लखनऊ : उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की है. इस जीत के साथ ही तीन दशक से चला आ रहा सरकार न दोहराने का मिथक भी टूट गया. इसके साथ ही समाजवादी पार्टी का सत्ता में लौटने का सपना भी चकनाचूर हो गया. दरअसल इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंदी बनकर उभरी समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया अखिलेश यादव इस पराजय के लिए खुद ही जिम्मेदार हैं. हम ऐसे पांच प्रमुख कारणों को जानेंगे, जो समाजवादी पार्टी के लिए पराजय का कारण बने.
टिकट वितरण की बड़ी गलतियों ने रोकी राह
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने टिकट बंटवारे में बड़ी गलतियां कीं. कहीं सहयोगी दलों को ज्यादा सीटें देकर पांच साल से चुनाव की तैयारी कर रहे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को निराश किया, तो कहीं दूसरे दलों से सपा में शामिल होने वाले नेताओं पर अपने दल के नेताओं से ज्यादा विश्वास दिखाया. ऐसे में कई नेता पार्टी छोड़कर बागी उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे, तो कुछ नेता पार्टी में ही रहकर भितरघात करते रहे. राजधानी लखनऊ का ही उदाहरण लें. मलिहाबाद सीट से सपा के पूर्व विधायक रहे इंदल रावत ने पांच साल तक तैयारी की लेकिन ऐन वक्त पर अखिलेश यादव ने उनका टिकट काटकर अन्य प्रत्याशी को मैदान में उतार दिया.
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ऐसे में इंदल रावत बागी बन कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. उन्होंने सपा का ही वोट काटा और भाजपा की राह आसान की. राजधानी की मोहनलालगंज और पश्चिम सीट पर भी यही स्थिति रही. पड़ोसी जिले सीतापुर की सिधौली विधान सभा सीट से सपा के पूर्व विधायक रहे युवा नेता मनीष रावत ने सपा से पांच साल तैयारी की. उनकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी, लेकिन अखिलेश यादव ने बसपा से सपा में शामिल हुए विधायक हरगोविंद भार्गव पर विश्वास जताया. ऐसे में मनीष रावत ने बागी उम्मीदवार के तौर पर भाजपा से टिकट लिया और मैदान में उतरे. मनीष रावत ने पहली बार इस सीट से भाजपा को जीत का स्वाद चखाया. यदि मनीष सपा से लड़ते तो भी उनकी जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी. हर जिले में इस तरह के एक-दो उदाहरण जरूर मिल जाएंगे.
प्रदेश की राजनीति में साढ़े चार साल निष्क्रिय रहना भी पड़ा भारी
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव 2017 में मिली कड़ी पराजय के बाद लगभग साढ़े चार साल राजनीति के गलियारों में कम ही नजर आए. लोगों ने आम आदमी पार्टी को प्रदेश का मुख्य विपक्षी दल कहना शुरू कर दिया. राजनीतिक विश्लेषक उमा शंकर दुबे कहते हैं कि आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रभारी संजय सिंह ने सरकार की खामियां उजागर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. वहीं चुनावी आहट के छह माह पहले सपा ने अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ानी शुरू की. यही नहीं प्रदेश की जनता ने 2020 और 2021 में कोरोना वायरस की भीषण त्रासदी देखी, पर समाजवादी पार्टी के नेता सोशल मीडिया तक ही सीमित रहे. वहीं भाजपा के कई विधायकों ने कोरोना से दम तोड़ा. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी लोगों के बीच दिखाई दी. स्वाभाविक है कि लोगों ने अपनी बारी का इंतजार किया और चुनाव में सपा को नकार कर भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया.
पार्टी के बड़े नेताओं की उपेक्षा भी बड़ी वजह
विगत पांच सालों में अखिलेश यादव ने पार्टी के बड़े नेताओं को हाशिए पर रखा. अखिलेश यादव को लगता था कि वह जो निर्णय करते हैं वही सही हैं. पार्टी के कई बड़े और कद्दावर नेताओं ने खुद की उपेक्षा महसूस की. मुलायम सिंह यादव की सरकार में मंत्री रहे खांटी समाजवादी नेता और विधान परिषद सदस्य शतरुद्र प्रकाश ने अपनी उपेक्षा से आहत होकर भाजपा का दामन थाम लिया. शतरुद्र प्रकाश ने पार्टी छोड़ते वक्त सार्वजनिक रूप से अपनी उपेक्षा की बात कही थी. शतरुद्र प्रकाश प्रदेश के उन चुनिंदा नेताओं में शुमार हैं, जो समाजवादी आंदोलन में कई बार जेल गए और आज भी समाजवादी आदर्शों को मानते हैं. अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री रहे कई अन्य कद्दावर नेता भी अपनी उपेक्षा की बात दबी जुबान कहते हैं. हालांकि कार्रवाई के डर से कोई भी नेता सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहने से बचता है. कुछ नेताओं का कहना है कि उनके लिए पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव से मिलना ही बहुत कठिन है. वह आसानी से अपने नेताओं के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं. यही कारण है कि बड़े नेता भी मूकदर्शक ही रहे. चुनाव में उनकी भूमिका अपनी सीट तक ही सिमटी रही.
भारी पड़ा सभी निर्णय अकेले लेना, 'जेबी' पार्टी बनी सपा
गठबंधन का फैसला हो या गठबंधन के साथियों को सीटें देने का या फिर अपने दल के प्रत्याशियों के टिकट वितरण का. ज्यादातर फैसले अखिलेश यादव ने अकेले ही किए. बड़े नेताओं को अहम फैसलों में भी शामिल करना जरूरी नहीं समझा. उन्होंने जिन नेताओं से सलाह-मशविरा किया भी वह ज्यादातर अखिलेश की हां में हां मिलाने वाले चाटुकार नेता थे. ऐसे में कई निर्णय पार्टी के हित में नहीं थे. कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि भाजपा के ऐसे नेताओं को पार्टी में लेना नुकसानदायक रहा, जिनका वहां टिकट कट रहा था. जो नेता अपनी पार्टी से जीतने में सक्षम नहीं थे, उन्होंने ही दल बदला. स्वामी प्रसाद मौर्य इसका उदाहरण हैं. कैबिनेट मंत्री रहकर पांच साल सत्ता का मजा लेने के बाद सपा में आए और अपनी भी सीट गंवा बैठे. वहीं कुछ नेता कहते हैं कि गठबंधन के दलों को उनकी हैसियत से ज्यादा सीटें दे दी गईं. स्वाभाविक है कि सपा का मूल कार्यकर्ता निराश हुआ. जिसका खामियाजा पार्टी भुगत रही है.
राजनीतिक विश्लेषक उमाशंकर दुबे कहते हैं कि समाजवादी पार्टी की स्थिति 'वन मैन आर्मी' वाली हो गई है. प्रचार में बड़े नेताओं को दरकिनार किया गया. शिवपाल यादव, इंद्रजीत सरोज व स्वामी प्रसाद मौर्य आदि से भी बहुत कम प्रचार कराया गया. हालांकि इन लोगों का पार्टी को लाभ मिल सकता था. एक वरिष्ठ सपा नेता ने कहा कि डिम्पल यादव की महिलाओं में एक अच्छी छवि है और लोग उनसे प्रभावित भी हैं, लेकिन इस चुनाव में अखिलेश ने उन्हें एक-दो स्थानों को छोड़कर कहीं प्रचार भी नहीं करने दिया.
अहंकार और मीडिया पर अनावश्यक हमलों ने बिगाड़ी छवि
राजनीतिक विश्लेषक डॉ मनीष हिंदवी कहते हैं कि सार्वजनिक मंचों पर अखिलेश यादव की बाचचीत या संबोधन प्रायः एक अहंकारी नेता के रूप में देखी गई. प्राय: व्यंग्य करना, चेहरे पर तनाव और पत्रकारों को अपमानित करने की अखिलेश की शैली भी उनके ही खिलाफ गई. लोगों ने अखिलेश यादव की इस छवि को नकार दिया. 2012 में जनता ने एक युवा और सौम्य नेता के तौर पर देखा और चुना था. अखिलेश की इस छवि में विगत दस वर्षों में काफी बदलाव आया है.
उनके स्वभाव की कटुता चेहरे पर झलती है. यही कटुता बातचीत में पत्रकारों पर शब्द बाणों के रूप में सामने आती है. दरअसल, लोग सहज और सकारात्मक छवि के नेताओं को पसंद करते हैं. नकारात्मकता हमेशा पीछे ले जाती है. शायद समाजवादी पार्टी के लिए अखिलेश यादव की यह नई छवि भी बुरी ही रही. राजनीतिक विश्लेषक डॉ मनीष हिंदवी कहते हैं कि अखिलेश यादव को अपने पिता से ही सीखना चाहिए. कितनी भी कठिन परिस्थितियां क्यों न हों, मुलायम सिंह यादव मुस्कुराते रहते थे. ऐसे में यह मुस्कुराहट कार्यकर्ताओं में सकारात्मक ऊर्जा भरती है.
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