूसा मंगवाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. यह एक तुगलकी आदेश है. शिक्षकों का काम पढ़ाना है. बच्चों के लिए अध्यापन कार्य करना है. न्यायालय ने भी कहा है कि शिक्षकों से केवल शिक्षण कार्य लिया जाए. यह हास्यास्पद लगता है कि क्या शिक्षक घर-घर जाकर भूसा मांगेंगे. क्या सरकार इतनी गरीब हो गई है, उसके पास पैसा नहीं है कि वह गायों के लिए भूसा उपलब्ध करा सके. हालांकि चुनाव के दौरान आवारा पशुओं के लिए प्रबंध करने की बात प्रधानमंत्री जी ने भी की थी. अब यह व्यवस्था सरकार नहीं कर पा रही है. अब शिक्षकों को बंधुआ मजदूर समझ लिया गया है, कि घर-घर जाकर भीख मांगिये भूसे की. यह बहुत ही गंभीर बात है. इसकी निंदा की जानी चाहिए. इसे सरकार को तत्काल वापस ले लेना चाहिए. शिक्षकों से ऐसा कार्य न कराया जाए, जो उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा के खिलाफ हो, यह कतई उचित नहीं है.

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