लखनऊ : कहते हैं राजनीति में कोई सगा नहीं होता, लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता और कभी परिवार से नाराज होकर अपनी अलग पार्टी बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव ने अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ वह किया है, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी. 2017 में जब शिवपाल यादव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से नाराज होकर समाजवादी पार्टी छोड़ दी थी और 29 अगस्त 2018 को अपनी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा की थी, तब बड़ी संख्या में सपा कार्यकर्ता और नेता उनके साथ आए थे. पूर्व मंत्री और कभी समाजवादी पार्टी में नंबर दो के नेता माने जाने वाले शिवपाल सिंह जरूरत पड़ने पर अपने रास्ते बदलते रहे. इस दौरान उन्होंने यह नहीं सोचा कि उनके निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं का क्या होगा?
समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव से संबंध समाप्त होने के बावजूद शिवपाल यादव ने कभी भी बड़े भाई मुलायम सिंह यादव से दूरी नहीं बनाई. वह तमाम मौकों पर मुलायम सिंह से मिलते रहे. हालांकि मुलायम सिंह ने कभी उन्हें कुछ दिया हो ऐसा भी नहीं है. हां एक दो बार मुलायम ने शिवपाल यादव के समर्थन में बयान दिए, जिससे अखिलेश यादव को असहज होना पड़ा. हालांकि अखिलेश यादव यह समझते थे कि मुलायम सिंह यादव आयु के जिस पड़ाव पर हैं, उसमें भावनात्मक रूप से कई बार कुछ बोल देते हैं, जिसके खास मायने नहीं होते. उन्हें मालूम था पिता का आशीर्वाद हमेशा पुत्र के साथ ही रहेगा. अखिलेश का यह अनुमान बिलकुल सही साबित हुआ. वहीं छोटे पुत्र प्रतीक यादव की पत्नी अपर्णा यादव को भी सपा में अपना भविष्य नहीं दिखा और उन्होंने भी 2022 के चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम कर समाजवादी परिवार से अपना राजनीतिक नाता तोड़ लिया. शिवपाल के साथ आए कुछ नेताओं को यह आभास हो चला था कि न तो अपनी पार्टी के स्तर पर कुछ करने की क्षमता रखते हैं और न ही वह ऐसा करना चाहते हैं. गाहे-बगाहे वह अपने परिवार में लौटने का रास्ता ढूंढते रहते हैं. ऐसे में सपा छोड़कर शिवपाल के साथ आए नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह मालूम था कि अखिलेश उन्हें कभी पसंद नहीं करेंगे, इसलिए समाजवादी पार्टी में उनका कोई भविष्य नहीं है. यही कारण है कि पूर्व विधायक और मंत्री रहे शारदा प्रताप शुक्ला जैसे नेता 2022 के चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए. 2022 के चुनाव से पहले मुझसे हुई खास बातचीत में उन्होंने बताया था कि 'शिवपाल यादव पर सपा में वापसी का दबाव खुद उनके ही परिवार से है. ऐसे में वह दुनिया से तो लड़ सकते हैं, लेकिन अपनी पत्नी और बेटे से कैसे लड़ें.'
अपनी पार्टी बनाने के बाद शिवपाल सिंह यादव ने दो चुनाव जरूर लड़े, लेकिन इन चुनावों में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली. 10 अक्टूबर 2022 को मुलायम सिंह के निधन के बाद रिक्त हुई मैनपुरी संसदीय सीट पर जब उपचुनाव का मौका आया तो अखिलेश यादव को चाचा शिवपाल यादव की भी याद आई. चाचा शिवपाल का मैनपुरी में खासा प्रभाव माना जाता है और वह इसी जिले की विधानसभा सीट से विधायक भी हैं. अखिलेश यादव ने मैनपुरी उपचुनाव में अपनी पत्नी डिंपल यादव को प्रत्याशी बनाया और आशीर्वाद लेने शिवपाल यादव के घर पहुंच गए. शिवपाल की भी अंदर से यही चाहत थी. बात बन गई और कुछ दिन बाद ही दोनों पार्टियों के विलय की घोषणा हो गई. प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का क्या होगा शिवपाल ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं सोचा और वही हुआ जिसका डर था. वर्तमान निकाय चुनाव में सपा कार्यकर्ता टिकट की रेस में बहुत पीछे रह गए. यही कारण है कि कई कार्यकर्ताओं ने हाल ही में भारतीय जनता पार्टी की शरण ली है. इसके साथ ही तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं का शिवपाल सिंह यादव से विश्वास कम हुआ है. लोग समझ चुके हैं कि वह अपने भतीजे अखिलेश यादव के मोहरे भर हैं!. अब शिवपाल सपा में न तो किसी निर्णय की स्थिति में हैं और ना ही कोई उनकी सुनने वाला है. ऐसी स्थिति में कार्यकर्ताओं का पाला बदल लेना ही सही है.
समाजवादी राजनीति पर नजदीक से नजर रखने वाले राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. आलोक राय कहते हैं 'शिवपाल यादव कई बार यह बात कह चुके हैं कि उन्होंने अपनी पारी खेली है. तमाम बड़े पदों पर रह चुके हैं और कई बार मंत्री पद को भी सुशोभित किया है. अब उनकी कोई बहुत राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है. ऐसे में अब वह अपने बेटे आदित्य यादव का भविष्य सुरक्षित करा देना ही अपनी सबसे बड़ी वरीयता मानते हैं. अखिलेश यादव पर अब पार्टी में किसी का कोई दबाव नहीं है. वह अकेले निर्णय लेते हैं, जो सभी को मानने होते हैं. अखिलेश यादव के निर्णयों की प्रशंसा करने वालों या हां में हां मिलाने वालों की लंबी कतार है. ऐसे में शिवपाल के निकट रहे नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह पहले ही समझ लेना चाहिए था कि समाजवादी पार्टी में अब उनका भविष्य नहीं है. खैर, देर आये दुरुस्त आये, की कहावत को ही सही माने तो लोग अभी जो निर्णय कर रहे हैं, वही उनके लिए सही है. हालांकि दूसरे दलों में भी जाकर उन्हें अपनी पहचान बनानी होगी और लंबा संघर्ष करना होगा तभी राजनीति में उन्हें कुछ हासिल हो पाएगा.'
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