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UP Assembly Election 2022: पांच दशक के इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप

उत्तर प्रदेश में सभी बड़ी पार्टियों ने गठबंधन की सियासत की है, लेकिन सफलता किसी को नहीं मिली. 1967 से 2019 तक कमोवेश हाल एक से रहे हैं. यही कारण है कि आगामी विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) में सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी ने दूसरी बड़ी पार्टियों से गठबंधन को दरकिनार करते हुए छोटी जातिगत पार्टियों से गठबंधन को तरजीह दी है.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
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Published : Dec 27, 2021, 9:09 AM IST

हैदराबाद: यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) होने हैं और अभी से ही सभी सियासी पार्टियां जमीनी स्तर पर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने को प्रचार-प्रसार में जुट गई हैं. अबकी मुख्य तौर पर मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच होता दिख रहा है. साथ ही दोनों ही पार्टियों ने सूबे की अन्य बड़ी पार्टियों संग गठबंधन न करने का निर्णय लिया है. यही कारण है कि इन दोनों पार्टियों ने सूबे की छोटी पार्टियों से गठबंधन किया है. बात अगर पूर्वांचल और अवध की करें तो अखिलेश यादव को छोटी पार्टियों में भी ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से अधिक उम्मीद है तो भाजपा भी अपना दल और निषाद पार्टी पर सियासी दांव खेले हुए हैं. वहीं, पश्चिम यूपी में समाजवादी पार्टी ने रालोद के साथ गठबंधन कर रखा है, ताकि जाटलैंड में भाजपा की सियासी गणित को बिगाड़ा जा सके.

इधर, 2019 में गठबंधन का कड़वा घूंट पी चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस बार किसी भी पार्टी से गठबंधन न करने की घोषणा की है. लेकिन सियासी हलकों में इस बात की भी चर्चा है कि बसपा की ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से अंदर खाने बातचीत जारी है. वहीं, अगर बात कांग्रेस की करें तो उसकी स्थिति ऐसी है कि उसके साथ कोई भी पार्टी हाथ मिलाने को तैयार नहीं है और इसके पीछे मुख्य रूप से दो वजह हैं. एक तो कांग्रेस का सूबे में तेजी से जनाधार घटा है तो दूसरा पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के कारण भी सभी पार्टियां कांग्रेस से किनारा किए हुए हैं.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
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लेकिन इन सब के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सियासत कभी कामयाब नहीं हुई है. अगर सूबे की सियासी इतिहास पर नजर डालें तो पिछले पांच दशक में यहां कई गठबंधन हुए और टूटे हैं. कुछ गठबंधन चुनाव से पहले हुए तो कुछ गठबंधन को सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव के बाद किया गया. लेकिन सच यही है कि उत्तर प्रदेश में अब तक कोई भी सियासी गठबंधन टिकाऊ और मजबूत साबित नहीं हुआ है.

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वहीं, यूपी में गठबंधन का सबसे पहला प्रयोग साल 1967 में हुआ था. अलग-अलग सियासी पार्टियों को साथ लेकर चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का मौका मिला था. उस सरकार में भारतीय लोक दल, कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ शामिल हुई थी. लेकिन यह सरकार सालभर भी नहीं चली थी. बाद में 1970 कांग्रेस से अलग हुए कुछ विधायकों ने त्रिभुवन सिंह के नेतृत्व में साझा सरकार बनाया, जिसे जनसंघ का समर्थन प्राप्त था, पर यह भी गठबंधन आखिरकार औंधे मुंह गिरी.इसके बाद साल 1977 में एक बार फिर गठबंधन की गांठ तो बंधी पर ये गठजोड़ भी टिकाऊ साबित नहीं हुआ. हालांकि, आपातकाल के कारण देश में कांग्रेस के प्रति व्याप्त नाराजगी से इस गठबंधन को पहले तो लाभ हुआ, पर इससे जुड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने आगे चलकर इसे धराशाई कर दिया.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप

यही कारण था कि यूपी में जनसंघ का साथ लेकर जनता पार्टी ने राम नरेश यादव के नेतृत्व में सूबे में सरकार बनाई थी, जो टिकाऊ साबित नहीं हुई. देखते ही देखते अलग-अलग विचारधाराओं को मिलाकर बनी यह गठबंधन कुछ ही दिनों में बिखर गई. इसके उपरांत सूबे में राम मंदिर आंदोलन की आंधी चली और भाजपा को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव और काशीराम साथ आए. उस दौरान एक नारा सुर्खियों में रहा, ''मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.'' यह गठबंधन चुनाव से पहले हुआ था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन तभी सूबे की स्थायी सियासत में एक औचक झटके ने सब खत्म करने का काम किया. गेस्ट हाउस कांड के साथ ही 1995 में यह गठबंधन टूट गया था.

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कहा जाता है कि सपाइयों से मायावती की जान भाजपा के ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने बचाई थी. यही कारण था कि भाजपा और बसपा एक बार फिर साथ आ गए. भाजपा ने भी दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेने के लिए मायावती को सत्ता सौंप दी और इसके साथ ही मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन भाजपा के साथ बसपा का गठबंधन अधिक समय तक टिक नहीं पाया.

साल 1996 के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने की सूरत में एक बार फिर भाजपा और बसपा के बीच 6-6 माह के मुख्यमंत्री पद को लेकर सहमति बनी. पर कहा जाता है कि देश में यह प्रयोग पहली बार हुआ था. मायावती ने दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी थीं. लेकिन 6 महीने पूरे होने के बाद मायावती ने कल्याण सिंह को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. इसके बाद गठबंधन टूट गया. 2002 के चुनाव में भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला था. मायावती ने एक बार फिर से भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन इस बार दरारें इतनी अधिक बढ़ गई कि यह गठबंधन टूट गया. इसी दौरान सूबे में नाटकीय घटनाक्रम हुए और मुलायम सिंह यादव ने बसपा और भाजपा के विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बना ली.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप

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वहीं, 2007 और 2012 के चुनाव में जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. इसके साथ ही 2017 के चुनाव में भी भाजपा ने भी वनवास खत्म करने के साथ ही पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. लेकिन कहते हैं कि सियासत में कुछ भी असंभव नहीं है. 2017 के चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक साथ आए थे. बावजूद इसके उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो यूपी में अप्रत्याशित गठबंधन ने सभी को चौंकाने का काम किया था. इस चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती साथ आए थे. माना जा रहा था कि यह गठबंधन भाजपा को चुनौती देने में सक्षम होगी. लेकिन परिणाम ने गठबंधन को सुपर फ्लॉप साबित कर दिया.

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हैदराबाद: यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) होने हैं और अभी से ही सभी सियासी पार्टियां जमीनी स्तर पर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने को प्रचार-प्रसार में जुट गई हैं. अबकी मुख्य तौर पर मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच होता दिख रहा है. साथ ही दोनों ही पार्टियों ने सूबे की अन्य बड़ी पार्टियों संग गठबंधन न करने का निर्णय लिया है. यही कारण है कि इन दोनों पार्टियों ने सूबे की छोटी पार्टियों से गठबंधन किया है. बात अगर पूर्वांचल और अवध की करें तो अखिलेश यादव को छोटी पार्टियों में भी ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से अधिक उम्मीद है तो भाजपा भी अपना दल और निषाद पार्टी पर सियासी दांव खेले हुए हैं. वहीं, पश्चिम यूपी में समाजवादी पार्टी ने रालोद के साथ गठबंधन कर रखा है, ताकि जाटलैंड में भाजपा की सियासी गणित को बिगाड़ा जा सके.

इधर, 2019 में गठबंधन का कड़वा घूंट पी चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस बार किसी भी पार्टी से गठबंधन न करने की घोषणा की है. लेकिन सियासी हलकों में इस बात की भी चर्चा है कि बसपा की ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से अंदर खाने बातचीत जारी है. वहीं, अगर बात कांग्रेस की करें तो उसकी स्थिति ऐसी है कि उसके साथ कोई भी पार्टी हाथ मिलाने को तैयार नहीं है और इसके पीछे मुख्य रूप से दो वजह हैं. एक तो कांग्रेस का सूबे में तेजी से जनाधार घटा है तो दूसरा पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के कारण भी सभी पार्टियां कांग्रेस से किनारा किए हुए हैं.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
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लेकिन इन सब के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सियासत कभी कामयाब नहीं हुई है. अगर सूबे की सियासी इतिहास पर नजर डालें तो पिछले पांच दशक में यहां कई गठबंधन हुए और टूटे हैं. कुछ गठबंधन चुनाव से पहले हुए तो कुछ गठबंधन को सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव के बाद किया गया. लेकिन सच यही है कि उत्तर प्रदेश में अब तक कोई भी सियासी गठबंधन टिकाऊ और मजबूत साबित नहीं हुआ है.

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वहीं, यूपी में गठबंधन का सबसे पहला प्रयोग साल 1967 में हुआ था. अलग-अलग सियासी पार्टियों को साथ लेकर चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का मौका मिला था. उस सरकार में भारतीय लोक दल, कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ शामिल हुई थी. लेकिन यह सरकार सालभर भी नहीं चली थी. बाद में 1970 कांग्रेस से अलग हुए कुछ विधायकों ने त्रिभुवन सिंह के नेतृत्व में साझा सरकार बनाया, जिसे जनसंघ का समर्थन प्राप्त था, पर यह भी गठबंधन आखिरकार औंधे मुंह गिरी.इसके बाद साल 1977 में एक बार फिर गठबंधन की गांठ तो बंधी पर ये गठजोड़ भी टिकाऊ साबित नहीं हुआ. हालांकि, आपातकाल के कारण देश में कांग्रेस के प्रति व्याप्त नाराजगी से इस गठबंधन को पहले तो लाभ हुआ, पर इससे जुड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने आगे चलकर इसे धराशाई कर दिया.

इस सियासी हकीकत को जान चौंक जाएंगे आप
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यही कारण था कि यूपी में जनसंघ का साथ लेकर जनता पार्टी ने राम नरेश यादव के नेतृत्व में सूबे में सरकार बनाई थी, जो टिकाऊ साबित नहीं हुई. देखते ही देखते अलग-अलग विचारधाराओं को मिलाकर बनी यह गठबंधन कुछ ही दिनों में बिखर गई. इसके उपरांत सूबे में राम मंदिर आंदोलन की आंधी चली और भाजपा को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव और काशीराम साथ आए. उस दौरान एक नारा सुर्खियों में रहा, ''मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.'' यह गठबंधन चुनाव से पहले हुआ था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन तभी सूबे की स्थायी सियासत में एक औचक झटके ने सब खत्म करने का काम किया. गेस्ट हाउस कांड के साथ ही 1995 में यह गठबंधन टूट गया था.

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कहा जाता है कि सपाइयों से मायावती की जान भाजपा के ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने बचाई थी. यही कारण था कि भाजपा और बसपा एक बार फिर साथ आ गए. भाजपा ने भी दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय लेने के लिए मायावती को सत्ता सौंप दी और इसके साथ ही मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. लेकिन भाजपा के साथ बसपा का गठबंधन अधिक समय तक टिक नहीं पाया.

साल 1996 के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने की सूरत में एक बार फिर भाजपा और बसपा के बीच 6-6 माह के मुख्यमंत्री पद को लेकर सहमति बनी. पर कहा जाता है कि देश में यह प्रयोग पहली बार हुआ था. मायावती ने दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी थीं. लेकिन 6 महीने पूरे होने के बाद मायावती ने कल्याण सिंह को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. इसके बाद गठबंधन टूट गया. 2002 के चुनाव में भी किसी दल को बहुमत नहीं मिला था. मायावती ने एक बार फिर से भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन इस बार दरारें इतनी अधिक बढ़ गई कि यह गठबंधन टूट गया. इसी दौरान सूबे में नाटकीय घटनाक्रम हुए और मुलायम सिंह यादव ने बसपा और भाजपा के विधायकों को तोड़कर अपनी सरकार बना ली.

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वहीं, 2007 और 2012 के चुनाव में जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. इसके साथ ही 2017 के चुनाव में भी भाजपा ने भी वनवास खत्म करने के साथ ही पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. लेकिन कहते हैं कि सियासत में कुछ भी असंभव नहीं है. 2017 के चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक साथ आए थे. बावजूद इसके उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो यूपी में अप्रत्याशित गठबंधन ने सभी को चौंकाने का काम किया था. इस चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती साथ आए थे. माना जा रहा था कि यह गठबंधन भाजपा को चुनौती देने में सक्षम होगी. लेकिन परिणाम ने गठबंधन को सुपर फ्लॉप साबित कर दिया.

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