हैदराबाद: देव धरा उत्तर प्रदेश ने देश को एक से बढ़कर एक विभूतियां दी. उन्हीं महान विभूतियों में बाबू बनारसी दास गुप्ता का नाम भी शामिल है. बाबू बनारसी दास सूबे के पहले ऐसे मुख्यमंत्री थे, जो सरकारी ताम-झाम से दूर अपनी सादगी के लिए जाने गए. साल 1979 में यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने मुख्यमंत्री के लिए आवांटित सरकारी आवास 4 कालीदास मार्ग में रहने से इनकार कर दिया और कैंट स्थिति अपने मकान में ही रहा करते थे. वहीं, उनका देश की आजादी में भी अहम योगदान रहा है. भारत की आजादी के लिए संघर्ष के दौरान बुलंदशहर जेल में बंद रहे बनारसी दास को जेलर ने जामुन के पेड़ पर बांधकर तब तक पीटा, जब तक वो बेहोश नहीं हो गए थे.
बाबू बनारसी दास उत्तर प्रदेश की सियासत में विधायक से लेकर विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री तक रहे. फिर सांसद से लेकर केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री भी बने. लेकिन उन पर कभी भी सियासी खुमारी का असर नहीं दिखा या फिर कह सकते हैं कि सादगी ही उनकी पहचान थी. इतना ही नहीं वो किसी पर अत्याचार होते नहीं देख सकते थे. यदि किसी के साथ हो रहे अन्याय की खबर भी उन्हें लग जाती थी तो वो खुद ही मौके पर पहुंच जाते थे.
सूबे के वरिष्ठ सियासी जानकार बताते हैं कि साल 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे भड़क उठे थे. राजधानी लखनऊ में भी सिखों के साथ हिंसक घटनाएं हुई. लखनऊ के रानीगंज के एक मकान मालिक ने अपने सिख किराएदार की दुकान का सामान दुकान से बाहर फेंक दिया था. इस घटना के कुछ देर बाद ही मौके पर पहुंचे बाबू बनारसी दास ने सिख दुकानदार का सामान अंदर रखवाया था.
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वहीं, बुलंदशहर के अतरौली गांव में 8 जुलाई, 1912 को बाबू बनारसीदास का जन्म हुआ था. पढ़ाई के दौरान ही महज 15 वर्ष की अल्पायु में वो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे. 1928 में नौजवान भारत सभा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बने. 12 सितंबर, 1930 के गुलावठी में एक भयानक कांड हो गया था. बनारसी दास की नेतागिरी में गुलावठी में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई.
हालांकि सभा शांतिपूर्ण थी, लेकिन पुलिस ने उस पर हमला कर 23 राउंड गोली चलाई. इस गोलीकांड में आजादी के 8 दीवाने शहीद हो गए थे. इसके बाद पुलिस ने करीब एक हजार लोगों को गिरफ्तार किया और भारी यातनाएं. 45 लोगों पर मुकदमा चले. इधर, 2 अक्टूबर, 1930 को बनारसी दास को मथुरा से गिरफ्तार करके बुलंदशहर लाया गया. लेकिन जिला और सेशन जज ने बनारसी दास को 14 जुलाई, 1931 को छोड़ दिया. हालांकि गुलावठी कांड के कई कैदी 1937 में यूपी में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद ही छूट पाए थे.
लेकिन बनारसी दास इसके बाद रुके नहीं. 1935 में क्रांतिकारी अंजुम लाल के साथ उन्होंने एक स्वदेशी स्कूल बनवाई. 1930 से 1942 के दौरान बनारसी दास चार बार जेल में गए. इस दौरान उन्हें तरह-तरह की यातनाएं सहनी पड़ी. वहीं, भारत छोड़ो आंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में वे 2 अप्रैल, 1941 को गिरफ्तार कर लिए गए. पहले तो उनको छह महीने की सजा हुई फिर 100 रुपये का जुर्माना किया गया. लेकिन जुर्माना देने से इनकार करने पर तीन माह की सजा बढ़ा दी गई.
ऐसे ही अगस्त 1942 में उनको खतरनाक मानते हुए गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया था. बुलंदशहर जेल में इनको इतनी यातनाएं दी गईं कि यूपी में चारों ओर शोर हो गई. 5 फरवरी, 1943 को प्रिजनर्स एक्ट के तहत तत्कालीन अंग्रेजी कलेक्टर हार्डी ने रात को जेल खुलवाया और बनारसी दास को बैरक से निकाल कर एक जामुन के पेड़ से बांध दिया और कपड़े उतार कर तब तक उनकी पिटाई की, जब तक कि वो बेहोश नहीं हुए थे.
बनारसी दास ने जेल में भी पढ़ाई-लिखाई नहीं छोड़ी थी. इसी दौरान वो पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मौलाना आजाद, लाल बहादुर शास्त्री, सरोजिनी नायडू, गोविंद बल्लभ पंत और अब्दुल गफ्फार खान समेत तमाम चोटी के नेताओं के संपर्क में आ चुके थे. वहीं, 1946 के विधानसभा चुनाव में वो बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए. इस साल वे बुलंदशहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने थे.
फिर वो वक्त भी आया जब इनको यूपी का मुख्यमंत्री बनाया गया. रामनरेश यादव के जाने के बाद वो 28 फरवरी, 1979 से 18 फरवरी 1980 तक यूपी के मुख्यमंत्री रहे. आपको जानकर हैरानी होगी कि वे सूबे के पहले ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की आवास के बजाय कैंट स्थित अपने मकान में ही रहना पसंद किया. मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने लंबा ताम झाम नहीं रखा.
वहीं, उन्होंने खादी और ग्रामोद्योग के विकास के लिए बहुत सी योजनाएं चलाई. साथ ही वे कई सालों तक यूपी में हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष भी रहे. 1977 से वे खादी ग्रामोद्योग चिकन संस्थान के संस्थापक व अध्यक्ष रहे. इसके अलावा जनसेवा ट्रस्ट बुलंदशहर के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे थे. बाबू बनारसी दास की संगठन क्षमता का लोहा सभी मानते थे. कांग्रेस में वो जमीनी स्तर से लेकर रणनीति बनाने तक में शामिल रहे.
इस तरह उनके पास जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक काम करने का अनुभव था. इधर, 60 के दशक में कुछ ऐसा हुआ कि बनारसी दास की सियासत का लोहा सभी को मानना पड़ा. तब कांग्रेस की सियासत में कई धड़े बन गए थे. सभी अपना राग अलापते थे. यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होने थे.
सूबे के सियासी जानकार बताते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद अपने प्रत्याशी मुनीश्वर दत्त उपाध्याय की जीत को लेकर इतने भरोसेमंद थे कि सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि अगर उपाध्याय हार गए तो मैं इस्तीफा दे दूंगा और उपाध्याय हार गए थे. बताते हैं कि इसी वजह से उनको इस्तीफा देना पड़ा. भविष्य के मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता अध्यक्ष बने थे और इसके पीछे बनारसी दास की अहम भूमिका थी.
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