लखनऊ : अल्पसंख्यक कांग्रेस के चेयरमैन शाहनवाज आलम ने रविवार को 'स्पीक अप अभियान' की 40वीं कड़ी को संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने कहा कि न्यायपालिका से ऐसे फैसले आने लगे हैं, जो न्यायिक से ज्यादा राजनीतिक फैसले लग रहे हैं. इससे न्यायालय की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की अगर यह छवि बन गई कि यह सरकार का ही एक विस्तारित अंग है तो हमारा लोकतांत्रिक ढांचा ढह जाएगा.
शाहनवाज ने कहा कि सुल्ली डील और बुल्ली बाई ऐप मामले में अदालत ने आरोपियों का पहला अपराध बताकर जमानत दे दिया. खुले आम गोली मारने की धमकी देने वाले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के खिलाफ यह कहकर सुनवाई से इनकार कर दिया कि उन्होंने मुस्कुराते हुए धमकी दी थी. इसलिए यह अपराध की श्रेणियों नहीं आता है. जबकि दूसरी तरफ उमर खालिद जैसे निर्दोष लोगों के खिलाफ किसी भी तरह के सुबूत न होने को स्वीकार करते हुए भी अदालत उन्हें जमानत नहीं दे रही है.
इससे यह संदेश जा रहा है कि न्यायपालिका न्यायिक नजरिए से फैसला सुनाने के बजाय सरकार के नजरिए से काम कर रही है. उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही चलता रहा, तो सत्ता पक्ष के पत्रकारों की तरह ही जजों को भी लोग सरकार के पैरोकारों की तरह देखने लगेंगे. शाहनवाज आलम ने कहा कि त्रिपुरा के मुख्य न्यायधीश अकील कुरैशी जो वरिष्ठता के क्रम में दूसरे नंबर पर थे. उनको सुप्रीम कोर्ट में बतौर जज नियुक्त नहीं किया गया. उससे भी अहम कि इस पर न्यायपालिका से जुड़े लोगों का चुप रहना दर्शाता है कि या तो अधिकतर लोग सरकार के साथ हो लिए हैं या फिर उन्हें जस्टिस लोया की स्थिति में पहुंचा दिए जाने का डर है.
ये दोनों ही स्थितियां लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ हैं. शाहनवाज आलम ने कहा कि यह महज जुबान का फिसलना नहीं हो सकता कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश किसान आंदोलन पर सुनवाई के दौरान यह मौखिक टिप्पणी करें. उन्होंने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने 7 जनवरी 2021 को जानबूझ कर यह मौखिक टिप्पणी की ताकि मीडिया तब्लीगी जमात के खिलाफ खबरें चलाकर एक बार फिर मुसलमानों की छवि खराब करने का अवसर पा जाए और यही हुआ भी.
शाहनवाज ने कहा कि कांग्रेस के शासन में यह एक नियम था कि कोई भी जज रिटायर होने के 6 साल तक किसी ओहदे पर नियुक्त नहीं हो सकता था जिसे कूलिंग पीरियड कहा जाता था. इससे न्यायिक सुचिता सुनिश्चित होती थी, लेकिन भाजपा सरकार ने यह नियम बदलकर मन चाहे फैसले देने और बदले में राज्यसभा या राज्यपाल का ओहदा लेने का स्कीम चालू कर दिया है. जिससे न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अचानक बढ़ गया है.
हिजाब मुद्दे पर आये फैसले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अदालत ने कह दिया कि इस्लाम में हिजाब पहनना अनिवार्य हिस्सा नहीं है. जबकि अदालत के समक्ष मामला इस्लाम में क्या पहनने और नहीं पहनने के रिवाज का था ही नहीं, लेकिन अदालत ने उसे धार्मिक नजरिए से देखा. उन्होंने कहा कि अगर यह फैसला नजीर बन जाए तो किसी भी दलित को छुआछूत के मामले में न्याय नहीं मिल सकता, क्योंकि जज कह सकते हैं कि छुआछूत धर्म का हिस्सा है. उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों को न्यायपालिका के राजनीतिक इस्तेमाल के खिलाफ बोलना शुरू करना चाहिए नहीं तो न्यायिक तानाशाही का खतरा बढ़ जाएगा.
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