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जानें क्यों खत्म हो रहा बुंदेलखंडी होली में पारंपरिक गीतों का वजूद, क्या है रिवाज ?

बुंदेलखंड में फाल्गुन माह में शुरू होने वाले फाग गायन की परंपरा अब ग्रामीण परिवेश में भी सिमटकर रह गई है. युवाओं में दिलचस्पी की कमी से इन पारंपरिक गीतों का वजूद खत्म हो रहा है. हालांकि इसे कुछ विशेष मामलों में गाया जाता है. आइये जानते हैं..

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बुंदेलखंडी होली
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Published : Mar 21, 2022, 2:06 PM IST

ललितपुर: बुंदेलखंड में फाल्गुन माह में शुरू होने वाले फाग गायन की परंपरा अब ग्रामीण परिवेश में भी सिमटकर रह गई है. पहले फाल्गुन के महीने से शुरू होकर चैत्र महीने की अमावस्या तक इसका गायन चलता था. युवाओं में दिलचस्पी की कमी से इन पारंपरिक गीतों का वजूद लगभग खत्म हो गया है. हालांकि इसे अनरह की होली में गाया जाता है. इसके अलावा रंगपंचमी के मौके पर तो इसे देवालयों में रात भर गाया जाता है.

बता दें कि बुंदेलखंडी परंपरा के मुताबिक किसी परिवार में किसी के स्वर्गवास के बाद पड़ने वाली होली से पहले कोई मांगलिक कार्यक्रम नहीं होता है, होली के बाद चौथे दिन उस घर में इन गीतों को गाया जाता है, जिसके बाद उस घर में मांगलिक कार्यक्रमों की शुरुआत होती है. इसे अनरह की होली कहते हैं.

बुंदेलखंडी की पारंपरिक होली

फाग गायन बुंदेलखंड की संस्कृति से जुड़ा हुआ है. इसमें बुंदेलखंडी शब्दों का इस्तेमाल होने से इसे खूब पसंद किया जाता है. इसका गायन करीब सात दशकों से चला आ रहा है. यह गायन पूर्व में इतना लोकप्रिय रहा कि जब भी किसान फुर्सत में होते इसे गुनगुनाते रहते थे. किसान कभी अपने खेतों पर सुख-दुख के समय भी फागों का गायन करते थे तो कभी आपसी मतभेद भुलाने के लिए फाग गाते थे. कुछ गीतकारों ने इसे अपने भजनों में शामिल किया तो कुछ लोगों ने इसे विभिन्न रागों में गाने का प्रयास किया है. इसका गायन फाल्गुन माह के आते ही शुरू हो जाता था.

यह भी पढ़ें- कान्हा की नगरी में होली की धूम, ढोल-नगाड़ों की धुन पर थिरके लोग

बदलते दौर में फाग अपनी लोकप्रियता को कायम नहीं रख सका. इसकी प्रमुख वजह है कि युवाओं में इसको लेकर दिलचस्पी नहीं है. मौजूदा दौर में बुजुर्ग इसे होलिका अष्टक लगते ही गाना शुरू कर देते हैं. अब इसे सबसे ज्यादातर दुख में गाया जा रहा है. अगर किसी घर में किसी का स्वर्गवास हो जाता है, वहां होली के दौरान फाग गाया जाता है. इसमें दूरदराज के रिश्तेदार भी शामिल होने पहुंचते हैं. इसे ढोल-नगाड़ों की धुन पर घर-घर गाया जाता है, जो रंगपंचमी के एक दिन पहले तक चलता है. रंगपंचमी पर इसे देवी-देवताओं के स्थानों पर गाया जाता है, जो पूरी रात चलता है. इस गायन में जब ढोल बजते हैं तो रात्रि में इसकी गूंज पूरे गांव में सुनाई पड़ती है.

होली के बाद रंगपंचमी तक होते हैं ये कार्यक्रम-

होली के बाद पहले दिन गांवों और शहरों में एक निश्चित स्थान पर होलिका दहन होती है.

दूसरे दिन होलिका दहन में होली की आग से घरों का चूल्हा जलाकर दाल-बाटी बनाई जाती है और रंग गुलाल से लोगों को टीका करते है.

तीसरे दिन भाई दूज मनाते हैं, जिसमें बहनें अपने भाइयों को टीका लगाकर उनकी लंबी उम्र की भगवान से प्रार्थना करती हैं.

चौथे दिन बुंदेली परंपरा से जिस घर में किसी का देहांत हो जाता है, उस घर में लोग मंडली बनाकर उन्हें सात्वना देने जाते हैं और मंडली फाग गीत गाते हैं.

पांचवे दिन गांव और शहरों में मंडली मंदिरों में जाकर होली खेलते हैं, जिसे रंग पंचमी कहते हैं.

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ललितपुर: बुंदेलखंड में फाल्गुन माह में शुरू होने वाले फाग गायन की परंपरा अब ग्रामीण परिवेश में भी सिमटकर रह गई है. पहले फाल्गुन के महीने से शुरू होकर चैत्र महीने की अमावस्या तक इसका गायन चलता था. युवाओं में दिलचस्पी की कमी से इन पारंपरिक गीतों का वजूद लगभग खत्म हो गया है. हालांकि इसे अनरह की होली में गाया जाता है. इसके अलावा रंगपंचमी के मौके पर तो इसे देवालयों में रात भर गाया जाता है.

बता दें कि बुंदेलखंडी परंपरा के मुताबिक किसी परिवार में किसी के स्वर्गवास के बाद पड़ने वाली होली से पहले कोई मांगलिक कार्यक्रम नहीं होता है, होली के बाद चौथे दिन उस घर में इन गीतों को गाया जाता है, जिसके बाद उस घर में मांगलिक कार्यक्रमों की शुरुआत होती है. इसे अनरह की होली कहते हैं.

बुंदेलखंडी की पारंपरिक होली

फाग गायन बुंदेलखंड की संस्कृति से जुड़ा हुआ है. इसमें बुंदेलखंडी शब्दों का इस्तेमाल होने से इसे खूब पसंद किया जाता है. इसका गायन करीब सात दशकों से चला आ रहा है. यह गायन पूर्व में इतना लोकप्रिय रहा कि जब भी किसान फुर्सत में होते इसे गुनगुनाते रहते थे. किसान कभी अपने खेतों पर सुख-दुख के समय भी फागों का गायन करते थे तो कभी आपसी मतभेद भुलाने के लिए फाग गाते थे. कुछ गीतकारों ने इसे अपने भजनों में शामिल किया तो कुछ लोगों ने इसे विभिन्न रागों में गाने का प्रयास किया है. इसका गायन फाल्गुन माह के आते ही शुरू हो जाता था.

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बदलते दौर में फाग अपनी लोकप्रियता को कायम नहीं रख सका. इसकी प्रमुख वजह है कि युवाओं में इसको लेकर दिलचस्पी नहीं है. मौजूदा दौर में बुजुर्ग इसे होलिका अष्टक लगते ही गाना शुरू कर देते हैं. अब इसे सबसे ज्यादातर दुख में गाया जा रहा है. अगर किसी घर में किसी का स्वर्गवास हो जाता है, वहां होली के दौरान फाग गाया जाता है. इसमें दूरदराज के रिश्तेदार भी शामिल होने पहुंचते हैं. इसे ढोल-नगाड़ों की धुन पर घर-घर गाया जाता है, जो रंगपंचमी के एक दिन पहले तक चलता है. रंगपंचमी पर इसे देवी-देवताओं के स्थानों पर गाया जाता है, जो पूरी रात चलता है. इस गायन में जब ढोल बजते हैं तो रात्रि में इसकी गूंज पूरे गांव में सुनाई पड़ती है.

होली के बाद रंगपंचमी तक होते हैं ये कार्यक्रम-

होली के बाद पहले दिन गांवों और शहरों में एक निश्चित स्थान पर होलिका दहन होती है.

दूसरे दिन होलिका दहन में होली की आग से घरों का चूल्हा जलाकर दाल-बाटी बनाई जाती है और रंग गुलाल से लोगों को टीका करते है.

तीसरे दिन भाई दूज मनाते हैं, जिसमें बहनें अपने भाइयों को टीका लगाकर उनकी लंबी उम्र की भगवान से प्रार्थना करती हैं.

चौथे दिन बुंदेली परंपरा से जिस घर में किसी का देहांत हो जाता है, उस घर में लोग मंडली बनाकर उन्हें सात्वना देने जाते हैं और मंडली फाग गीत गाते हैं.

पांचवे दिन गांव और शहरों में मंडली मंदिरों में जाकर होली खेलते हैं, जिसे रंग पंचमी कहते हैं.

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