ETV Bharat / state

लखनऊ में छाया कुमाऊनी रंग, 'छोलिया नृत्य' पर झूमे लोग - लखनऊ ताजा समाचार

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में उत्तरायणी कौथिग मेले का आयोजन किया गया है. इस मेले में चल रहा सांस्कृतिक 'छोलिया नृत्य' सभी का ध्यान आकर्षित कर रहा है. लेकिन समय के साथ छोलिया नृत्य अब अपना वजूद खोता जा रहा है. हालांकि आज भी जिन्हें इसके बारे में पता है वह इस छोलिया नृत्य का खूब आनंद ले रहे हैं.

छोलिया नृत्य
छोलिया नृत्य
author img

By

Published : Jan 17, 2021, 9:42 AM IST

लखनऊ: सांस्कृतिक 'छोलिया नृत्य' को कुमाऊनी गीतों के साथ उत्तराखंड के लोग इसे खूब पसंद करते हैं. समय के परिवर्तन के साथ इस नृत्य की पसंद पहले से फीकी पड़ने लगी है. लोगों की मान्यता है कि पहले इस सांस्कृतिक छोलिया नृत्य के बिना शादी ब्याह का होना बहुत मुश्किल था. सभी खुशियों के कार्यक्रम में छोलिया नृत्य करने वालों को बुलाया जाता था. अब धीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे हैं. लोगों का कहना है कि आने वाली नई जेनरेशन शायद ही छोलिया नृत्य के बारे में जान पाएगी.

देखें रिपोर्ट.

बुजुर्ग महिलाओं का कहना है कि इसके बिना उत्तराखंड कुमाऊं में शादी समारोह नहीं होते थे. बचपन से हम इस नृत्य को देखते हुए आ रहे हैं, लेकिन क्लासिकल संगीत और डांस की धुन के सामने लोगों को यह लोक नृत्य कुछ कम पसंद आ रहा है.

उत्तराखंड से लखनऊ उत्तरायणी कौथिग मेले में अपनी प्रतिभा दिखाने आए कलाकारों का कहना है कि हम इसी लोक नृत्य पर आश्रित हैं. हमें लोग बुलाते हैं और हम उनके यहां शादी समारोह में शामिल होते हैं. हमें पैसा भी मिलता है और इससे रोजी-रोटी भी चल जाती है. हमारे इस लोक नृत्य में कम से कम 14 से 15 लोग छोलिया डांस गीत के साथ संगीत करते हैं. हमारे उत्तराखण्ड में इसे लोग खूब पसंद करते हैं.

उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र का यह प्रचलित लोक नृत्य है. इसमें तलवार, ढाल, ढोल और मजीरा जैसे संगीत वाद्य यंत्रों को सम्मिलित किया जाता है. उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर सहित अल्मोड़ा का यह नृत्य लोकप्रिय माना जाता है. आम तौर पर इस लोक नृत्य में 22 कलाकार होते हैं. इसमें नर्तक और 14 संगीतकार होते हैं. इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसी संगीत की धुन पर तलवारबाज डाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नृतकों के साथ नकली लड़ाई जैसा प्रतीत होता है. वह अपने साथ त्रिकोणीय लाल झंडा भी रखते हैं. नृत्य के साथ नृतकों के मुख पर प्रमुखता उग्र भाव दिखाई देता है. जैसे युद्ध में जा रहे सैनिकों चेहरे पर दिखाई देता है.

लोगों की मान्यता है कि छोलिया लोक नृत्य की शुरुआत राजाओं के समय में हुई थी. यही कारण है कि कुमाऊं में अभी भी दूल्हे को कुंवर या राजा कहा जाता है. वह बारात में घोड़े की सवारी करता है तथा कमर में घुसी रखता है. इसी के साथ छलिया नृत्य का धार्मिक महत्व भी माना जाता है. इस कला का प्रयोग राजपूत समुदाय की शादी के जुलूस में होता है. छलिया डांस को बहुत ही शुभ माना जाता है. मान्यता यह भी है कि यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से सुरक्षा प्रदान करता है.

छलिया नृत्य में कुमाऊं के परंपरागत वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है. इसमें तुतुरी, नागफनी और रणसिंह प्रमुख है. इसका प्रयोग पहले युद्ध के समय में सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता था. ताल वादों में धूल तथा तनाव का प्रयोग होता है और इन्हें बजाने वालों को ढोली कहा जाता है.मसक, बीन, मुरली तथा जोया का प्रयोग भी किया जाता है. नर्तक पारंपारिक कुमाऊनी पोशाक पहनते हैं. इसमें सफेद चूड़ीदार पजामा, सिर फटा का चोला तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट, तलवार और पीतल की धारों से सुसज्जित उनकी पोशाक दिखाई देती है. इसे प्राचीन कुमाऊनी योद्धाओं के समान माना जाता है.

लखनऊ: सांस्कृतिक 'छोलिया नृत्य' को कुमाऊनी गीतों के साथ उत्तराखंड के लोग इसे खूब पसंद करते हैं. समय के परिवर्तन के साथ इस नृत्य की पसंद पहले से फीकी पड़ने लगी है. लोगों की मान्यता है कि पहले इस सांस्कृतिक छोलिया नृत्य के बिना शादी ब्याह का होना बहुत मुश्किल था. सभी खुशियों के कार्यक्रम में छोलिया नृत्य करने वालों को बुलाया जाता था. अब धीरे-धीरे लोग इसे भूलने लगे हैं. लोगों का कहना है कि आने वाली नई जेनरेशन शायद ही छोलिया नृत्य के बारे में जान पाएगी.

देखें रिपोर्ट.

बुजुर्ग महिलाओं का कहना है कि इसके बिना उत्तराखंड कुमाऊं में शादी समारोह नहीं होते थे. बचपन से हम इस नृत्य को देखते हुए आ रहे हैं, लेकिन क्लासिकल संगीत और डांस की धुन के सामने लोगों को यह लोक नृत्य कुछ कम पसंद आ रहा है.

उत्तराखंड से लखनऊ उत्तरायणी कौथिग मेले में अपनी प्रतिभा दिखाने आए कलाकारों का कहना है कि हम इसी लोक नृत्य पर आश्रित हैं. हमें लोग बुलाते हैं और हम उनके यहां शादी समारोह में शामिल होते हैं. हमें पैसा भी मिलता है और इससे रोजी-रोटी भी चल जाती है. हमारे इस लोक नृत्य में कम से कम 14 से 15 लोग छोलिया डांस गीत के साथ संगीत करते हैं. हमारे उत्तराखण्ड में इसे लोग खूब पसंद करते हैं.

उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र का यह प्रचलित लोक नृत्य है. इसमें तलवार, ढाल, ढोल और मजीरा जैसे संगीत वाद्य यंत्रों को सम्मिलित किया जाता है. उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर सहित अल्मोड़ा का यह नृत्य लोकप्रिय माना जाता है. आम तौर पर इस लोक नृत्य में 22 कलाकार होते हैं. इसमें नर्तक और 14 संगीतकार होते हैं. इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसी संगीत की धुन पर तलवारबाज डाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नृतकों के साथ नकली लड़ाई जैसा प्रतीत होता है. वह अपने साथ त्रिकोणीय लाल झंडा भी रखते हैं. नृत्य के साथ नृतकों के मुख पर प्रमुखता उग्र भाव दिखाई देता है. जैसे युद्ध में जा रहे सैनिकों चेहरे पर दिखाई देता है.

लोगों की मान्यता है कि छोलिया लोक नृत्य की शुरुआत राजाओं के समय में हुई थी. यही कारण है कि कुमाऊं में अभी भी दूल्हे को कुंवर या राजा कहा जाता है. वह बारात में घोड़े की सवारी करता है तथा कमर में घुसी रखता है. इसी के साथ छलिया नृत्य का धार्मिक महत्व भी माना जाता है. इस कला का प्रयोग राजपूत समुदाय की शादी के जुलूस में होता है. छलिया डांस को बहुत ही शुभ माना जाता है. मान्यता यह भी है कि यह बुरी आत्माओं और राक्षसों से सुरक्षा प्रदान करता है.

छलिया नृत्य में कुमाऊं के परंपरागत वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है. इसमें तुतुरी, नागफनी और रणसिंह प्रमुख है. इसका प्रयोग पहले युद्ध के समय में सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाता था. ताल वादों में धूल तथा तनाव का प्रयोग होता है और इन्हें बजाने वालों को ढोली कहा जाता है.मसक, बीन, मुरली तथा जोया का प्रयोग भी किया जाता है. नर्तक पारंपारिक कुमाऊनी पोशाक पहनते हैं. इसमें सफेद चूड़ीदार पजामा, सिर फटा का चोला तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट, तलवार और पीतल की धारों से सुसज्जित उनकी पोशाक दिखाई देती है. इसे प्राचीन कुमाऊनी योद्धाओं के समान माना जाता है.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.