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जानिए लोकसभा चुनावों के लिए कितनी तैयार है बहुजन समाज पार्टी

उत्तर प्रदेश की राजनीति की धुरी कही जानी वाली बहुजन समाज पार्टी बीते कई चुनावों के बाद राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई है. बसपा का लगातार गिरता जनाधार पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरा बन कर उभर रहा है. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण.

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Published : Jun 15, 2023, 7:43 PM IST

लखनऊ : आगामी वर्ष के आरंभ में लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं. इसे लेकर सभी दलों ने अपनी-अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं. भारतीय जनता पार्टी के बारे में कहा जाता है कि वह 24 घंटे और सातों दिन चुनाव के लिए तैयार रहती है. प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी अपनी तैयारी में जुटी है और पार्टी अध्यक्ष राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बनाने की कोशिश में हैं. साथ ही उन्होंने जिलों के दौरे भी तेज कर दिए हैं. इन सबके विपरीत प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती की कोई सक्रियता दिखाई नहीं दे रही है. जनता के बीच जाना तो दूर उनका मीडिया से भी नाता समाचार एजेंसी एएनआई और ट्विटर तक ही है. ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि क्या बसपा दोबारा अपनी ताकत दिखा पाएगी?

यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
14 अप्रैल 1984 में कांशीराम ने जब बसपा की नींव रखी थी, तब कौन जानता था कि यह पार्टी प्रदेश को चार बार मुख्यमंत्री देगी. हालांकि धीरे-धीर पार्टी ने अपना जनाधार बढ़ाया और एकदिन प्रदेश की राजनीति की धुरी बन गई. कांशीराम ने 2001 में मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. 13 मई 2007 को मायावती ने वह कर दिखा जिसका सपना कभी कांशीराम ने देखा था. बहुजन समाज पार्टी 206 सीटें जीतकर आई और पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश उसकी सरकार बनी. यह चौथी बार था, जब मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं. इस चुनाव में मायावती ने दलित-सवर्ण गठजोड़ का फार्मूला अपनाया, जो हिट रहा. लगभग पांच साल सरकार में रहने के बाद भी बसपा अपनी दोबारा वापसी नहीं कर सकी, बल्कि उसकी सीटें कम होती गईं. 2012 के विधान सभा चुनावों में बसपा 80 सीटों पर सिमट गई. 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा का खाता तक नहीं खुला. हालांकि वह देश में 4.2 प्रतिशत वोट पाकर देश की तीसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.


वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव बसपा की सीटें और गिरीं, जिसके बाद पार्टी महज 22.24 प्रतिशत वोट पाकर 19 सीटों तक सिमट गई. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने चौंकाने वाला निर्णय लेते हुए अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन किया. बसपा को इसका लाभ भी हुआ और वह इस चुनाव में 10 सीटें जीत कर आई, जबकि सपा को सिर्फ पांच सीटें ही मिलीं. बावजूद इसके मायावती ने सपा पर आरोप लगाते हुए गठबंधन तोड़ दिया. इसका खामियाजा बसपा को वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला. इस चुनाव में बसपा 12.81 प्रतिशत वोट पाकर सिर्फ एक सीट जीत पाई. यह उसका हाल के वर्षों में सबसे खराब प्रदर्शन था. इस चुनाव और इसके बाद मायावती और उनकी पार्टी की गतिविधियां लगातार कम होती गई हैं. इससे लगता नहीं है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी कोई परिवर्तन ला सकेगी.

यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.




राजनीतिक विश्लेषक डॉ. प्रदीप यादव कहते हैं बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अब चल नहीं रहा है. पार्टी का वोट बैंक भाजपा की ओर स्थानांतरित हो गया है. इसके लिए केंद्र सरकार की कई नीतियों को जिम्मेदार माना जा रहा है. पिछले कुछ चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा का जनाधार लगातार बढ़ा है और प्रदेश में मुकाबला दो दलों में केंद्रित दिखाई दिया है. ऐसी स्थिति में मायावती को दोबारा सत्ता में आने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत है. हालांकि अब उनकी पहले जैसी सक्रियता दिखाई नहीं देती है. ऐसे यदि कोई चमत्कार नहीं हुआ तो आगामी लोकसभा चुनावों में बसपा के लिए पिछला प्रदर्शन भी दोहरा पाना कठिन होगा.




यह भी पढ़ें : Cyclone Biparjoy: जखाऊ से 110 किमी दूर केंद्रित बिपरजॉय, शाम से शुरू होगा लैंडफॉल

लखनऊ : आगामी वर्ष के आरंभ में लोकसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं. इसे लेकर सभी दलों ने अपनी-अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं. भारतीय जनता पार्टी के बारे में कहा जाता है कि वह 24 घंटे और सातों दिन चुनाव के लिए तैयार रहती है. प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी अपनी तैयारी में जुटी है और पार्टी अध्यक्ष राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बनाने की कोशिश में हैं. साथ ही उन्होंने जिलों के दौरे भी तेज कर दिए हैं. इन सबके विपरीत प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती की कोई सक्रियता दिखाई नहीं दे रही है. जनता के बीच जाना तो दूर उनका मीडिया से भी नाता समाचार एजेंसी एएनआई और ट्विटर तक ही है. ऐसे में सवाल उठने लगे हैं कि क्या बसपा दोबारा अपनी ताकत दिखा पाएगी?

यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
14 अप्रैल 1984 में कांशीराम ने जब बसपा की नींव रखी थी, तब कौन जानता था कि यह पार्टी प्रदेश को चार बार मुख्यमंत्री देगी. हालांकि धीरे-धीर पार्टी ने अपना जनाधार बढ़ाया और एकदिन प्रदेश की राजनीति की धुरी बन गई. कांशीराम ने 2001 में मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. 13 मई 2007 को मायावती ने वह कर दिखा जिसका सपना कभी कांशीराम ने देखा था. बहुजन समाज पार्टी 206 सीटें जीतकर आई और पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश उसकी सरकार बनी. यह चौथी बार था, जब मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं. इस चुनाव में मायावती ने दलित-सवर्ण गठजोड़ का फार्मूला अपनाया, जो हिट रहा. लगभग पांच साल सरकार में रहने के बाद भी बसपा अपनी दोबारा वापसी नहीं कर सकी, बल्कि उसकी सीटें कम होती गईं. 2012 के विधान सभा चुनावों में बसपा 80 सीटों पर सिमट गई. 2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा का खाता तक नहीं खुला. हालांकि वह देश में 4.2 प्रतिशत वोट पाकर देश की तीसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.


वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव बसपा की सीटें और गिरीं, जिसके बाद पार्टी महज 22.24 प्रतिशत वोट पाकर 19 सीटों तक सिमट गई. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने चौंकाने वाला निर्णय लेते हुए अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन किया. बसपा को इसका लाभ भी हुआ और वह इस चुनाव में 10 सीटें जीत कर आई, जबकि सपा को सिर्फ पांच सीटें ही मिलीं. बावजूद इसके मायावती ने सपा पर आरोप लगाते हुए गठबंधन तोड़ दिया. इसका खामियाजा बसपा को वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला. इस चुनाव में बसपा 12.81 प्रतिशत वोट पाकर सिर्फ एक सीट जीत पाई. यह उसका हाल के वर्षों में सबसे खराब प्रदर्शन था. इस चुनाव और इसके बाद मायावती और उनकी पार्टी की गतिविधियां लगातार कम होती गई हैं. इससे लगता नहीं है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी कोई परिवर्तन ला सकेगी.

यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.
यूपी में बसपा का राजनीतिक सफर.




राजनीतिक विश्लेषक डॉ. प्रदीप यादव कहते हैं बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अब चल नहीं रहा है. पार्टी का वोट बैंक भाजपा की ओर स्थानांतरित हो गया है. इसके लिए केंद्र सरकार की कई नीतियों को जिम्मेदार माना जा रहा है. पिछले कुछ चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा का जनाधार लगातार बढ़ा है और प्रदेश में मुकाबला दो दलों में केंद्रित दिखाई दिया है. ऐसी स्थिति में मायावती को दोबारा सत्ता में आने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत है. हालांकि अब उनकी पहले जैसी सक्रियता दिखाई नहीं देती है. ऐसे यदि कोई चमत्कार नहीं हुआ तो आगामी लोकसभा चुनावों में बसपा के लिए पिछला प्रदर्शन भी दोहरा पाना कठिन होगा.




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